लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

फारूक का ‘आॅटोनोमी’ राग

NULL

कितनी बार व्यथा-कथा लिखूं। कितनी बार लिखूं कि फारूक अब्दुल्ला और निःसंदेह उमर भी राष्ट्र के लिए किसी काम के नहीं सिद्ध होंगे। फारूक अब्दुल्ला कश्मीर की मुख्यधारा के नेता हैं। पहले उनके पिता शेख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री रहे, बाद में फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने और फिर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री पद पर रहे। उन्होंने जम्मू-कश्मीर में काफी सत्ता सुख भोगा है। फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला केन्द्र में मंत्री भी रहे। संवैधानिक पदों पर रहने के बावजूद फारूक अब्दुल्ला जब भी मौका मिलता है अनर्गल बयानबाजी करते रहते हैं। जब भी घाटी अशांत होती है तो वहां के राजनीतिज्ञ शोर मचाने लगते हैं कि अवाम से बातचीत करो। अलगाववादियों से बातचीत कराे और बातचीत में पाकिस्तान को भी शामिल करो। मौजूदा मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी बातचीत की पक्षधर हैं और बार-बार वार्ता की वकालत करती रहती हैं।

अब केन्द्र ने वार्ता की पेशकश कर दी है तो अब इस पहल को फारूक अब्दुल्ला पलीता लगाने में लग गए हैं। रमजान के दिनों में एकतरफा संघर्षविराम की घोषणा की गई। यह तपती धूप में सर्द हवा की मानिद खुशगवार माहौल पैदा करने का प्रयास था लेकिन इसका कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा। केन्द्र ने महसूस किया कि जब तक वहां शांति बहाली के लिए गम्भीर आैर प्रभावकारी राजनीतिक प्रक्रिया शुरू नहीं की जाती तब तक माहौल में परिवर्तन नहीं आ सकता। नवम्बर 2000 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर में संघर्षविराम की घोषणा की थी। शुरू में एक महीने के लिए संघर्षविराम किया गया लेकिन बाद में इसे दो बार बढ़ाया गया और भारत सरकार की तरफ से यह संघर्षविराम तीन माह तक जारी रहा। घाटी में शांति का माहौल कायम होने लगा था। यहां तक कि सुरक्षाबलों और उग्र युवाओं के बीच दोस्ताना क्रिकेट मैच भी खेले गए थे लेकिन सियासी प्रक्रिया को तब भी कश्मीर के नेताओं ने शुरू ही नहीं होने दिया। केन्द्र की वार्ता की पहल पर अब फिर पूर्व मुख्यमंत्री ने अलगाववादी नेताओं से कहा है कि वह केन्द्र से वार्ता में शामिल नहीं हों क्योंकि इससे उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं। इस बयान की आड़ में उन्होंने अपना पुराना स्वायत्तता का राग छेड़ा है। फारूक अब्दुल्ला ने कहा है कि केन्द्र की वार्ता की पेशकश एक जाल है, इसमें फंसो मत।

उन्होंने हमें स्वायत्तता (ऑटोनोमी) नहीं दी, वह आपको देंगे? बात सिर्फ तभी करो जब भारत एक ठोस प्रस्ताव के साथ आए। मुझे नहीं पता फारूक अब्दुल्ला कश्मीर में कौन-सी स्वायत्तता चाहते हैं और कश्मीर को किससे आजादी चाहिए। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, फिर भी उसका अपना संविधान आैर झंडा है। वहां की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है। भारत सरकार के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि कानून कश्मीर में लागू नहीं हैं। सिर्फ रक्षा, विदेश, वित्त और संचार से जुड़ी व्यवस्थाएं भारत सरकार के अधीन हैं। कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35ए के तहत ऐसे विशेषाधिकार हासिल हैं जो भारत के किसी अन्य राज्य को नहीं हैं। दरअसल जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय अन्य राज्यों की तरह हुआ था। नवम्बर 1949 में अनुच्छेद 370 की व्यवस्था की गई तब तक भारत का संविधान न तो बन पाया था आैर न ही लागू हो पाया था। कश्मीर में बाहर का कोई भी व्यक्ति नागरिक नहीं हो सकता। गैर-कश्मीरी वहां जायदाद नहीं खरीद सकता। इससे बढ़कर कश्मीरियों को कौन-सी आजादी चाहिए? कश्मीर को लेकर केन्द्र की सरकारों की नीतियां भी विवादास्पद रहीं। मुझे अच्छी तरह याद है कि सन् 2000 में फारूक अब्दुल्ला ने ऑटोनोमी का राग छेड़ा हुआ था। प्रधानमंत्री अमेरिका की यात्रा करने वाले थे।

फारूक अब्दुल्ला दिल्ली आए, प्रधानमंत्री से मिले, उनके वापस आने तक संयम बरतने का आश्वासन दिया गया और उधर उनका विमान उड़ा और इधर कश्मीर की विधानसभा में नाटक शुरू हो गया। ऐसे-ऐसे प्रवचन विधानसभा में हुए मानो वह कश्मीर नहीं, ब्लूचिस्तान की असैम्बली हो। जाे प्रस्ताव पारित हुआ, वह देशद्रोह का नग्न दस्तावेज था और वस्तुतः उस दस्तावेज में भारत की उतनी ही भूमिका है कि वह इस राज्य की किसी भी बाह्य आक्रमण के समय रक्षा करे, पैसों का अनवरत प्रवाह यहां होता रहे और यहां की सरकार भारत के समस्त विधान का उपहास उड़ाते हुए अपना फाइनल राउंड खेलते अर्थात विखंडित होने का दुष्प्रयत्न करती रहे। वहां ऑटोनोमी की बात भी सोचना इस राष्ट्र के संघीय ढांचे के लिए कितना घातक कदम साबित होगा। जरूरत तो थी अनुच्छेद 370 को हटाकर इस राज्य के जनसंख्या के अनुपात को ठीक करने की, हिन्दुओं को वापस भेजने की। फारूक जैसी मानसिकता को उसकी औकात बताने की। सच तो झूठ के सामने वहां के परिप्रेक्ष्य में कराह ही रहा है। कश्मीर में कट्टरपंथी गतिविधियों से ज्यादा आम लोगों का विरोध देखने को मिल रहा है। युवा हथियार थाम रहे हैं। वे मरने-मारने को तैयार हैं। जरूरत है अवाम से संवाद करने की, उन्हें विश्वास में लेने की। हुर्रियत वालों से न कोई उम्मीद पहले थी आैर न अब है। कश्मीर को ऑटोनोमी देने का सवाल ही नहीं उठता लेकिन अवाम को गले लगाने की जरूरत है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five × 5 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।