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किसानों का दर्द और संसद

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संसद में किसानों का मुद्दा गर्मा रहा है और ग्रामीण क्षेत्र में व्याप्त व्याकुलता को विरोधी पक्ष वर्तमान मोदी सरकार के खिलाफ एक राजनैतिक अस्त्र के रूप में प्रयोग करने पर आमादा दिखाई पड़ता है। जाहिर तौर पर भारत आज भी कृषि प्रधान देश है और देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी आज भी गांवों में ही निवास करती है अत: उससे जुड़े मुद्दे संसद में उठने ही चाहिएं और इनका स्थायी हल भी ढूंढा जाना चाहिए मगर यह भी छोटा विरोधाभास नहीं है कि जब लोकसभा रात के साढ़े दस बजे तक किसानों के बारे में चर्चा करती है तो सदन में सदस्यों की संख्या अंगुली पर गिनने लायक रह जाती है। इसकी क्या वजह हो सकती है। मेरी राय में इसकी एक ही वजह है कि संसद सदस्यों को किसानों के असली मुद्दों के बारे में अधिक ज्ञान नहीं है। वे जबानी जमा खर्च पर ज्यादा यकीन करते हैं और सोचते हैं कि इतने भर से किसानों का भला हो जायेगा।

जब चौधरी चरण सिंह इस देश के प्रधानमन्त्री बने और 15 अगस्त 1979 को उन्होंने लालकिले से झंडा फहराया तो अपने वक्तव्य में उन्होंने इस्राइल की गाय का उदाहरण देते हुए कहा था कि क्या वजह है कि वहां की गाय चालीस किलो दूध देती है और भारत की केवल चार किलो? उनके इस कथन का मजाक उड़ाया गया था और कहा गया था कि चौधरी को रात में भी गांव ही नजर आता है मगर यह एक ऐसे किसान की तड़प थी जो देश के प्रधानमन्त्री के औहदे तक पहुंचा था। मन्तव्य साफ था कि जब तक गांव के आदमी की आमदनी में इजाफा नहीं होगा भारत अमीर मुल्क नहीं बन सकता मगर उस वक्तव्य के 38 साल गुजर जाने के बावजूद हम जहां थे वहीं खड़े हुए हैं। फर्क सिर्फ यह आया है कि गौरक्षा के नाम पर हम उन किसानों को ही निशाना बनाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं जिनकी रोजी-रोटी पशुपालन पर ही निर्भर करती है। पशु भारत के किसानों और ग्रामीण लोगों का मददगार नकदी खजाना होता है जिसे पशुधन कहा जाता है। इसके साथ ही वह उसकी जमानत भी होता है, इस जमानत को न हिन्दू खोना चाहता है और न मुसलमान। जो लोग कृषि क्षेत्र के जानकार हैं उन्हें इसकी हकीकत अच्छी तरह मालूम है, मगर हम अन्धेरे में लाठी चला कर कृषि क्षेत्र की स्थिति में सुधार लाना चाहते हैं और किसानों को बाजार की उस क्रूरता के सहारे छोडऩा चाहते हैं जो मांग व सप्लाई के सिद्धान्त से चलता है।

भारत की जन कल्याणकारी कही जाने वाली सरकार की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यही बनती है क्योंकि उसे बाजार के सिद्धान्त के विरुद्ध किसानों की फसल के दामों को लाभकारी बनाये रखना है जिससे साठ प्रतिशत आबादी के खुशहाल होने का मार्ग लगातार प्रशस्त होता रहे। गांधीवाद ने इसका सरल उपाय बताया कि देशभर में कुटीर व लघु उद्योगों को पनपाया जाये जिससे कृषि क्षेत्र से अधिकाधिक आबादी दूसरे कार्यों में स्वाभाविक तौर पर परिवर्तित होती रहे। इस राह पर चलने का भारत में प्रयास न हुआ हो ऐसा नहीं है। हमने भारत की आबादी के बहुसंख्य हिस्से को कृषि क्षेत्र से बाहर करने में सफलता प्राप्त की। आजादी के समय कुल 36 करोड़ की आबादी का 95 प्रतिशत हिस्सा कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर था और भारत की कुल राजस्व आय केवल 259 करोड़ थी (1947-48 का कुल बजट) मगर आज आबादी 125 करोड़ से अधिक है और इसका 60 प्रतिशत हिस्सा ही गांवों में रहता है। आज इसकी राजस्व आय 15 लाख करोड़ रुपए से अधिक की है। अत: स्पष्ट है कि भारत ने पिछले 70 सालों में तरक्की के नये रास्ते खोजे हैं मगर यह भी सत्य है कि 1991 से उदार या बाजार मूलक अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद कृषि क्षेत्र का विकास रुक गया है और इसमें सार्वजनिक निवेश लगातार कम होता चला गया है। एक जमाना था जब नेहरू व इंदिरा काल में भारतीय जनसंघ मांग किया करता था कि कृषि को उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए मगर भाजपा अवतार में आने के बाद इसने अपने सिद्धान्तों में सुधार किया और यह मांग छोड़ दी।

इसकी वजह यही थी कि कृषि क्षेत्र का आधारभूत ढांचा वैसा नहीं बनाया जा सकता था जैसा कि सरकार उद्योगों को लेकर तैयार करके देती है। इसके इस ढांचे के लिए सरकारी निवेश की सख्त जरूरत थी जिसे सरकार ने कृषि सब्सिडी के रूप में शुरू किया और मुख्य फसलों के लिए न्यूनतम मूल्य प्रणाली की शुरूआत की मगर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में इसकी कदमताल सही नहीं रह सकी क्योंकि कृषि के उपयोग में आने वाले सभी उत्पादों के मूल्य इस नई व्यवस्था से जुड़ गये और रुपये की घरेलू कीमत को लगातार कम करते रहे अर्थात महंगाई बढ़ती रही और सरकार पर गरीबी की सीमा से नीचे रहने वाले लोगों के भरण-पोषण का दवाब भी बढ़ता गया, जिसका सीधा सम्बन्ध कृषि उत्पादों से था मगर जब खाद्य सुरक्षा का कानून पिछली मनमोहन सरकार के दौरान बना तो साफ हो गया कि सरकार गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी उनकी क्रय क्षमता के दायरे में लेती है और किसानों की फसलों को न्यूनतम मूल्य पर खरीदने की गारंटी देती है मगर यह व्यवस्था भी सफल नहीं हुई क्योंकि बाजार की शक्तियों ने मांग व सप्लाई की आड़ में सरकारी खरीद तन्त्र की धज्जियां उड़ा कर रख दीं। इसी वजह से स्वामीनाथन आयोग का यह फार्मूला बहुत ज्यादा चर्चित रहा कि फसल की लागत का आधे से ज्यादा किसान को दिया जाये। लागत मूल्य का एक फार्मूला बनाकर उसे न्यूनतम मूल्य प्रणाली के स्थान पर लागू कर दिया जाये।

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