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नासिक से मुम्बई तक किसान!

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जिस देश में किसानों को उनकी मेहनत का उचित मेहनताना नहीं मिलता और उनकी आर्थिक हालत लगातार खस्ता रहती है उस देश का न तो विकास आगे बढ़ सकता है और न ही समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत हो सकती है, क्योंकि इन दोनों का ही सम्बन्ध स्वतन्त्रता व आत्मनिर्भरता होने के साथ-साथ ही विश्व मंच पर राष्ट्रीय साख से भी होता है। यह मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि भारत के महान समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था। डा. लोहिया का कहना था कि किसान केवल देश के लोगों को अनाज की आपूर्ति ही नहीं करता है बल्कि वह सीमाओं पर राष्ट्र की सुरक्षा भी अपनी नई जवान पीढि़यों की मार्फत करता है।

भारतीय सेनाओं में सबसे ज्यादा भर्ती किसानों के बेटे ही होते हैं। डा. लोहिया यह भी कहा करते थे कि जब किसान मजबूत होगा तो राष्ट्रीय सीमाओं पर रक्षा करती हमारी सेनाएं और मजबूत होंगी, क्योंकि सेना का जवान अपने परिवार की हालत की तरफ से बेफिक्र होगा। अतः सोचा जा सकता है कि 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान स्व. लाल बहादुर शास्त्री द्वारा दिये गये नारे ‘जय जवान-जय किसान’ के उद्घोष का क्या वजन था। मगर कुछ लोग इसे शास्त्री जी की उस अपील से जोड़ने की गलती कर बैठते हैं जो उन्होंने उस युद्ध के दौरान नागरिकों से एक वक्त का भोजन न करने की थी, तब अमेरिका ने हमें ‘पीएल-480’ के तहत दी जाने वाली खाद्यान्न मदद बन्द कर दी थी और देश में अन्न का संकट मंडराने लगा था। राशन की दुकानों पर लम्बी-लम्बी लाइनें लगती थीं और लोग बामुश्किल भरपेट भोजन पकाने के लिए गेहूं या चावल लेकर आते थे।

मगर इस स्थिति को हमारे ही देश के किसानों ने बदलकर रख दिया और स्व. इन्दिरा गांधी के शासन के समय हरित क्रान्ति करके पूरे देश को अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर कर दिया। खेती में लगातार उन्नत तकनीकों के इस्तेमाल से और इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश के लगातार बढ़ने की वजह से इस देश के किसान आज 130 करोड़ की आबादी का पेट भरने के लिए पर्याप्त अनाज का उत्पादन करते हैं। इसका स्वाभाविक परिणाम तो यह होता कि किसानों की आर्थिक हालत में सुधार आना चाहिए था और उनकी क्रय क्षमता में गुणात्मक वृ​िद्ध होनी चाहिए थी मगर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में उनकी स्थिति उल्टी होती गई और वे कर्ज के बोझ से दबने लगे। उन पर बैंकों के ऋणों का भार इस कदर तबाही मचाने लगा कि वे आत्महत्या तक करने लगे।

आखिरकार यह स्थिति कैसे बनी? आजकल भारत के ही एक प्रमुख राज्य महाराष्ट्र में लाखों किसान सड़कों पर उतरे हुए हैं। वे मांग कर रहे हैं कि उनके कर्जे माफ किये जायें, क्योंकि विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक व मनुष्यजनित आपदाओं की वजह से उनकी खेती की पैदावार चौपट हो गई है और वे बैंकों के कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। उनके कर्जे माफ किये जाएं, मगर राज्य की फड़नवीस सरकार इन किसानों को लारे-लप्पे में रखना चाहती है।

इस राज्य में सवा करोड़ के लगभग छोटे किसान हैं और पिछले साल केवल 35 लाख किसानों के आंशिक कर्जे माफ करने के लिए सरकार ने 35 हजार करोड़ रुपए की राशि दी। इसके बाद से अब तक एक साल के भीतर ही पौने दो हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ये मांग कर रहे हैं कि इनकी ऊपज का मूल्य लागत से ड्येढी कीमत के आधार पर तय हो और उस स्वामी नाथन आयोग की रिपोर्ट के फार्मूले पर तय हो जिसमें खेतीहर जमीन की कीमत का भी आकलन में लिया गया है।

