राजधानी दिल्ली में प्रदूषण को लेकर जिस तरह धरती–आसमान एक करते हुए किसानों के माथे पर इसका दोष मढ़ने के प्रयास हो रहे हैं, उसे किसी भी रूप में तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता परन्तु सबसे दुखद यह है कि प्रदूषण जैसे मुद्दे को भी राजनीतिक रंग दे दिया गया है और इसी पर वोटों की सियासत की चौसर बिछाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। दिल्ली किसी एक राजनीतिक पार्टी की नहीं है बल्कि यह देश की हर छोटी से लेकर बड़ी पार्टी का प्रदर्शन स्थल है। स्वयं में संसद भवन से लेकर राष्ट्रपति भवन और सर्वोच्च न्यायालय से लेकर चुनाव आयोग समेत विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के मुख्यालयों में काम करने वाले लोग इसकी आबोहवा में जीते हैं।
जाहिर है कि इसकी आबोहवा की बेहतरी कहीं न कहीं भारतीय लोकतन्त्र की देखभाल करने वाले लोगों की सेहत से भी जुड़ी हुई है। अतः प्रत्येक राजनीतिक दल का यह स्वाभाविक कर्त्तव्य बनता है कि वे इसके आकाश में बढ़ते वायु प्रदूषण को अपनी सियासती कड़वी जुबान से और अधिक तेजाबी न बनायें और इसकी वजह की जड़ में पहुंचने के रास्ते पर पहुंचे। पूरे भारत में किसान ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो धरती का भगवान कहे जाने और अन्नदाता समझे जाने के बावजूद ‘लावारिसों’ की तरह हर काम के लिए भीख मांगता नजर आता है। वह अपनी जमीन का मालिक होने के बावजूद उस पर उगाई गई फसल के दामों को तय नहीं कर सकता।
यह विडम्बना ही है कि उसी की खेती की जमीनों का अधिग्रहण कर-करके बड़े शहर आबाद किये जाते हैं और इनके आबाद हो जाने के बाद उसे ही असभ्य कह कर दुत्कार दिया जाता है। राजधानी दिल्ली के विस्तार की गाथा इसके बीच बसे हुए गांव ही बिन कहे सुनाते रहते हैं। दरअसल स्वतन्त्र भारत के विकास के लिए हमने जिन नक्शे कदम पर चलना शुरू किया उसके तहत बड़े-बड़ेे शहर पूंजी केन्द्र होते चले गये और रोजगार के स्रोत भी ये शहर ही बने। शहराें में सत् और धन का केन्द्रीकरण होने की वजह से इनका बेतरतीब विकास स्वाभाविक रूप से इस प्रकार हुआ कि यह राजनीतिक दलों के अस्तित्व और प्रभाव से जुड़ता चला गया।
अतः जब समाजावदी चिन्तक व नेता स्व. डाॅ. राम मनोहर लोहिया ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण का मुद्दा उठाया था तो उसके पीछे यही सोच थी कि भविष्य में बड़े–बड़े शहरों को ‘नरझुंडों’ के जंगल में तब्दील होने से रोका जाये। औद्योगीकरण का विस्तार सुदूर देशी स्थलों की ओर मोड़ा जाये। इस तरफ काम भी हुआ और सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े-बड़े कारखाने सुदूर स्थलों पर लगाये गये परन्तु त्वरित लाभ पाने की लालसा को राजनैतिक दल रोक नहीं पाये और हर प्रमुख पार्टी ने सत्ता में बैठते ही बड़े-बड़े शहरों को पूंजीगत व व्यावसायिक औऱ वाणिज्यिक गतिविधियों का केन्द्र बनाने में किसी प्रकार की हिचक नहीं दिखाई।
इसका सबसे बड़ा विद्रूप उदाहरण दिल्ली, मुम्बई और बेंगुलुरु जैसे शहर हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि विकास का पैमाना जहां इन शहरों में बहुत तेजी के साथ जिस प्रकार बदला उसके साथ इन्हीं के बहुत करीब के क्षेत्र कदमताल नहीं कर सके। अतः हरियाणा व पंजाब में किसानों द्वारा अपने खेतों की पराली जलाने को दिल्ली में प्रदूषण का स्रोत माना जा रहा है वह कृषि क्षेत्र के लोगों के लिए सामान्य प्रक्रिया है और अगली फसल बुवाई की तैयारी है। संभवतः पाठकों को आश्चर्य होगा कि हरियाणा व पंजाब के किसान जिस पराली को अपने खेतों में जलाते हैं उसी पराली का उपयोग उत्तर प्रदेश के किसान सर्दियों का मौसम आने पर विभिन्न कार्यों में करते हैं।
पराली जाड़ों के मौसम में प्राकृतिक रूप से जमीन में बिछा कर सर्दी दूर करने का साधन भी होती है जो विशेष रूप से गांवों में प्रयोग होती है, मगर उत्तर प्रदेश के कस्बों में भी सार्वजनिक स्थलों पर यह गर्म दरी का काम करती है किन्तु पंजाब व हरियाणा के किसान अपेक्षाकृत सम्पन्न होने की वजह से इसे केवल जानवरों के दड़बों में ही प्रयोग करते हैं और बाकी जला देते हैं। जलाते उत्तर प्रदेश में भी हैं मगर केवल वही पराली जो जरूरत से ज्यादा हो। पंजाब के किसानों की सम्पन्नता और उनके रहन-सहन में आधुनिकता का पुट ही पराली को जलाने के लिए प्रेरित करता है लेकिन इसके साथ यह भी हकीकत है कि अप्रैल माह में रबी की फसल की कटाई के बाद भी खेतों में बची पराली की जड़ों को जला दिया जाता है, उस समय किसी वायु प्रदूषण की शिकायत नहीं आती।
खरीफ की फसल के बाद सर्दियां शुरू होने पर ही यह शिकायत क्यों आती है? एक तो इसका कारण सर्दियां शुरू होने पर मौसम का मिजाज होता है। वायुमंडल में हवा की गति मन्द रहती है और दूसरे चावल की फसल की कटाई में पहले के मुकाबले थोड़ी देरी होनी है। देखने वाली बात यह भी होनी चाहिए कि अधिक उपज के लिए किसान चावल की कौन सी किस्म उगा रहे हैं। पहले अक्टूबर महीने में कटाई का काम पूरा हो जाता था परन्तु पिछले कुछ वर्षों से यह कार्य नवम्बर के आिखर तक खिंच जाता है।
मुद्दा यह भी है कि क्या मौसम में बदलाव( ग्लोबल वार्मिंग) की वजह से यह परिवर्तन आया है.. आखिरकार किसान अपनी जमीन पर ही तो अपनी मेहनत से ही पैदा की गई पराली को जलाता है लेकिन दिल्ली के ढंग निराले हैं। यहां खेती–किसानी की बात करना पिछड़ेपन की निशानी है और बसों में सफर करते हुए ‘आशिकी’ दिखाना प्रगति की कहानी है। आखिरकार कविवर भवानी प्रशाद मिश्र ने नाहक ही तो यह कविता नहीं लिखी थी :-
मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांव चलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि चीर कर धरती धान उगाता हूं
मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूं
आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर
आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर