जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमन्त्री डा. फारूक अब्दुल्ला की रिहाई का फैसला करके सरकार ने इस राज्य में हालात सामान्य होने का इशारा किया है। हालांकि अभी भी दो अन्य पूर्व मुख्यमन्त्री उमर अब्दुल्ला व महबूबा मुफ्ती हिरासत में ही चल रहे हैं। जाहिर है कि इन तीनों नेताओं के अलावा भी अन्य राजनीतिक व्यक्ति जेलों में बन्द हैं। इन सभी को विगत वर्ष 5 अगस्त को राज्य का विशेष दर्जा समाप्त करने के बाद हिरासत में ले लिया गया था। हिरासत में लेने की असली वजह यह थी कि जिस अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था उसे समाप्त कर दिया गया था और इस सूबे का राजनीतिक तबका इस अनुच्छेद को अपना ‘विशेषाधिकार’ मान बैठा था जबकि यह अनुच्छेद भारतीय संविधान के साथ जोड़ते समय स्पष्ट रूप से कहा गया था कि यह ‘अस्थायी’ प्रावधान है जो इस राज्य के भारतीय संघ में विलय की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए लिखा गया है।
ये परिस्थितियां भारत को काट कर बने ‘नामुराद’ मुल्क पाकिस्तान की वजह से पैदा हुई थीं जो उसने जम्मू-कश्मीर रियासत पर हमला करके बनाई थीं। संविधान से 370 को समाप्त करने के लिए मोदी सरकार ने संवैधानिक रास्ते का इस्तेमाल संसद के जरिये किया। इसका समर्थन पूरे देश की जनता ने मुक्त कंठ से किया, परन्तु 370 समाप्त करने के मुद्दे को यहां के क्षेत्रीय राजनीतिक दलों खास कर श्रीमती महबूबा मुफ्ती की ‘पीडीपी’ पार्टी’ और फारूख साहब की ‘नेशनल कान्फ्रेंस’ ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल इस कदर बनाया था कि इसका लाभ पाकिस्तान परस्त और अलगाववादी ताकतें जम कर उठा रही थीं जिसकी वजह से केन्द्र सरकार ने अलगाववादी तंजीमों के सरपराहों के साथ ही सियासी पार्टियों के नेताओं को भी हिरासत में लेना मुनासिब समझा और इन पर पब्लिक सिक्यूरिटी एक्ट ( सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम) लागू कर दिया, जिसके तहत छह महीने के लिए बिना किसी दलील के गिरफ्तारी जायज होती है
परन्तु देश के राजनीतिक जगत को इन तीन नेताओं की गिरफ्तारी ‘नाजायज’ लगी और उसने सरकार से इन नेताओं को रिहा करने की कई बार मांग भी की। डा. अब्दुल्ला वर्तमान लोकसभा के सम्मानित सदस्य हैं और उनका पूरा राजनीतिक इतिहास देश के लिए वफादारी का है। बेशक उन पर यह आरोप लगता रहा है कि वह ‘नई दिल्ली’ में जो भाषा बोलते हैं उसके सुर ‘श्रीनगर’ पहुंचते ही बदल जाते हैं, इसके बावजूद संसद में दी गई उनकी सभी तकरीरें मुल्क पर फिदा होने के जज्बे से भरी पड़ी हैं। वह मनमोहन सरकार के दौरान केबिनेट मन्त्री भी रहे। दीगर सवाल यह है कि पीडीपी की महबूबा मुफ्ती भी फारूख साहब की तरह कांग्रेस व भाजपा दोनों की सहयोगी रही हैं।
