चालू वित्त वर्ष की प्रथम तिमाही के जारी आर्थिक आंकड़ों से स्पष्ट है कि भारत अब जबर्दस्त मन्दी के दौर में प्रवेश कर चुका है। इसी वर्ष में मार्च महीने से कोरोना का प्रकोप शुरू हुआ और अप्रैल से जून तक की तिमाही में सकल उत्पादन में 24 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई। जाहिर है कि इसके प्रभाव से रोजगार में भी भारी कमी होनी तय है परन्तु चिन्ताजनक स्थिति असंगठित क्षेत्र में होनी तय है जिसमें अधिसंख्य लोगों को रोजगार मिलता है। इसका मतलब यह भी निकलता है कि छोटे उद्योग-धन्धे चौपट होने जैसी स्थिति में हैं क्योंकि उत्पादन क्षेत्र में 39.3 प्रतिशत की कमी हुई है और भवन निर्माण क्षेत्र में 50.3 प्रतिशत की कमी हुई है और व्यापार, होटल, परिवहन आदि में 47 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है। मोटी भाषा में आम आदमी के मतलब की बात यह है कि कोरोना ने सबसे ज्यादा चोट गरीब व मध्यम वर्ग के लोगों को पहुंचाई है। लेकिन अहम बात यह है कि देश के अन्नदाता ने अपने खून-पसीने की बदौलत कोरोना को परास्त करने की कोशिश की है। जिस कोरोना ने देश के हर क्षेत्र में हर किसी को प्रभावित किया हो उसका व्यापक रूप देखा जाए तो कृषि क्षेत्र में वृद्धि एक सुखद आश्चर्य है।
एक तरफ उनका रोजगार छीन लिया है और दूसरी तरफ छोटा-मोटा धंधा करके अपने परिवार का पेट पालने वाले लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं। इनकी आमदनी बुरी तरह सिकुड़ गई है और हर चार में से एक आदमी बेरोजगार हो चुका है। यदि देश के कुल 26 करोड़ परिवार की बात करें तो सात करोड़ परिवार ऐसे हैं जो भूखों मरने की नौबत में हैं अर्थात जिनकी आय का साधन छिन चुका है मगर इनके अलावा मध्यम दर्जे के लगभग इससे दुगने परिवार ऐसे हैं जिनकी आय इस प्रकार प्रभावित हुई है कि वे गरीबी की सीमा रेखा के करीब पहुंचने पर मजबूर हो गये हैं। बाजार पर इस मन्दी का असर देखा जाये तो माल या वस्तुओं का उठान मांग न होने की वजह से बुरी तरह गिर चुका है। इसका मतलब यह है कि बाजार में नकद रोकड़ा की आवक ठप्प सी हो गई है जिससे और आगे माल के उत्पादन की मांग नहीं निकल रही है। मार्च से मई तक महीने के दौरान लाॅकडाऊन का समय रहा और इसके प्रभाव से अर्थव्यवस्था इस तरह बैठी कि रोजाना कमा कर खाने वाला व्यक्ति कंगाली की हालत में पहुंच गया और जो खाता-पीता कहा जाता था वह दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में गरीब होता चला गया। अतः पहले जो ये आंकड़े आये थे कि कम से कम 40 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जा सकते हैं, वे अब सत्य प्रतीत हो रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में 3.4 प्रतिशत की उत्पादन वृद्धि दर्ज हुई है। इसका मतलब यह है कि किसानों ने पूरी मेहनत करके कोरोना के असर को परे धकेलने में सफलता प्राप्त की है परन्तु इससे उनकी आर्थिक स्थिति भी बेहतर हुई हो। फिर भी किसान की बेहतर स्थिति का खुद अन्नदाता को इंतजार है। यद्यपि मोदी सरकार अन्नदाता के लिए बहुत कुछ कर रही है।
सभी वाणिज्यिक व व्यापारी गतिविधियों मंे गिरावट दर्ज होने से किसानों की फसल का समुचित मूल्य मिलने की गारंटी नहीं दी जा सकती। जिन फसलों की सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर खरीद की है केवल उन्हीं में आंशिक तौर पर किसानों को आमदनी होने का अनुमान तब लगाया जा सकता है जबकि पूरी की पूरी फसल समर्थन मूल्य पर खरीद ली गई है परन्तु हकीकत यह है कि किसानों की फसल का ज्यादा से ज्यादा 20 प्रतिशत हिस्सा ही समर्थन मूल्यों पर खरीदा जाता है और शेष बाजार के भावों पर बिकता है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों की फसल का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा समर्थन मूल्य पर खरीदा जाए। जहां तक नकद फसलों जैसे फल-सब्जी आदि का सवाल है तो परिवहन की सुविधाओं में अवरोध होने की वजह से उनकी बर्बादी भी अच्छी- खासी तादाद में हुई होगी। अतः कृषि उत्पादन में वृद्धि होने के बावजूद किसानों की आय में वृद्धि संभव नहीं हुई। यह सब कोरोना के दुष्प्रभाव व लाॅकडाऊन से लकवा मारे आर्थिक हालात की वजह से ही हुआ है। इसमें किसी प्रकार से कोई दो राय नहीं हो सकती। अतः इस स्थिति से उबरने के उपाय अब युद्ध स्तर पर करने होंगे और बाजार में नकद रोकड़ा की उपलब्धता सुलभ कराने के लिए लीक से हट कर उपाय खोजने होंगे। हमारा मानना है कि यदि वित्तीय घाटे से ऊपर उठकर सरकार जोखिम उठाकर सक्रिय हो जाए और बाजार में पर्याप्त धन का प्रवाह हो तो काम-धंधे जमने लगेंगे और सचमुच खरीदो-फरोख्त तेज हो जाएगी।
ऐसा करने से अर्थव्यवस्था का पहिया पुनः घूमने लगेगा और माल की मांग में इजाफा होने से उत्पादन गतिविधियां भी बढ़ेंगी, परन्तु सरकार ने वैकल्पिक मार्ग चुना जो कि 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज के तौर पर सामने आया। इसमें सर्वाधिक जोर उद्योगों को ऋण देने पर दिया गया। यह उपाय कारगर हो सकता था यदि भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना काल के पहले से उठान की तरफ होती मगर वर्ष 2019 में इसकी सकल विकास वृद्धि दर घट कर केवल 4.2 प्रतिशत ही रह गई थी जो कि पिछले वर्ष की पांच प्रतिशत से कुछ अधिक के मुकाबले कम थी और उससे पूर्व के वर्ष में यह छह प्रतिशत के लगभग थी जो कि वर्ष 2016 की आठ प्रतिशत से बहुत कम थी। अतः कोरोना काल से पहले से ही भारत की अर्थव्यवस्था गिरावट की तरफ थी। अतः कोरोना काल में और अधिक ऋण लेने से मध्यम व छोटे उद्यमियों का परहेज करना तार्किक था। इसलिए बहुत जरूरी है कि अब कोरोना काल के हालात की रोशनी में नये कारगर कदम उठाने के बारे में नये सिरे से विचार किया जाए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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