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किसानों का भारत बन्द

स्वतन्त्र भारत में किसान आन्दोलनों का इतिहास बहुत बड़ा नहीं रहा है अलबत्ता ‘भारत बन्द’। बन्द का इतिहास बहुत लम्बा है।

स्वतन्त्र भारत में किसान आन्दोलनों का इतिहास बहुत बड़ा नहीं रहा है अलबत्ता ‘भारत बन्द’। बन्द का इतिहास बहुत लम्बा है। उत्तर भारत में कृषि क्षेत्र व ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं को लेकर भारत बन्द करने का आह्वान करने वाले अभी तक के सबसे बड़े नेता माननीय शरद यादव रहे हैं परन्तु आज बिना किसी बड़े नेता की शिरकत के किसानों ने जिस भारत बन्द का आह्वान किया था उसका असर देश के 25 राज्यों में होने से यह चिन्ता होनी स्वाभाविक है कि राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के साथ भारत के आम लोगों की सद्भावना जुड़ चुकी है।
इसका संज्ञान केन्द्र की मोदी सरकार ने तुरन्त लिया है और गृह मन्त्री श्री अमित शाह ने किसान प्रतिनिधियों से वार्ता करने का फैसला आज ही करके साफ कर दिया है कि नये तीन कृषि कानूनों पर सरकार का रुख लचीला हो सकता है।
इसके साथ ही बुधवार को देश के 24 राजनीतिक दलों का एक प्रतिनिधि​मंडल राष्ट्रपति से भी भेंट कर रहा है जो उन्हें किसानों की मांगों के बारे में सचेत करेगा। आन्दोलन और सरकारी नीतियों से असहमति लोकतन्त्र का अभिन्न अंग होता है मगर इस व्यवस्था में सत्ता पर काबिज सरकारें संवेदनशीलता के साथ इस प्रकार कार्य करती हैं कि  असहमति के बिन्दुओं को हटा कर व्यापक सहमति बना कर राष्ट्र निर्माण में सभी वर्गों और पक्षों का सहयोग लिया जाये।
देश के विकास में किसानों की महत्वपूर्ण भूमिका है।  इस भूमिका को समझ कर ही संभवतः गृह मन्त्री ने विवाद सुलझाने की तरफ कदम उठाया है। मैं शुरू से ही लिखता आ रहा हूं कि किसानों की समस्याओं का  किसी एक पार्टी से लेना-देना नहीं है बल्कि इसका लेना-देना भारत के आधारभूत विकास से है जिसके प्रति भारत की प्रत्येक राजनीतिक पार्टी प्रतिबद्ध है।
लोकतन्त्र में विभिन्न राजनीतिक दल आम लोगों के विकास के लिए अलग-अलग रास्ते अपनाते हैं। इसके लिए उनके सिद्धान्तों  और नजरियों में परिवर्तन हो सकता है मगर लक्ष्य में परिवर्तन नहीं होता। इस लक्ष्य को पाने के लिए ही विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारें अपने-अपने नजरिये से नीतियां बनाती हैं और उन्हें लागू करती हैं।
यदि ऐसा न होता तो आज भारत तरक्की के उस शिखर तक न पहुंचा होता जहां विज्ञान से लेकर उद्योग के क्षेत्र तक में इसने अपनी धाक बनाई है। यह तरक्की इसने भारत के लोगों के बूते पर ही प्राप्त की है क्योंकि 1947 में जब अंग्रेज इस देश को छोड़ कर गये थे तो यह ऊपर से लेकर नीचे तक कंगाली और मुफलिसी की हालत में इस तरह फंसा हुआ था कि इस देश में घरेलू सिलाई मशीन तक जर्मनी से आयात होती थी।
खेती सिर्फ बरसात पर निर्भर करती थी और सिंचाई के साधनों के नाम पर अंगुलियों पर गिने जाने वाली नहरें थीं मगर आज भारत में सिंचाई के प्रचुर साधन विकसित कर दिये गए हैं और किसानों की उपज का  उचित मूल्य देने का प्रभावी तन्त्र विकसित कर दिया गया है जिससे यह देश अनाज निर्यात करने वाला देश बन चुका है। भारत के किसानों विशेष कर पंजाब के ऊर्जावान व उद्यमी किसानों को पूर्वी यूरोप के हंगरी व चेकोस्लोवाकिया जैसे देश अपने देश में खेती करने के लिए आमन्त्रित करते हैं।
अतः यह कहना उचित नहीं होगा कि भारत ने पिछले 73 वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र के ढांचे में कोई विकास नहीं किया है अथवा किसानों की समस्याओं को निपटाने का प्रयास नहीं किया है।  मंडी समिति कानून (एपीएमसी एक्ट) मूलतः केन्द्र की भाजपा नीत वाजपेयी सरकार का ही बनाया गया कानून है जिसे 2003 में तैयार किया गया था  और तब देश के कृषि मन्त्री पद पर बिहार के वर्तमान मुख्यमन्त्री माननीय नीतीश कुमार विराजमान थे।
नीतीश बाबू के समय में कृषि क्षेत्र की समस्या पैदावार अधिक होनी थी, उस समय खाद्य व संभरण मंत्री के पद पर माननीय शरद यादव थे। ये दोनों नेता ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। अतः 2003 में जो मंडी समिति कानून बना वह किसानों की मूल समस्याओं को ध्यान में रख कर इसलिए बनाया गया था क्योंकि उस समय  पैदावार अधिक होने की वजह से अन्न भंडारण की समस्या पैदा हो गई थी जिसकी वजह से किसानों को उनकी फसल का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा था। हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति जारी थी, परन्तु तब किसानों में भी यह विश्वास था कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य काे किसी भी रूप में असंगत नहीं बनाना चाहती है।
आज की समस्या यह है कि नये कृषि कानूनों के आने से किसानों में यह शंका पैदा हो गई है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली से छुटकारा पाना चाहती है। इसी समस्या का समाधान निकालने की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। सरकार और कृषि क्षेत्र का सम्बन्ध  ‘पिता- पुत्र’ जैसा स्वतन्त्रता के बाद से चला आ रहा है। इसमें दरार की आशंका पैदा होने से ही इतना विशाल आन्दोलन खड़ा हो गया है।
यही वजह है कि आन्दोलन के असर को देखते हुए विपक्ष में बैठे हुए कुछ ऐसे दलों ने अपने रुख में अचानक परिवर्तन कर लिया है जिन्होंने संसद में नये तीन विधेयकों का समर्थन किया था। इनमें तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, आन्ध्र की वाई.एस.आर. कांग्रेस और शिवसेना शामिल हैं।
राज्यसभा में वाई.एस.आर. कांग्रेस के सदस्य वी. साईंरेड्डी ने तो नये कानूनों को किसानों के हक में बताते हुए अन्य विपक्षी दलों के लिए बहुत भद्दी भाषा तक का इस्तेमाल किया था। तेलंगाना समिति ने समर्थन दिया था और शिवसेना अनुपस्थित हो गई थी। अतः हमें इस बहाने अवसरवादियों की पहचान भी कर लेनी चाहिए। कुल मिला कर किसानों और सरकार को नये कानूनों के बारे में सहमति के बिन्दुओं की तलाश करनी चाहिए जिससे अन्नदाता पूरे देश की अन्न सुरक्षा पूरी मुस्तैदी के साथ कर सकें।

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