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येदियुरप्पा की विदाई

कर्नाटक के मुख्यमन्त्री श्री बी.एस. येदियुरप्पा ने लम्बी कयासबाजी के बाद आज अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। उनके इस्तीफा देने से यह स्पष्ट हो गया है

कर्नाटक के मुख्यमन्त्री श्री बी.एस. येदियुरप्पा ने लम्बी कयासबाजी के बाद आज अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। उनके इस्तीफा देने से यह स्पष्ट हो गया है कि राजनीति में कोई भी व्यक्ति कभी अपरिहार्य नहीं होता क्योंकि लोकतन्त्र में नेताओं की वजह से राजनीति नहीं होती बल्कि राजनीति की वजह से राजनीतिज्ञ होते हैं जिनका वजूद आम जनता अपने एक वोट की ताकत से बनाती है। येदियुरप्पा बेशक कर्नाटक में भाजपा को जमीन से उठा कर आसान तक पहुंचाने वाले राजनेता रहे हों मगर यह भी सच है कि वह ऐसे मुख्यमन्त्री भी रहे जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से 2011 में 25 दिन जेल में भी रहना पड़ा। हकीकत तो यह भी है कि भ्रष्टाचार ने कभी भी येदियुरप्पा का पीछा नहीं छोड़ा औऱ उनके हर मुख्यमन्त्रित्व काल में उन पर वित्तीय घपलों के आरोप लगते रहे। इतना ही नहीं 2010 में मुख्यमन्त्री रहते उन्होंने राज्य विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध करने को लेकर भी जिस तरह विधानसभा में शतरंज बिछाई उससे दुखी होकर राज्य के तत्कालीन राज्यपाल स्व. हंसराज भारद्वाज को उन्हें पुनः विश्वास मत प्राप्त करने का आदेश देना पड़ा था। उस समय विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका को लेकर भी भारी सवाल खड़े हुए थे क्योंकि विश्वासमत से कुछ समय पहले ही भाजपा के 11 बागी विधायकों समेत पांच निर्दलीय विधायकों को भी मतदान में हिस्सा लेने के अयोग्य ठहरा दिया था। एक मायने में श्री येदियुरप्पा शिखर राजनीति के कुशल खिलाड़ी रहे हैं  औऱ बार- बार सिद्ध करते रहे हैं कि ऊपरी जोड़-तोड़ से भी सत्ता की गोटियां सही जगह बैठायी जा सकती हैं। ऐसे  उन्होंने पहली बार तब किया था जब कर्नाटक में कांग्रेस व जनता दल (स) की मिली–जुली धर्म सिंह सरकार श्री एच.डी. कुमारस्वामी ने गिरा दी थी। तब 2004 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भाजपा पहली बार श्री येदियुरप्पा के नेतृत्व में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और इसे 79 सीटे तथा कांग्रेस को 65 व कुमारस्वामी की जनता दल (स) को 58 सीटें मिली थी। मगर 2006 में कुमार स्वामी की बगावत से यह सरकार गिर गई थी और कुमार स्वामी ने भाजपा से हाथ मिला कर आधे-आधे समय तक मुख्यमन्त्री पद पर बने रहने का समझौता किया था। परन्तु 2007 में यह सरकार भी गिर गई और तब श्री येदियुरप्पा ने जैसे-तैसे जुगाड़ बैठा कर मुख्यमन्त्री पद की शपथ ले ली मगर वह केवल सात दिन ही इस पद पर बने रह सके और विधानसभा में अपना बहुमत साबित नहीं कर पाये। इशके बाद 2008 के विधानसभा चुनावों में भाजपा पूर्ण बहुमत के आसपास रही और वह मुख्यमन्त्री बन गये मगर उनकी कार्यप्रणाली के खिलाफ औऱ उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते भाजपा के भीतर विद्रोह के स्वर उभरे और 11 विधायक बागी हो गये जिसकी वजह से 2010 में विश्वासमत का भारी तमाशा हुआ । पहली बार विश्वासमत ध्वनि मत से ही येदियुरप्पा ने प्राप्त कर लिया था। इसके बाद उनके स्थान पर भाजपा की तरफ से मुख्यमन्त्री पद पर जिस भी नेता सदानन्द गौड़ा व जगदीश शेट्टार को बैठाया गया वे असफल सिद्ध हुए और 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा का सूपड़ा साफ जैसा हो गया। इसकी एक वजह यह भी थी कि इन चुनावों मे श्री येदियुरप्पा ने अपनी अलग पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष बना ली थी  जिसने भाजपा का जनाधार खोखला करने में कोई कसर नहीं छोङी। अतः इन चुनावों में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला औऱ श्री सिद्धारमैया के नेतृत्व में इसकी सरकार पूरे पांच साल 2018 तक चली। मगर इस बीच श्री येदियुरप्पा को भाजपा ने पुनः वापस लेकर अपनी गल्ती में सुधार किया और उन्होंने अपनी पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष का इसमे विलय कर दिया। येदियुरप्पा 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की बागडोर थाम कर निकले और इसे पुनः विधानसभा मे सबसे ज्यादा 104 सीटें मिली जबकि कांग्रेस व जनता दल (स) दूसरे व तीसरे नम्बर पर रहे। भाजपा पूर्ण बहुमत से दूर थी मगर राज्यपाल ने श्री येदियुरप्पा को मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिला दी जिसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई क्योंकि राज्यपाल ने येदियुरप्पा को अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए दो हफ्ते का समय दे दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर येदियुरप्पा को दो दिन के भीतर बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया जिसे विधानसभा के पटल पर वह सिद्ध नहीं कर सके और उन्होंने तीन दिन में ही अपना इस्तीफा दे दिया। इसके बाद कुमार स्वामी की जद (स) की मिलीजुली सरकार बनी मगर सत्तारूढ़ दलों के 17 विधायक टूट गए। अतः कुमार स्वामी के गिर जाने के बाद 26 जुलाई 2019 को श्री येदियुरप्पा पुनः मुख्यमन्त्री बने। इनकी राजनीतिक कलाबाजी का लोहा सभी मानते हैं मगर उनकी जमीनी पकड़ को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। कर्नाटक में लिंगायत व वोकालिंग्गा की सियासत को हवा देने वाले भी वही पहले नेता हैं। हालांकि इसका आगाज 1996 से ही हो चुका था मगर इसे शोला बनाने का श्रेय उन्ही को जाता है। उनकी बढती ( 78 वर्ष) की आयु देख कर भाजपा आला कमान ने उन्हें पद से मुक्त करने का फैसला किया हो अथवा उनके भ्रष्टाचार में उनके परिवार की संलिप्तता देख कर मगर इतना तय है कि येदियुरप्पा का विकल्प ढूंढने में भाजपा को खासी परेशानी आने वाली है। मगर राजनीति लगातार बदलने वाली शह होती है और समय के अनुसार इसके रहनुमा बदलते रहते हैं। 

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