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पारिवारिक पार्टियों का सफाया ?

वर्तमान लोकसभा चुनावों में देश के विभिन्न राज्यों में ‘पारिवारिक राजनैतिक पार्टियों’ का पतन हुआ है इससे लोकतन्त्र का वह पक्ष मजबूत हुआ है जो ‘स्वामीभाव’ को नकारता है। यह स्वामीभाव ‘विरासत’ से अलग होता है , इसका भेद भी जानना बहुत जरूरी है।

वर्तमान लोकसभा चुनावों में देश के विभिन्न राज्यों में ‘पारिवारिक राजनैतिक पार्टियों’ का पतन हुआ है इससे लोकतन्त्र का वह पक्ष मजबूत हुआ है जो ‘स्वामीभाव’ को नकारता है। यह स्वामीभाव ‘विरासत’ से अलग होता है , इसका भेद भी जानना बहुत जरूरी है। लोकतन्त्र में स्वामीभाव ‘दास मानसिकता’ का ही विस्तार है जबकि ‘विरासत’ वैचारिक क्रम का हस्तान्तरण है। जिन-जिन राज्यों में भी पारिवारिक पार्टियां हारी हैं उनमें अधिसंख्य वे हैं जो इन चुनावों में भाजपा के विरुद्ध बने मोर्चों में शामिल थीं। इनमें से किसी एक पार्टी के भी नेता की पहचान अपने पिता या दादा के वंश का सदस्य होने की वजह से ही थी।
 राजनीति में उनका अपना कोई महत्व नहीं था, इनमें सबसे पहले उत्तर प्रदेश को लेते हैं जहां चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह और पौत्र जयन्त चौधरी दोनों चुनाव हार गये हैं। इसके साथ ही मुलायम सिंह की पुत्रवधू डिम्पल यादव व भतीजे धर्मेन्द्र यादव भी परास्त रहे हैं। इनमें से पहले दो पिता-पुत्र चौधरी चरण सिंह की वैचारिक विरासत के हकदार कभी नहीं बन सके और केवल उनके पुत्र व पौत्र होने की वजह से ही पूर्व में चुनाव जीतते रहे मगर समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह की पार्टी में हालत और भी ज्यादा खराब थी जहां उन्होंने अपने पूरे खानदान के लोगों को ही अपनी पार्टी के सूबेदारों में तब्दील कर दिया और लोगों से कहा कि वे उन्हें अपने ‘माई-बाप’ समझें। यहां भी किसी प्रकार की वैचारिक विरासत का कोई सवाल नहीं था बल्कि सिर्फ परिवार का सवाल था। 
ठीक यही हालत कर्नाटक में पूर्व प्रधानमन्त्री एच.डी. देवगौड़ा के मामले में थी। उन्होंने अपने पोते को ही चुनाव मैदान में उतार दिया और खुद भी उतर गये। लोगों ने दोनों को ही अस्वीकार कर दिया। तेलंगाना में राष्ट्रीय समिति के नेता मुख्यमन्त्री के. चन्द्रशेखर राव की पुत्री के. कविता अपने पिता के नाम पर नेता बनना चाहती थीं। यहां फिलहाल मैं भाजपा और कांग्रेस पार्टी का जिक्र नहीं कर रहा हूं जिनमें पिता की वजह से पुत्र या पुत्री नेता बनने की सीढि़यां चढे़ हैं, फिलहाल क्षेत्रीय दलों का ही हिसाब रख रहा हूं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता श्री लालू प्रसाद यादव ने भी अपनी पार्टी को ‘खानदानी कदीमी परचून’ की दुकान बनाकर अपने पुत्रों व पुत्री को पार्टी कार्यकर्ताओं का स्वामी बना दिया। पंजाब में देश की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी अकाली दल का स्वरूप भी अब किसी खानदानी राजनैतिक दुकान की तरह हो गया है। यही हाल महाराष्ट्र की शिवसेना और बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी का है। 
पंजाब में अकाली दल का मतलब ‘बादल परिवार’, बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी का अर्थ ‘रामविलास पासवान परिवार’ और महाराष्ट्र में शिवसेना का अर्थ स्व. बालासाहेब ठाकरे परिवार के अलावा कुछ नहीं है। अलग-अलग राज्यों में इन सभी क्षेत्रीय दलों का अलग-अलग जातिगत गणित और सामुदायिक समीकरण है और राजनैतिक गठजोड़ है। इन खानदानी परचून की राजनैतिक दुकानों का एक ही लक्ष्य हर सूरत में राजनीति का अधिकाधिक लाभ इस तरह उठाना रहा है कि उनकी दुकानों की गद्दियों पर जनता के बीच से उठे किसी अन्य प्रभाव से प्रभावशाली नेता का कभी अधिकार न होने पाये। ये दल सभी अधिकार इस प्रकार अपने पारिवारिक सदस्यों को देते हैं कि उनकी ही पार्टी का कद्दावर से कद्दावर नेता उनके समक्ष ‘दास भाव’ से हाथ बान्धे खड़ा रहे जिससे आम जनता मे सन्देश जाये कि वही असली माई-बाप हैं। 
