किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में एक तथ्य समझना जरूरी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली कृषि जन्य उत्पादों के बाजार भाव को संभाले रखने की प्रणाली है न कि कोई कानूनी प्रावधान। इस प्रणाली को कारगर बनाने के लिए केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों ने ऐसा वैकल्पिक खरीद-फरोख्त रक्षात्मक ढांचा खड़ा किया जिससे किसान की उपज का मूल्य घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों से नीचे खुले बाजार में न जा सके। केन्द्र ने जहां नेफेड जैसी संस्था को खड़ा करके किसानों की मदद की वहीं राज्य सरकारों ने अपने-अपने क्रय-विक्रय संस्थान खड़े करके किसानों को लाभकारी मूल्य देने की व्यवस्था कायम की। हरियाणा राज्य में जिस प्रकार हैफेड ने काम किया है उसकी वजह से किसानों की फसलों का मूल्य खुले बाजार में नीचे जाने से रुका। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश से लेकर अन्य राज्यों में ऐसे सरकारी संस्थान हैं।
भारत में हरित क्रान्ति की 1965 में शुरुआत के बाद जिस तरह की कृषि उत्पाद मूल्य प्रणाली विकसित हुई उससे देशवासियों को दुतरफा लाभ हुआ। एक तो किसानों के लागत मूल्य को कम करने के लिए कृषि सब्सिडी विभिन्न मदों में दी गई और दूसरे उनके उत्पादन के दामों को लाभप्रद मूल्यों पर तय किया जाने लगा। यह प्रणाली 1965 में प्रधानमन्त्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री के जमाने में कृषि मूल्य आयोग गठित करने के बाद शुरू हुई। बाद में कृषि क्रान्ति का काम तूफानी तरीके से हुआ और इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की मिकदार को भरपूर तरीके से बढ़ाया गया। परिणामतः भारत अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होता गया और किसानों की खेती को लाभप्रद बनाये रखने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने का तन्त्र विकसित किया गया जो आज तक जारी है मगर इसके समानान्तर ही भारतीय खाद्य निगम और नेफेड जैसी संस्थाओं को खड़ा किया गया जिससे भारत के आम आदमी को अनाज व अन्य जरूरी वस्तुएं उचित मूल्य पर मिल सकें।
भारत सरकार अब 26 कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य घोषित करती है परन्तु वह इनमें से खरीदारी गेहूं व चावल जैसी अति आवश्यक फसलों की ही करती है जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अनाज की उपलब्धता में किसी भी राज्य में कमी न आने पाये और गरीब आदमी को उसकी भोज्य सामग्री उसकी जेब की ताकत के हिसाब से मिल सके मगर आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद कृषि सब्सिडी में लगातार कटौती होती रही और कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार घटता रहा वहीं किसानों का उत्पादन बढ़ने लगा। इससे बाजार भाव और सरकारी खरीद भाव के बीच में अन्तर कम होता चला गया और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की उपयोगिता लगातार कम होने लगी मगर सरकार ने बाजार हस्तक्षेप की अपनी नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया और नेफेड व हैफेड जैसे संस्थान अपना काम करते रहे और घाटे की तरफ बढ़ते रहे। इस समीकरण को समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र में व्यापक मुनाफा तलाश रही है। यही वजह है कि किसान समर्थन मूल्य से कम की खरीद को दंडात्मक बनाने की मांग कर रहे हैं। इसके साथ ही कृषि राज्यों का विषय है क्योंकि भारत में प्रत्येक राज्य की जलवायु अलग है और उसी के अनुसार वहां कृषि फसलें होती हैं। इसे देखते हुए ही आवश्यक वस्तु अधिनियम प्रत्येक राज्य में अपनी सार्थकता रखता है और जमाखोरी व कालाबाजारी पर लगाम लगाता है। तर्क दिया जा सकता है कि ये कानून तब कारगर थे जब देश में कृषि उत्पादन कम होता था और मांग अधिक होती थी। अब स्थिति बदल चुकी है, भारत पैदावार बहुल देश बन चुका है और इसकी समस्या अनाज भंडारण की है। अगर इसी हकीकत को पकड़ कर चलें तो न्यूनतम समर्थन मूल्य की इन परिस्थितियों में बहुत ज्यादा जरूरत है क्योंकि सप्लाई अधिक होने का प्रभाव मूल्यों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। इस तर्क को यदि बाजार वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसें तो कृषि क्षेत्र में निजी निवेश की सख्त जरूरत है जिससे किसान की उपज का मूल्य समर्थन मूल्य पर बना रहे और उसकी उपज की खरीद कृषि मूलक खाद्य प्रसंस्करित उत्पादों के लिए अधिकाधिक हो। मगर यह कार्य बिना सरकारी सहयोग और निवेश के संभव नहीं है।
बहुत पुरानी बात नहीं है जब एक दशक पहले भारत में दलहन और तिलहन का संकट गहराया था और दालों व खाद्य तेल के भाव आसमान छूने लगे थे तो इनका आयात सरल किया गया था। किसान की फसल के भावों को खुले बाजार में ठहराव देने के लिए सरकारी खरीद संस्थाओं के हस्तक्षेप की जरूरत हमेशा रहेगी क्योंकि उसका उत्पादन किसी फैक्टरी की तरह नियन्त्रित नहीं किया जा सकता है बल्कि वह मौसम व उसकी मेहनत से नियन्त्रित होता है और उसकी मिकदार इकट्ठी ही होती है। अतः सप्लाई व मांग का नियम उस पर लागू नहीं होता है।