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किसान कर्ज माफी : अन्तहीन सिलसिला

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पंजाब में किसानों के कर्जे माफ करने को लेकर पिछले तीन माह से जमकर सियासत हो रही थी। उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा कर्ज माफी के ऐलान के बाद कई राज्यों से किसान ऋण माफी की मांग उठने लगी थी। दबाव में आकर महाराष्ट्र की फडऩवीस सरकार को भी कर्ज माफी की घोषणा करनी पड़ी। अब पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह ने सत्ता सम्भालने के बाद थोड़ा वक्त जरूर लिया लेकिन किसानों का दो लाख तक का कर्ज माफ कर उन्होंने बड़ा सियासी शॉट मारा है। कैप्टन ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से न केवल दोगुना कर्ज माफ किया है अपितु कर्ज माफी को मुद्दा बनाकर कांग्रेस सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे विपक्षी दलों को करारा जवाब भी दे दिया है। विपक्ष भले ही इसे कैप्टन की नौटंकी करार दे कि उन्होंने सदन में 5 एकड़ तक भूमि वाले किसानों का पूरा कर्ज माफी का ऐलान किया था लेकिन कर्ज सिर्फ 2 लाख रुपए का ही माफ किया।

कैप्टन अमरिन्द्र सरकार ने कांग्रेस का चुनावी वादा पूरा कर दिया है क्योंकि कैप्टन साहब ने तो चुनाव प्रचार के दौरान ही किसानों से ऋण माफी के फार्म ले लिए थे। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब के बाद अब हरियाणा, राजस्थान और अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर दबाव बढ़ गया है। हरियाणा के 15 लाख किसानों में से साढ़े 13 लाख किसान लगभग 54 हजार करोड़ के ऋण के बोझ तले दबे हुए हैं। हरियाणा के विपक्षी दल अब किसानों के कर्ज माफ करने के लिए दबाव बढ़ाएंगे। सवाल सबके सामने है कि यह कर्ज माफी का सिलसिला कब जाकर रुकेगा। उत्तर प्रदेश में किसानों की कर्ज माफी के लिए योगी सरकार केन्द्र सरकार से 16 हजार करोड़ का कर्ज लेगी जबकि 20 हजार करोड़ अलग-अलग विभागों का बजट काट कर इक किया जाएगा। योगी सरकार को कुल 36 हजार करोड़ की जरूरत है। महाराष्ट्र सरकार को किसानों की कर्ज माफी की मांग के आगे झुकना पड़ा। छोटे एवं सीमांत किसानों की ऋण माफी के चलते महाराष्ट्र पर 30 हजार करोड़ का अतिरिक्त बोझ सरकारी खजाने पर पड़ेगा। उसकी भरपाई कैसे होगी इस बारे में फिलहाल कुछ स्पष्ट नहीं है। कर्ज माफी की घोषणाएं किसानों को फौरी राहत देने वाली हैं, राजनीतिक तौर पर भी ऐेसी घोषणाएं लाभकारी हैं लेकिन यह वह रास्ता नहीं है जिस पर चलकर किसानों के संकट का सही तरह से समाधान किया जा सकता है।

अब मुसीबत उन राज्यों के लिए आ खड़ी हुई है जहां चुनाव होने वाले हैं। समस्या यह भी है कि किसानों के कर्ज माफी का मुद्दा अब सियासी दलों को सत्ता तक पहुंचने का ‘शार्टकट’रास्ते के तौर पर दिखने लगा है। इसकी शुरूआत भी तो राजनीतिक दलों ने ही की है। चुनाव से पहले राजनीतिक दल लोक लुभावने वायदे करते हैं। इन्हीं वायदों के चलते आग में घी डलता रहा और जब आग भड़कती है तब भी सियासत होती है। स्थिति ऐसी हो गई है कि जो किसान कर्ज अदायगी में सक्षम होते हैं वह भी कर्ज अदा नहीं करते। वह इस उम्मीद में रहते हैं कि अगले चुनाव में राजनीतिक दल कर्ज माफ करने का वायदा करेंगे ही। अब कर्नाटक में चुनाव होने वाले हैं। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया कर्ज माफी के मुद्दे पर गेंद केन्द्र के पाले में डाल रहे हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंकों का ऋण तो केन्द्र ही माफ कर सकता है। गुजरात में इसी साल के अंत तक चुनाव होने वाले हैं। गुजरात में कांग्रेस वादा कर रही है कि राज्य में कांग्रेस की सरकार के सत्ता में आते ही किसानों के कर्ज माफ कर दिए जाएंगे। बैंक आफ अमेरिका की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 के आम चुनावों से पहले राज्य सरकारें 2 लाख 56 हजार करोड़ के किसानों के कर्जे माफ करने को मजबूर होंगी। उधर तमिलनाडु के किसान भी ऋण माफी के मुद्दे पर शक्ति प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं।

ऋण माफी का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो पहले से ही संकटग्रस्त बैंकिंग व्यवस्था और अधिक मुश्किलों में घिर जाएगी और अर्थव्यवस्था के सामने नई चुनौतियां खड़ी हो जाएंगी। किसानों की कर्ज माफी का बोझ अंतत: जनता को ही सहना पड़ेगा। राज्यों को बोझ सहने के लिए अपने स्रोतों से धन जुटाना होगा। अगर केन्द्र और राज्य सरकारों ने मिलकर देश में एक समान और समन्वित नीति नहीं बनाई तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे। जरूरत है किसानों को अपनी उपज का वाजिब दाम मिले, उन्हें फायदा हो। सूखे में भी किसान मरता है और फसल ज्यादा हो जाए तो भी किसान मरता है। जरूरत है एक देशव्यापी नीति की। इस समय तो राजनीति की गजब स्थिति है। सत्ता पक्ष और विपक्ष की भूमिका राष्ट्रहित में होनी चाहिए। वर्तमान में मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर बेहतरीन काम कर रही है लेकिन अन्नदाता की समस्याओं का अंत तो होना ही चाहिए।

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