गजब यह है कि पिछली 6 मार्च को इन किसानों ने नासिक शहर से अपना मार्च शुरू किया है जो 12 मार्च को मुम्बई पहुंचेगा और वहां विधानसभा का घेराव करेगा। इस दो सौ किमी. के मार्ग में जो भी गांव या शहर पड़ रहे हैं वहां के किसान भी इसमें शामिल होते जा रहे हैं। जाहिर है कि ये किसान किसी राजनीतिक रैली में हिस्सा लेने नहीं जा रहे हैं, बल्कि अपनी फरियाद सरकार को सुनाने जा रहे हैं।

इन किसानों की आवाज से महाराष्ट्र की धरती में हलचल पैदा हो रही है मगर फड़नवीस सरकार शिवाजी महाराज के स्मारक पर हजारों करोड़ रुपए खर्च करने की डींगें हांक रही है। शिवाजी महाराज को भी अपने अभियान में महाराष्ट्र के किसानों ने ही आर्थिक व सामाजिक योगदान दिया था तभी वह छत्रपति कहलाये थे, लेकिन हम जिस विकास के रास्ते पर आगे चलना चाहते हैं उसे भी बिना किसानों के योगदान के किसी सूरत में प्राप्त नहीं कर सकते।

सरकार जो बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षी योजनाएं चलाना चाहती है वे किसानों की जमीन के अधिग्रहण किये बिना पूरी नहीं हो सकती। चाहे वह राजमार्ग परियोजना हो या नदियों को जोड़ने की परियोजना अथवा कोई अन्य रेल परियोजना हो। किसानों की कीमत पर अगर हम विकास की चिकनी इमारत खड़ी करते हैं तो उसकी बुनियाद किसी भी तरह मजबूत नहीं हो सकती, क्योंकि अन्ततः किसान की जमीन में उगा पौधा ही फसल बनकर समूची अर्थव्यवस्था के विस्तार का रास्ता तैयार करता है।

अतः उसकी जमीन की मुआवजा राशि का मूल्यांकन हमें भी भविष्यगत प्रभावों को देखते हुए करना होगा और नदियों को जोड़ने जैसी परियोजनाओं को शुरू करने से पहले ही समूचे क्षेत्रों की जलवायु व जैविक तथा आदिवासी व वन्य सामाजिक परिस्थितियों के संरक्षण की गारंटी करनी होगी। हम अंधेरे में छलांग लगाकर एक वर्ग को पानी देने के लिए दूसरे वर्ग को प्यासा नहीं मार सकते हैं। मगर किसानों पर जुल्म ढहाने की क्या नई सितमगिरी तमिलनाडु में हुई है कि इस राज्य की एक महिला भाजपा नेता ने अपनी मांगों के लिए आवाज उठा रहे एक किसान को ही चपत मार दिया। तमिलनाडु के किसान पिछले वर्ष किस तरह आठ महीनों तक राजधानी दिल्ली में अपनी जायज मांगों के लिए जन्तर- मन्तर पर प्रदर्शन कर रहे थे, यह सभी देशवासियों ने देखा है।

अगर उनमें से किसी एक को तमिलनाडु में ही चपत मारा जाता है तो यह देश के पूरे किसान समूह पर मारे गये तमाचे से कम नहीं है। यदि हम किसान का सम्मान नहीं कर सकते तो कम से कम उसका अपमान भी तो न करें। गला फाड़-फाड़ कर यह कहने में हमें शर्म तो न आये कि भारत एक कृषि प्रधान देश हैं ! क्या विकास की गतिविधियां इस कविता की पंक्तियों में फेरबदल कर सकती हैं कि मेरा भारत देश कि जिसकी माटी स्वर्ग समान है भूखा-नंगा देश कि जिसके कण-कण में भगवान है।

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