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लिपुलेख दर्रे का झगड़ा

कोराेना वायरस की उत्पत्ति को लेकर दुनिया भर में बदनाम चीन भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाने के लिए घटिया हरकतों पर उतर आया है

कोराेना वायरस की उत्पत्ति को लेकर दुनिया भर में बदनाम चीन भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाने के लिए घटिया हरकतों पर उतर आया है। भारत की सीमाओं में घुसपैठ करना और बाद में चले जाना पुरानी आदत है। पिछले दिनों लद्दाख और सिक्किम क्षेत्र में चीनी सैनिकों की ओर से की गई उकसावे वाली हरकतें चिंता का विषय तो हैं ही। लद्दाख और सि​क्किम दोनों जगह भारत और चीनी सैनिकों में मारपीट भी हुई। हालांकि सुबह दोनों पक्षों में सुलह भी हो गई। चीन की कोशिश यही है कि अमेरिका और अन्य देशों के दबाव में भारत भी कहीं उसके खिलाफ मोर्चा न खोल दे। हांगकांग और ताइवान को लेकर भी दुनिया भर में आवाजें बुलंद हो रही हैं। यूरोपीय देश तो कोरोना वायरस के फैलते दायरे के चलते चीन को ही जिम्मेदार ठहरा कर उसके खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। वर्ष 2017 में डोकलाम में घुसे चीनी सैनिकों को भारत के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। तीन महीने तक दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने डटे रहे थे। यह पहला मौका था जब चीन के सामने भारत डटकर खड़ा था। भारत एक बड़ा बाजार है इसलिए चीन की मजबूरी भी है, इसलिए वह अच्छे रिश्तों की दुहाई भी देता है और गुर्राता भी है। यह सब उसकी कूटनीति का हिस्सा है। जब भी ऐसा मसला सामने आता है तो यही कहा जाता है कि भारत-चीन की सीमाएं स्पष्ट रूप से तय नहीं हुई हैं। इसलिए चीनी सैनिक घुसपैठ कर लेते हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद चीन लद्दाख को अपना हिस्सा बताता रहा है। 
सीमा विवाद तो भारत और नेपाल में भी है। भारत और नेपाल के बीच लिपुलेख दर्रे तक बनाई गई 80 किलोमीटर की लिंक रोड भी विवाद का विषय बन गई है। नेपाल इससे नाराज हो गया है। भारत जहां इस इलाके पर अपना दावा करता रहा है, वहीं नेपाल ने इसे अपना बताया है। लिपुलेख दर्रे तक बनाई गई सड़क का उद्घाटन रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने वीडियो द्वारा किया था। यह सड़क चीन सीमा तक अंतिम भारतीय चौकी पर पहुंचती है। नेपाल का कहना है कि भारत अतिक्रमण कर रहा है। नेपाल में यह मामला इस कदर गर्म है कि न केवल इसे संसद में उठाया गया बल्कि काठमांडौ में भारतीय दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं। इस सड़क के बनने से कैलाश मानसरोवर तीर्थयात्रियों को लम्बे रास्ते की कठिनाई से राहत मिलेगी और गाड़ियां चीन की सीमा तक जा सकेंगी। यह धारचूला-लिपुलेख रोड पिथौरागढ़- तवाघाट- घाटियाबागढ़ रूट का विस्तार है। लिपुलेख दर्रा नेपाल के धारचूला जिला ब्यास गाउंपालिका में है लेकिन इस क्षेत्र पर 1962 से ही भारत का कब्जा रहा है। यह क्षेत्र भारत के उत्तराखंड राज्य को तिब्बत के तकलाकोट शहर से जोड़ता है। यह प्राचीनकाल से व्यापारियों और तीर्थयात्रियों द्वारा भारत और ​तिब्बत के बीच आने-जाने के लिए प्रयोग किया जा रहा है। नेपाल का दावा है कि लिपुलेख दर्रा उसका इलाका है। इस दावे के समर्थन में वह 1816 की सुगोली संधि का हवाला भी देता है। उसका कहना है कि सुगोली संधि भारत के साथ उसकी पश्चिमी सीमा का निर्धारण करती है। संधि के तहत महाकाली नदी के पूर्व का इलाका उसका है, जिसमें कालापानी और लिपुलेख दर्रा भी शामिल है। कालापानी का इलाका रणनीतिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है। हालांकि वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से ही कालापानी में भारतीय सैनिक तैनात हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय ने दो टूक कहा है कि हाल ही में पिथौरागढ़ जिला में जिस सड़क का निर्माण किया गया है वह पूरी तरह भारतीय क्षेत्र है। कैलाश मानसरोवर जाने वाले तीर्थयात्री इसी सड़क से जाते हैं। इस मार्ग का उद्देश्य कैलाश मानसरोवर यात्रा को सुगम बनाना है और दूसरा चीन सीमा पर भारत की आखिरी चौकी पर जल्द पहुंचना है। भारत का कहना है कि कालापानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के अंतर्गत आता है। 
सीमा विवाद को हल करने के लिए भारत-नेपाल बातचीत करने को तैयार हैं। नेपाल को भारत ने हमेशा अपना छोटा भाई माना और हर संकट की घड़ी में उसकी मदद भी की है। कभी नेपाल हिन्दू राष्ट्र था लेकिन माओवादियों की खूनी क्रांति के बाद वहां जिस तरह का लोकतं​त्र कायम हुआ, उससे नेपाल में चीनी हस्तक्षेप काफी बढ़ चुका है। नेपाल की सियासत में एक वर्ग पूरी तरह चीन की झोली में है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत-नेपाल के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक रूप से बहुत मजबूत संबंध रहे हैं। साल 1950 में भारत और नेपाल के बीच शांति और मैत्री संधि की गई थी। भारत आैर नेपाल के बीच सीमा विवाद ब्रिटिश शासन की देन है। चीन से भी सीमा विवाद अंग्रेजों की ही देन है। चीन तो सीमा विवाद जानबूझ कर सुलझाना ही नहीं चाहता। भारत और बंगलादेश ने सीमा विवाद सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया है। भारत और नेपाल भी वार्ता कर इस समस्या का हल निकाल सकते हैं। अगर उसने चीन के एजैंट के तौर पर काम करना है तो बात अलग है। नेपाल को याद रखना होगा कि मित्र तो बदले जा सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं। नेपाल में बंदूक की संस्कृति से निकले लोकतंत्र को अभी भी सम्भल कर चलना होगा और भारत तथा चीन में संतुलन बना कर रखना होगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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