सरकार ने खरीफ की फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य अधिक घोषित करते हुए कहा है िक इससे किसानों की लागत का डेढ़ गुना मूल्य सुनिश्चित हो जाएगा। इस सन्दर्भ में धान का खरीद मूल्य सरकार ने 1550 रु. से बढ़ाकर 1750 रु. प्रति क्विंटल करने की घोषणा की है। कुल 200 रु. प्रति क्विंटल की वृद्धि से यदि लागत का डेढ़़ गुना मूल्य किसान को प्राप्त होता है तो यह बहुत ही सीधा-सादा सरल उपाय है। धान के अलावा अन्य 14 फसलों के समर्थन मूल्य भी सरकार ने लगभग 9 प्रतिशत बढ़ाये हैं। यदि समर्थन मूल्य बढ़ाने भर से किसानों की समस्याओं का हल संभव है तो फिर इतनी हाय-तौबा कृषि क्षेत्र की खराब हालत को लेकर क्यों हो रही है ? सरकार यदि किसानों को मात्र 15 हजार करोड़ रु. ज्यादा भुगतान करके किसानों की समस्याओं से निजात पा सकती है तो फिर समस्या को समाप्त हो जाना चाहिए। जिस देश की बैंकिंग अर्थव्यवस्था में एक लाख करोड़ रु. से ज्यादा हर साल बट्टे खाते में चले जाते हों उसके लिए 15 हजार करोड़ रु. की धनराशि क्या मायने रखती है? देश की साठ प्रतिशत जनसंख्या के लि8ए यह राहत राशि बहुत ही कम मानी जाएगी परन्तु असलियत यह है कि इससे समस्या जैसी की तैसी ही बनी रहेगी क्योंकि हम बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में खेती की जरूरतें पूरी करने का हल संरक्षित अर्थव्यवस्था के मानकों में ढूंढ रहे हैं।
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इस बढ़े हुए समर्थन मूल्य का कितने किसानों को लाभ प्राप्त होगा ? मोटे अनुमान के अनुसार केवल दस प्रतिशत किसान ही समर्थन मूल्य पर अपनी उपज बेच पाते हैं जबकि 90 प्रतिशत किसानों को बाजार में बैठे आढ़तियों को अपनी उपज आैने-पौने दामों पर बेचनी पड़ती है। केन्द्र सरकार समर्थन मूल्य घोषित कर देती है मगर उपज की खरीदारी की व्यवस्था राज्य सरकारें करती हैं। किसान की यह मजबूरी होती है कि वह अपनी बाजार में लाई गई उपज की कीमत तुरन्त वसूल पाये क्योंकि फसल के तैयार होने में उसे लम्बा इन्तजार करना पड़ता है और इस हद तक कि उसकी आर्थिक हालत जर्जर हो जाती है और उसका सारा दारोमदार पकी फसल की रकम पर ही निर्भर करता है। जिस धान की फसल का समर्थन मूल्य सरकार ने अब घोषित किया है उसकी बुवाई आजकल बरसात के मौसम में ही हो रही है जिसके पकने में लगभग चार महीने से ज्यादा का समय लगेगा। इन चार महीनों में किसान अपनी पुरानी बची-खुची कमाई पर ही जिन्दा रहेगा और उसका पूरा परिवार खेती की जमीन की देखभाल और उसे तैयार करने में जुटा रहेगा।
इस दौरान वह कर्ज ले-लेकर भी अपने परिवार का गुजारा करने को मजबूर हो जाता है। खासकर वह किसान जिसके पास जमीन की जोत छोटी होती है। चार महीने बाद भी यदि उसे अपनी लागत का ड्योढ़ा प्राप्त होता है तो क्या उससे बाजार मूलक उपभोक्ता बाजार के साये में जीने की उसमें हिम्मत पैदा हो सकती है? किसान के बच्चों को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं मिलना किस तरह संभव है जबकि पूरे चार