पार्टी के भीतर अपनी औलादों को वैधानिकता दिलवा कर वे जनता के बीच उनकी नैतिक स्थापना इस प्रकार करते हैं कि जनता स्वयं ‘स्वामीभाव’ में डूब जाये। इन सभी क्षेत्रीय दलों का एकमात्र लक्ष्य सत्ता में भागीदारी का रहता है अतः वे अपनी मजबूती के लिए ऐसा ‘वोट बैंक’ तैयार करते हैं जिसके फौरी हितों के लिए वे समूचे समाज की जगह इसी वोट बैंक के हितों की राजनीति करते दिखाई दें, जिससे इसके लोगों में स्वामीभाव जमा रहे परन्तु राजनैतिक विरासत की राजनीति का मतलब ‘पारिवारिक राजनीति’ नहीं होता है। सत्तारूढ़ भाजपा में भी ऐसे बहुत से नेता हैं जो वंशावली के क्रम में आते हैं। पिता, पुत्र या पत्नी अथवा पुत्री अपनी पारिवारिक पहचान की वजह से ही राजनीति में प्रवेश करते हैं। इसी प्रकार कांग्रेस पार्टी में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं है मगर इन नेताओं को इनके दल तभी स्वीकृति देते हैं जब इनमें वे प्रतिभा देखते हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण श्री रविशंकर प्रसाद हैं जो बिहार जनसंघ के अध्यक्ष रहे स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह के सुपुत्र हैं। 
उन्हें लम्बे राजनैतिक संघर्ष के बाद ही मन्त्री पद के योग्य समझा गया। ठीक यही स्थिति कांग्रेस पार्टी की भी है जिसमें श्री राहुल गांधी को लम्बे राजनैतिक संघर्ष के बाद पार्टी अध्यक्ष के सुयोग्य समझा गया। इसकी आलोचना यह कहकर की जा सकती है कि वह गांधी-नेहरू परिवार की शृंखला के ही हैं मगर यहां सवाल वैचारिक विरासत का है। इस पर बहस हो सकती है कि वह कांग्रेस की विचारधारा के किस स्वरूप को महत्व दे रहे हैं जबकि उनके पिता स्व. राजीव गांधी के मामले में स्थिति पूरी तरह अलग थी जिन्हें कांग्रेसियों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रधानमन्त्री बनाया था।मगर राहुल गांधी की मां श्रीमती सोनिया गांधी व उन्हें  ‘वंशवाद’ की जगह पार्टी की ‘वैचारिक विरासत’ को जारी रखने के लिए राजनीति में लाया गया। 
ठीक यही स्थिति तमिलनाडु की द्रमुक पार्टी की है जहां स्व. करुणानि​िध की वैचारिक विरासत को आगे जारी रखने के लिए उनके पुत्र एम.के. स्टालिन को पार्टी की कमान सौंपी गई। स्टालिन ने भी अपने पिता के रहते ही राजनीतिक परिपक्वता प्राप्त की और विपक्ष में रहते हुए ही प्राप्त की। हमें ‘विरासत और वंश’ में भेद करना होगा और तब पूरी स्थिति की समीक्षा करनी होगी। लोकतन्त्र में वंश का नहीं बल्कि विरासत का ही स्थायी भाव होता है और जरूरी नहीं होता कि विरासत किसी वंश के व्यक्ति को ही मिले। इस मामले में चौधरी चरण सिंह और डा. राम मनोहर लोहिया की वैचारिक विरासत को आज भी संभाले हुए हैं तो श्री शरद यादव ही संभाले हुए हैं मगर नरेन्द्र मोदी की आंधी में वह भी बह गये। चुनावी राजनीति में ऐसा होता रहता है। सवाल सिर्फ यह होता है कि कौन नेता किस पाले में खड़ा हुआ है। इन चुनावों में तो मतदाताओं ने प्रत्याशियों का चेहरा तक नहीं देखा केवल श्री नरेन्द्र मोदी को वोट दिया है, जिसमें बड़े-बड़े सूरमाओं के चेहरे ढक गये। सबकी जबान पर यही था कि ‘कुछ भी कर लो आयेगा तो मोदी ही’। 
जनता में यह विश्वास उपजना ही बता रहा था कि जमीन पर लोगों ने वह गठबन्धन तैयार कर लिया है जिसके आगे क्षेत्रीय दलों के वे सभी गठबन्धन ताश के पत्तों की तरह बिखर जायेंगे जो नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाना चाहते थे। एक मायने में यह परिवर्तन उत्तर भारत में राजनीति के राष्ट्रीय तेवरों को नया कलेवर देने की तरफ बढे़गा और मतदाताओं का ध्रुवीकरण राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के बीच होगा जिसका आधार वैचारिक ही होगा।

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