देश में एक के बाद एक अग्निकांड हो रहे हैं। देश की आर्थिक राजधानी और सपनों की नगरी करार दी गई मुम्बई में भयंकर अग्निकांड लगातार हो रहे हैं लेकिन हम कोई सबक सीखने को तैयार ही नहीं हैं। मुम्बई के कमला मिल्स कम्पाउंड हादसे की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि बाहरी दिल्ली के बवाना औद्योगिक क्षेत्र में एक फैक्टरी में लगी भयंकर आग ने 10 महिलाओं समेत 17 लोगों की जान ले ली। आग इतनी विकराल थी कि श्रमिकों काे निकलने का मौका ही नहीं मिला। शव एक-दूसरे से चिपके पाए गए। औद्योगिक क्षेत्र में आग तो तीन फैक्टरियों में लगी थी। जिस फैक्टरी में मौतें हुईं उसके ग्राउंड फ्लोर पर पटाखों की पैकिंग का काम हो रहा था और ऊपर रबड़ की फैक्टरी थी। हादसे तभी होते हैं जब नियमों और कायदे-कानूनों का उल्लंघन होता है। आग क्यों और कैसे लगी, यह तो जांच का विषय है ही लेकिन फैक्टरी को तो उसके मालिक ने मौत का कुआं बना रखा था। आग पर काबू पाने के कोई उपकरण थे ही नहीं। आग बुझाने के लिए रेत तक नहीं था। फैक्टरी से बाहर जाने का भी एक ही रास्ता था।
यही कारण था कि मजदूर चाह कर भी कुछ कर नहीं पाए। यदि दो रास्ते होते तो शायद लोगों की जानें बच जातीं। आग तो आग ही है, वह अपना-पराया नहीं देखती है। आग जीवनदायिनी भी है तो जीवनभक्षक भी। बारूद होने के कारण चन्द मिनटों में ही आग ने फैक्टरी की तीनों मंजिलों को अपनी चपेट में ले लिया। फैक्टरी के मालिक ने दिल्ली फायर ब्रिगेड से अनापत्ति प्रमाणपत्र भी नहीं लिया था। कोई कह रहा है कि उसके पास गुलाल बनाने का लाइसेंस था, प्लास्टिक का सामान बनाने का लाइसेंस था लेकिन प्लास्टिक की फैक्टरी में पटाखों का होना अपने आपमें खतरनाक है। इस औद्योगिक क्षेत्र के जिस संबंधित विभाग के अधिकारी के कंधों पर जांच-पड़ताल की जिम्मेदारी थी, वह अधिकारी भी मामले में पूरी तरह से बेखबर थे। साफ है कि फैक्टरी नियमों और कानूनों का उल्लंघन करके चलाई जा रही थी। दिल्ली में केवल बवाना ही नहीं, अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां अवैध रूप से ऐसे उद्योग चल रहे हैं जो मानव जीवन के लिए खतरनाक हैं। ऐसे उद्योगों में सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं होती। अगर अग्निशमन यंत्र लगे भी होते हैं तो रखरखाव के अभाव में वह भी बेकार हो जाते हैं या फिर उनके इस्तेमाल की किसी को ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती। महानगर इतना व्यस्त रहता है कि किसी को सोचने की फुर्सत ही नहीं।
इन्सान इतना स्वार्थी हो चुका है कि किसी को भी किसी की परवाह ही नहीं। इन्सान बस धन कमाना जानता है, इसलिए फैक्टरी मालिक श्रमिकों की जान जोखिम में डालकर उनसे काम कराते रहते हैं। सवाल यह है कि अग्निकांड से मौतों के लिए केवल फैक्टरी मालिक जिम्मेदार है? 17 लोगों की जिन्दगियां लील लेने वाली आग के लिए जिम्मेदार तो वही है ही, लेकिन जिम्मेदार वे अधिकारी और कर्मचारी भी हैं जिनके चलते फैक्टरी कायदे-कानून को ताक पर रखकर चल रही थी। 1997 के उपहार सिनेमा अग्निकांड को अधिकारी भूल गए, नन्दनगरी के समुदाय भवन की आग भूल गए, पीरागढ़ी उद्योगनगर की आग तो उन्हें याद भी नहीं होगी। स्थानीय निकाय क्या कर रहा था। निगम या दिल्ली सरकार का लाइसेंसिंग विभाग क्यों मौन है। अगर राजधानी में श्रमिकों के जीवन की रक्षा नहीं की जा सकती तो फिर इन विभागों का फायदा ही क्या? कौन नहीं जानता कि ये विभाग कैसे काम करते हैं। सब जानते हैं कि प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर इंस्पैक्टर आते हैं और बंधी-बंधाई राशि लेकर लौट जाते हैं। लाइसेंसिंग विभाग में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार है। इसके लिए कोई एक विभाग जिम्मेदार नहीं बल्कि उद्योगों से जुड़े सभी विभाग जिम्मेदार हैं। डीएसआईडीसी चाहे तो ऐसे हादसों को रोक सकता है। अग्निकांड के पीछे छिपा है भ्रष्टाचार।
जिन्दगी मिलती नहीं है दूध धोई
त्याग की अब आग से तपता न कोई
स्वार्थ का हर सांस पर पहरा हुआ है
न्याय डर से लोगों के बहरा हुआ है
ज्ञान का काजल लगाकर आंख में अब
आज घर की आग से घर को बचाओ
आग का अपना-पराया क्या।
अब आग पर सियासत होने लगी है। भीतर शव पड़े थे आैर राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता आपस में उलझ रहे थे। हादसों को रोकने के लिए सबक लेकर जरूरी है कि हर फैक्टरी का सुरक्षा ऑडिट कराया जाए आैर श्रमिकों के लिए बेहतर व्यवस्था की जाए। काम करने लायक परिस्थितियां होंगी तो जीवन खतरे में नहीं पड़ेगा। इसके लिए जरूरी है कि उद्योगों से जुड़े विभागों की स्क्रीनिंग की जाए, इन्हें भ्रष्टाचारमुक्त बनाया जाए और प्रत्येक आैद्योगिक क्षेत्र में सिंगल विंडो प्रणाली लागू की जाए ताकि लाइसेंस लेने के लिए उद्यमियों को इधर-उधर न भटकना पड़े और एक ही जगह सारी जानकारी उपलब्ध हो सके।