कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित विधेयकों को लेकर सत्तारूढ़ भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी अकाली दल की प्रतिनिधि श्रीमती हरसिमरत कौर बादल ने केन्द्र सरकार से इस्तीफा दे दिया है। यद्यपि हरसिमरत कौर का इस्तीफा पंजाब की घरेलू राजनीति के दबाव का परिणाम है लेकिन केन्द्र को किसानों की आशंकाओं को तो दूर करना ही होगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन विधेयकों को किसानों का रक्षा कवच करार दिया है। कृषि क्षेत्र में परिवर्तन के लिए सरकार ने तीन अध्यादेश पहले जारी किये थे जिन्हें अब विधेयक स्वरूप में संसद में रखा जा रहा है।
लोकसभा में भाजपा अपने बूते पर ही इतने बहुमत में है कि इसे इन्हें पारित कराने के लिए किसी अन्य दल की जरूरत नहीं है परन्तु राज्यसभा में सरकार का बहुमत न होने की वजह से इस उच्च सदन में उसे दिक्कत पेश आ सकती है। एक विधेयक में खेती में ठेका प्रथा शुरू करने का प्रावधान है।
देश भर के किसान संगठन इसका विरोध कर रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि इसे वापस लिया जाये परन्तु सरकार का तर्क है कि इस प्रथा के चालू होने से किसानों की आर्थिक स्थिति में फर्क आयेगा और खुली बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में उनके उत्पादों का मूल्य भी इसी के नियमों के तहत कमोबेश तय होगा।
मोटे तौर पर इसे इस प्रकार समझा जाना चाहिए कि बड़ी कम्पनियां या पूंजीपति किसानों के साथ अनुबन्ध करके उन्हें विशिष्ट फसलें उगाने के लिए कहेंगी और उनकी उपज का मूल्य उसी समय तय कर देंगी। किसान को खेती के लिए वे आवश्यक सेवाएं जैसे बीज व तकनीकी सहायता आदि उपलब्ध कराने में मदद करेंगी।
फसल आने पर उनकी उपज तय दामों पर खरीदी जायेगी। ये कम्पनियां उपज का कितना भी भंडारण कर सकती हैं इसकी सीमा के बारे में कुछ तय नहीं होगा। इस हेतु आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन किया जा रहा है। फसल के आपदाग्रस्त हो जाने की सूरत में खरीदार कम्पनी बीमा कम्पनियों से मुआवजा वसूल करने की हकदार होगी।
इस व्यवस्था में किसान की उपज के तय होने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्यों का महत्व इस प्रकार घट जायेगा कि वही उपज सरकारी एजेंसियों के लिए खरीदने के लिए बचेगी जिसका अनुबन्धित मूल्य तय नहीं हुआ होगा। भारतीय संविधान में जनकल्याणकारी राज की स्थापना को देखते हुए इसके कई आयाम हैं जिनमें सामान्य नागरिकों की खाद्य सुरक्षा और गरीबी की सीमा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए उचित मूल्य पर आज सुलभ कराना प्रमुख है।
विपक्षी दलों का मानना है कि ठेके की खेती शुरू होने के बाद ये सभी सुरक्षाएं समाप्त हो जायेंगी और खाद्यान्न में महंगाई को रफ्तार लग जायेगी। इसके साथ ही 80 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास छोटे रकबे के खेत होने की वजह से बड़ी कम्पनियों और पूंजीपतियों के समक्ष उनकी स्थिति एक याचक से बेहतर नहीं होगी और अनुबन्ध की शर्तें तोड़ने पर उनका कोई नियन्त्रण नहीं रहेगा।
खेती में जो भी किसानों व कम्पनियों के बीच अनुबन्ध होगा उसका पलड़ा कम्पनियों की तरफ झुका रहेगा और अपनी आर्थिक शक्ति और सामाजिक-राजनीतिक रसूख के बूते पर ये कम्पनियां किसी भी विवाद की स्थिति में किसानों पर जुल्म ढहा सकेंगी। सरकार का कहना है कि ऐसा नहीं होने दिया जायेगा क्योंकि प्रत्येक खरीदार कम्पनी या पूंजीपति का पंजीकरण राज्य सरकार की निगाहों में होगा और उन पर सरकारें निगरानी रखेंगी।
संसद में लोकसभा में इस विधेयक पर जो बहस हुई उससे यह साफ हो गया कि भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में इस देश के किसानों की भूमिका ही सबसे अग्रणी रही है। वरना एक जमाना वह भी था जब साठ के दशक तक भारत को गेहूं अमेरिका व आस्ट्रेलिया से आयात करना पड़ता था।
हरित क्रांति के माध्यम से भारत के किसानों ने अपनी मेहनत से खेती की पैदावार को बढ़ा कर इस सीमा तक पहुंचा दिया कि भारत आज इस क्षेत्र में निर्यातक देश है। असल में यह समय भारत के अब तक के सबसे बड़े किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह को स्मरण करने का है और उनकी नीतियों के बारे में विचार करने का है।
उन्होंने पचास के दशक में ही सहकारी खेती का पुरजोर विरोध किया था और किसानों को अधिकाधिक सरकारी मदद दिये जाने की वकालत की थी।
वह इतने दूरदृष्टा थे कि 1984 में ही उन्होंने किसानों की खेती के लगातार कम होते रकबे की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा था कि अब इसके सिवाय कोई और रास्ता नहीं है कि किसान के अगर तीन बेटे हैं तो केवल एक ही खेती के काम में लगे और बाकी दो अन्य काम-धंधों की तरफ जायें मगर यह तब तक नहीं हो सकता जब तक कि किसान की आय इतनी न बढे़ कि वह अपने दो बेटों को इंजीनियर या डाक्टर बना सके।
इसके लिए जरूरी होगा कि यूरोपीय देशों की तर्ज पर भारत में भी सरकार किसानों को वे सभी सुविधाएं उपलब्ध कराये जिनसे उसका परिवार आधुनिक आर्थिक पेशे अपना सके। दुर्भाग्य यह भी रहा है कि भारत में कोई राष्ट्रीय कृषि नीति ही दशकों तक नहीं रही और भारत में भौगोलिक विविधता को देखते हुए फसलों की विविधता भी आम बात है। इसे देखते हुए ही कृषि मंडी उत्पाद प्रबन्धन समिति कानून (एपीएमसी एक्ट) 2006 में लाया गया था।
नये कृषि विधेयकों के आने से यह कानून भी सन्दर्भहीन हो जायेगा। इसलिए जरूरी है कि भारत की जमीनी हकीकत को देखते हुए हमें कृषि सुधारों की तरफ पूरी एहतियात के साथ कदम उठाने चाहिएं और किसानों का हित सर्वोपरि रखते हुए प्रावधान करने चाहिएं, क्योंकि भारत के गांवों में एक कहावत आज भी प्रचलित है कि ‘गेहूं महंगा तो सब कुछ महंगा’। उम्मीद है कि सरकार किसानों की चिंताओं का निराकरण करेगी।