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किसान एक बार घर जायें?

दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलनरत किसानों के डेरों में आज जो हिंसक झड़पें हुई हैं उनका लोकतन्त्र में किसी भी सूरत में समर्थन नहीं किया जा सकता।

दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलनरत किसानों के डेरों में आज जो हिंसक झड़पें हुई हैं उनका लोकतन्त्र में किसी भी सूरत में समर्थन नहीं किया जा सकता।  किसानों को अब यह स्वयं विचार करना है कि उनका अगला कदम क्या हो जिससे गणतन्त्र दिवस की अशोभनीय घटना के बाद उनके आंदोलन के प्रति आम जनता की अवधारणा में जो अंतर आया है उसमें संशोधन हो सके। किसी भी भारतवासी को, यहां तक कि किसानों को भी,  यह स्वीकार्य नहीं हो सकता कि आन्दोलन के नाम पर ‘भारतीय राष्ट्र-राज्य’ की शक्ति और गौरव के प्रतीक ‘लाल किले’ पर तिरंगे के समानान्तर कोई धार्मिक ध्वज लहरा दिया जाये, परन्तु इसके साथ यह भी किसी सच्चे नागरिक को स्वीकार नहीं हो सकता कि किसानों के आन्दोलन स्थल पर कुछ लोग हथियारों से लैस होकर खुद को स्थानीय लोगों का समूह बता कर उन पर पत्थरबाजी और हमला करें। बेशक पिछले 65 दिनों से राजधानी की सीमाओं पर सड़कों पर डेरा डाले किसानों के जमावड़े से दिल्ली के स्थानीय नागरिकों को दिक्कतें हो रही हैं मगर इसका मतलब यह नहीं है कि कुछ लोग आंदोलन विरोध के नाम पर कानून को ही अपने हाथ में ले लें।  ‘सिन्घू बार्डर’ पर आज जिस प्रकार किसानों और स्थानीय लोगों में हिंसक झड़प हुई वह बहुत गंभीर रूप ले सकती थी अगर पुलिस समय पर कारगर कार्रवाई न करते हुए स्थिति को नियन्त्रण में न करती परन्तु इसके साथ यह भी एक मुद्दा है कि किसान विरोधी लोग पुलिस की भारी मौजूदगी के बावजूद उनके तम्बुओं तक कैसे पहुंच गये जिससे वहां जाकर उन्होंने  तोड़फोड़ की। पुलिस को बहुत ही सावधानी के साथ पूरे वातावरण को अहिंसक बनाये रखने के प्रयास वैसे ही करने चाहिएं जैसे उसने 26 जनवरी के दिन किये थे मगर मूल प्रश्न यह है कि किसान आंदोलन में हिंसा का प्रवेश होने के बाद क्या अब आन्दोलन जारी रखना उचित होगा? किसान पूरी तरह गांधीवादी रास्ता अपना कर अपनी मांगों के समर्थन में आन्दोलन कर रहे थे मगर उन्हीं के बीच के कुछ अराजक व उग्र तत्वों ने 26 जनवरी की घटना को अंजाम देकर सिद्ध कर दिया कि यह आन्दोलन नेतृत्व विहीन हो चुका है। 
बेशक किसानों को अपनी मांगों के हक में आन्दोलन करने के संवैधानिक अधिकार हंै मगर जब हिंसा किसी आन्दोलन में प्रवेश कर जाती है तो उसकी ‘विश्वसनीयता’ समाप्त होने लगती है। इस सन्दर्भ में मैं आजादी के आन्दोलन की एक घटना का उद्धरण देना जरूरी समझता हूं। 1922 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन चलाया तो गोरखपुर के ‘चौरी-चौरा’ कस्बे में पुलिस की बर्बरता से आन्दोलकारी उग्र हो गये और उन्होंने एक पुलिस स्टेशन को फूंक डाला जिसमें कई पुलिस कर्मी व कुछ नागरिक भी हताहत हुए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को जब इसकी खबर मिली तो उन्होंने आन्दोलन वापस ले लिया हालांकि देशबन्धु चितरंजन दास जैसे देशभक्त सेनानी ने इसका कड़ा विरोध किया परन्तु राष्ट्रपिता टस से मस नहीं हुए।  तर्क दिया जा सकता है कि वह अंग्रेजों का जमाना था और पुलिस भी उनकी ही थी। 
आज हमारा आजाद देश है जहां हमारी ही चुनी हुई सरकार है और पुलिस भी संविधान की कसम उठा कर अपना कर्त्तव्य पालन करती है परन्तु वास्तविकता यह है कि लोकतान्त्रिक भारत में किसी भी आंदोलन को करने की इजाजत तो है मगर शर्त एक ही है कि वह पूरी तरह अहिंसक होना चाहिए। संविधान में यह सिद्धान्त  महात्मा गांधी के उसूलों से ही लिया गया है। अतः गांधीवादी रास्ता यही कहता है कि एक बार आंदोलन को समेटने का फैसला किया जाए परन्तु ऐसा करने के लिए किसानों को भी अपमानित नहीं किया जाना चाहिए।
 उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बार्डर पर आन्दोलन कर रहे किसान नेता श्री राकेश टिकैत के साथ किये गये व्यवहार पर विश्लेषण भी करना चाहिए और सोचना चाहिए कि जिस धरने को समाप्त करने के बारे में श्री टिकैत स्वयं ही कह रहे थे वह दो घंटे बाद ही क्यों उग्र व रुआंसे हो गये और उनके समर्थन में पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान सहानुभूति जताने गाजीपुर पहुंचने लगे? यह स्वयं में कम महत्वपूर्ण नहीं है कि श्री टिकैत को समर्थन देने भारत के अभी तक के सबसे बड़े किसान नेता  पूर्व प्रधानमन्त्री स्वर्गीय चौधरी चरण सिंह के पौत्र जयन्त चौधरी भी गाजीपुर बार्डर पहुंचेे। इसका मतलब यही है कि प्रशासन ने संयम बरतने में कंजूसी की।
 26 जनवरी के बाद किसान आन्दोलन की रीढ़ इसके ही बीच के कुछ ‘अराजक’ तत्वों ने इस तरह तोड़ दी थी कि गांधीवादी विचारों को मानने वाले किसान नेता आन्दोलन को शान्त करने के उपायों पर विचार करने लगे थे जिससे उनकी विश्वसनीयता पर कोई आंच न आये मगर गाजीपुर में धरने पर बैठे किसानों को डराने व धमकाने के लिए जिस तरह कुछ लोगों ने स्थानीय नागरिकों का चोला पहन कर प्रदर्शन स्थल को कब्जाने की कोशिश की उससे परिस्थितियां विपरीत हो गईं। सोचना यह है कि तीनों कृषि कानून ठंडे बस्ते में पड़ चुके हैं। अतः आन्दोलन को खत्म करना किसी भी तरीके से गलत नहीं होगा। इसके साथ ही संसद का सत्र चालू है जिसके सदस्यों के रूप में एक से बढ़ कर एक कृषि विशेषज्ञ मौजूद हैं। अतः संसद द्वारा बनाये गये इन कानूनों की पुनर्समीक्षा यदि संसद में ही हो जाये तो देश भर के खेतों के मसीहाओं को अमन का पैगाम खुद-ब-खुद चला जायेगा और यह देश फिर से बुलन्द आवाज में बोलेगा–जय जवान-जय किसान।

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