बेशक उनकी पार्टी और नेशनल कान्फ्रेंस के बीच कुछ बुनियादी फर्क है मगर मुल्क के एतबार से हिन्दोस्तान के संविधान पर उनका पूरा भरोसा रहा है और इसी के जेरे साया वह जम्मू-कश्मीर की मुख्यमन्त्री भाजपा के समर्थन से ही रही हैं। फारूक साहब तो खुद वाजपेयी शासनकाल में भाजपा को समर्थन दे रहे थे और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला केन्द्र की सरकार में वजीर थे जबकि वह सूबे के मुख्यमन्त्री थे, परन्तु तब भी भाजपा का मत था कि जम्मू-कश्मीर से 370 खत्म होनी चाहिए, हालांकि इस शर्त को तब मुल्क में भाजपा नीत एनडीए की सरकार की हुकूमत की खातिर बरतरफ कर दिया गया था मगर जनसंघ की उत्पत्ति के समय से ही भाजपा ने भारतीयों से वादा कर रखा था कि वह जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ में ‘सम्पूर्ण विलय’ इस प्रकार करने के पक्ष में हैं कि देश के अन्य राज्यों के नागरिकों की तरह भारतीय संविधान के सभी कायदे- कानून इस सूबे के लोगों पर भी लागू हों।
भाजपा ने लोकसभा व राज्यसभा में बहुमत जुटा कर अपना यह वादा पूरा किया, परन्तु इसके साथ ही भाजपा ने जम्मू-कश्मीर को दो केन्द्र शासित राज्यों में विभक्त किया जिससे 1947 से चली आ रही क्षेत्रीय राजनीति के तेवरों में स्वतः बदलाव हो सके। पाकिस्तान की सीमाओं से लगते जम्मू-कश्मीर का शासन पर्दे में अपने हाथ में रखते हुए प्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री ने पूरी दुनिया को पैगाम दिया कि सूबे का जो भी मसला है वह भारत का अन्दरूनी मामला है और पाकिस्तान इसे अन्तर्राष्ट्रीय समस्या किसी सूरत में नहीं बना सकता। उधर रक्षा मन्त्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की कि पाकिस्तान की हैसियत कश्मीर में एक ‘आक्रमणकारी’ की है। अतः उससे जो भी बात होगी वह केवल उसके द्वारा हथियाये गये जम्मू-कशमीर के हिस्से को वापस लेने के लिए ही होगी जिसे ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ कहा जाता है।
भारतीयों के लिए यह ‘गुलाम कश्मीर’ से ज्यादा कुछ नहीं है। 1971 के युद्ध में भारतीय सेनाओं ने इसका कुछ हिस्सा अपने कब्जे में भी ले लिया था। अतः बदले हुए हालात को जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय नेताओं को स्वीकार करना ही पड़ेगा और इसी के तहत अपनी राजनीति चलानी होगी। यह बात दूसरी है कि वह अपने राज्य को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग कर सकते हैं, जो उनका लोकतान्त्रिक अधिकार भी है वैसे भी केन्द्र ने अर्ध राज्य का दर्जा अस्थायी तौर पर ही देने की बात कही थी। अब सवाल यह है कि फारूक साहब रिहा होकर लोकसभा की बैठकों में शामिल हों और अपने विचारों से पूरे देश को अवगत करायें।
ऐसा नहीं है कि देशवासी उनकी परवाह नहीं करते हैं बल्कि हकीकत में उनकी इज्जत भी करते हैं क्योंकि यह भी पत्थर पर खिंची हुई लकीर है कि उन्हीं के वालिद शेख अब्दुल्ला ने राष्ट्रसंघ में 1951 में साफ किया था कि कश्मीरी भारत के साथ ही रहना चाहते हैं और उन्होंने ही 26 अक्तूबर, 1947 के जम्मू-कशमीर विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। ये हस्ताक्षर पं. जवाहर लाल नेहरू ने ही उनसे कराये थे। इसके बाद जनवरी 1975 में ही शेख साहब ने तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी के साथ समझौता करके भारतीय संविधान के सामने शीश नवाते हुए सूबे के मुख्यमन्त्री पद की शपथ ली थी। ये सब कहानी नहीं बल्कि ऐतिहासिक दस्तावेज हैं इसलिए उनकी रिहाई का स्वागत है और दरकार है कि कश्मीर की दिलकश वादियों में सियासी फिजा को भी दिलनशीं बनाने की कोशिश करेंगे,
‘‘गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले।’’