महीने तक उसकी आमदनी का जरिया कोई न हो और वह केवल पकी फसल से मिलने वाली रकम पर ही पूरी आस बांध कर बैठा हो। तर्क दिया जा सकता है कि सरकार जन स्वास्थ्य बीमा योजना ला रही है मगर यह योजना तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि प्रत्येक तहसील स्तर पर अच्छे अस्पतालों का निर्माण न हो। हम उस व्यवस्था को गले लगाने को तो तैयार हैं जिसमें बाजार की जरूरत का लाभ उठाकर निजी क्षेत्र के साहूकार फले-फूलें या धनाढ्य लोगों की चांदी हो मगर उस परंपरा को छोड़ना चाहते हैं जिसमें सरकार अपनी मूलभूत जनसेवाएं प्रदान करने की जिम्मेदारी निभाए।
यह तभी संभव होगा जब सरकार स्वयं गरीब किसान के बच्चों को अच्छी शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाएं देने की गारंटी ले। इसके लिए उसे जिला स्तर से तहसील स्तर तक पर गुणवत्ता वाले स्कूल व अस्पताल खोलने होंगे लेकिन आज विषय यह नहीं है बल्कि कृषि क्षेत्र है। इस क्षेत्र का उद्धार तब तक संभव नहीं है जब तक कि इस क्षेत्र में पर्याप्त पूंजी सृजन (कैपिटल फार्मेशन) न हो। यह पूंजी निर्माण तभी होगा जब सरकारी स्तर पर इस क्षेत्र में पूंजी निवेश को वरीयता दी जाये जिससे तहसील स्तर पर ही अन्न भंडारण की क्षमताएं निर्मित करके किसानों की उपज को संरक्षण मिले और उनके हाथ में यह ताकत आये कि वे अपनी उपज को केवल समर्थन मूल्य पर ही बेचें। किसान जिसे धरती का भगवान भी कहा जाता है, उसे हम केवल अन्न उगाने वाला समझ कर उसके बच्चों को दो जून का अन्न भरपेट खाने लायक नागरिक नहीं समझ सकते बल्कि उसका अधिकार भी राष्ट्रीय सम्पत्ति पर उतना ही है जितना कि किसी संभ्रान्त समझे जाने वाले नागरिक का। उसके बच्चों को भी उच्च शिक्षा प्राप्त करके संभ्रान्त नागरिक कहलाने का उतना ही अधिकार है जितना कि किसी आईएएस अफसर के बेटे या बेटी को।
अतः यह बेवजह नहीं है कि कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य के किसानों का दो लाख रु. तक का ऋण माफ करने की घोषणा आज ही की है। यह संयोग नहीं है कि केन्द्र की सरकार भी जहां किसानों का हितचिन्तक बनने की कोशिश कर रही है वहीं कर्नाटक की कांग्रेस-जद (एस) सरकार भी उनकी परेशानियों को कम करने की कोशिश कर रही है परन्तु कृषि क्षेत्र की मूल समस्याओं का इनमें से अन्तिम हल कोई भी नहीं है। बेशक स्वामीनाथन आयोग ने डेढ़ गुणा कीमत देने की सिफारिश की थी मगर लागत मूल्य निकालने का वैज्ञानिक तरीका भी सुझाया था जिसमें जमीन की कीमत का भी आकलन किया जाना था। किसानों का कर्जदार होने का रहस्य उसी कहानी मंे छुपा हुआ है जिसका वर्णन मैंने ऊपर किया है मगर हम तो एेसे जाल में उलझते जा रहे हैं जिसमें बाजार मूलक अर्थव्यवस्था किसान को कर्जदार बना रही है और समर्थन मूल्य प्रणाली उसकी सांसें भर चला रही है। नरेन्द्र मोदी सरकार का अपने वादे के मुताबिक किसानों को राहत देने के लिए खरीफ की सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना सराहनीय कदम है। इससे किसानों को कुछ राहत तो मिलेगी।