जब उत्तर प्रदेश में 1969 के मध्यावधि विधानसभा चुनावों के बाद स्व. चन्द्रभानु गुप्ता लगभग एक वर्ष के लिए मुख्यमन्त्री रहे थे तो उस दौरान उनका सार्वजनिक अभिनन्दन कार्यक्रम कुछ सामाजिक संगठनों ने आयोजित किया था। मंच पर सभी राजनैतिक व सामाजिक हस्तियां उन्हें फूलमालाएं पहना रही थीं मगर उन्हीं के बीच से तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक भी उन्हें मंच पर फूलमाला पहनाने पहुंच गये तो गुप्ता जी का चेहरा गुस्से से लाल सुर्ख हो गया मगर अपना गुस्सा पीते हुए उन्होंने ताईद की और पुलिस महानिरीक्षक से कहा कि आपको यहां नहीं बल्कि अपने कार्यस्थल पर होना चाहिए था और कानून-व्यवस्था की स्थिति को चुस्त-दुरुस्त करने के इन्तजाम देखने चाहिएं थे। पुलिस का काम राजनीतिज्ञों का अभिनंदन करना नहीं होता बल्कि कानून के मुताबिक लोगों की तकलीफें दूर करना होता है और हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के न्याय दिलाने का होता है। किन्तु इसी उत्तर प्रदेश में जब एक बड़ा पुलिस अफसर कांवडि़यों की यात्रा पर हेलीकाप्टर से फूलों की वर्षा करता दिखाया जाता है तो पुलिस सेवा के उस नियम का सीधा उल्लंघन हो जाता है कि वह नागरिकों में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी। पुलिस का काम यह देखना है कि कांवडि़यों के लिए मार्ग में किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो और कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा न हो।
उन पर फूल वर्षा यदि कोई राजनैतिक या सामाजिक अथवा धार्मिक संगठन करना चाहता है तो इसके लिए उसे प्रशासन की इजाजत लेनी होगी किन्तु जब खुद प्रशासन ही एेसा करने का फैसला कर ले तो उसे किससे इजाजत की जरूरत है। पुलिस का काम धार्मिक कृत्यों में सहभागी बनने का कतई नहीं है बल्कि एेसे कृत्यों को शान्तिपूर्वक सम्पन्न कराने की उसकी जिम्मेदारी होती है। पुलिस न हिन्दू होती है न मुसलमान बल्कि वह इंसानों की एेसी फौज होती है जिसके लिये हर धर्म का मानने वाला नागरिक केवल इंसान होता है। अब सवाल यह है कि ये कांवडि़ये कौन हैं? जाहिर है कि ये सनातन धर्म आस्था के मुताबिक सावन के महीने में हरिद्वार से गंगा जल लाकर भगवान शंकर का जलाभिषेक करने वाले लोग हैं किन्तु इनमें से 90 प्रतिशत गांवों की खेती किसानी से जुड़े लोग होते हैं और इनमें भी युवाओं की संख्या सर्वाधिक होती है। इनमें भी पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले लोग सबसे ज्यादा होते हैं।
उत्तर भारत में सावन में कांवड़ लाने का चलन बहुत पुराना है, परन्तु 1992 के बाद से इसमें अचानक उछाल इस कदर आना शुरू हुआ कि हरिद्वार जाने वाले राजमार्ग पटने लगे। सावन की शिवरात्रि का महात्म्य प्राचीन सनातन ग्रन्थों मंे उल्लिखित होने के बावजूद इसका उल्लास 1992 के बाद से ही देखने को मिला। शुरू-शुरू में सामाजिक संगठनों ने मार्ग में इनके आवभगत की व्यवस्था करनी शुरू की, बाद में स्थानीय प्रशासन ने भी इसमंे हिस्सेदारी शुरू कर दी। इससे कांवडि़यों में सम्मान बोध जागृत हुआ। उन्हें लगा कि बेशक कुछ समय के लिए ही सही प्रशासन उनका सम्मान तो कर रहा है क्योंकि साल के बाकी दिनों में उन्हें तो फिर से वही उपेक्षा का शिकार होना पड़ेगा। कम से कम धर्म की इस यात्रा में उनका सम्मान तो हो रहा है। दरअसल यह उस पीड़ा या वेदना का प्रदर्शन है जो इन किसान पुत्रों को सालभर झेलनी पड़ती है और उसी पुलिस व प्रशासन के अत्याचारों का शिकार होना पड़ता है जो इन पर आज पुष्प वर्षा कर रही है। दूसरी हकीकत यह है कि कांवडि़यों का हुजूम यह भी साबित करता है कि उनके लिये केवल धार्मिक पर्यटन ही एेसा एकमात्र रास्ता है जो उनकी कठोर यात्रा को सामाजिक सम्मान भी दिलाता है। यही वजह है कि इस भाव से भरे हुए कांवडि़यों में से कुछ लोग उत्तेजित हो जाते हैं और कानून को अपने हाथ मंे लेने की गलती कर जाते हैं।
एेसी घटनाएं होने के पीछे उनके भीतर का साल भर उपेक्षित रहने का आक्रोश ही होता है। यकीनन गांवों के युवकों मंे बेरोजगारी सबसे ज्यादा है और आर्थिक संकटों से जूझते इन किसान पुत्रों के सामने कोई दूसरा जरिया नहीं है कि वे सीमित साधनों के सहारे पर्यटन करने तक की भी सोच सकें। अतः एक-दूसरे के सहारे वे इस यात्रा को कर लेते हैं और धार्मिक पुण्य कमाने के लालच में उनका लक्ष्य अच्छे जीवन की कामना ही रहता है। यह हकीकत है हिन्दोस्तान की। इसे गहराई से समझने की जरूरत है, परन्तु इन किसान पुत्रों के कन्धों पर राजनीतिक खेल नहीं खेले जाने चाहिएं और उन्हें झूठे दिलासे नहीं दिलाये जाने चाहिएं कि साल में एक दिन उन पर पुष्प वर्षा करके सरकार उनके रास्ते पर फूल बिछा देगी। इन्हें फिर से बेराेजगारी से जूझना है और अपने खेतों में उपजी फसल का उचित मूल्य पाने के लिए उसी प्रशासन के दरवाजे खटखटाने हैं जो उनके आवाज उठाने पर लाठियां तक भांज देता है। कांवडि़यों का मामला साम्प्रदायिक दृष्टि से देखने की कोशिश करना एेसा प्रयास होगा जिसमें भारत की ग्रामीण जनता को उसी हालत में रखा जा सके जिसमें वह आज है क्योंकि इन्हें अपनी यात्रा समाप्त होने के बाद फिर से भारत की उसी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में घी-शक्कर होना पड़ेगा जिसमें हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद नहीं होता। भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यही है कि हिन्दू मन्दिरों में विराजे भगवानों की शृंगार सामग्री से लेकर उनके भवनों का निर्माण मुसलमान कारीगर करते हैं।