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सबसे पहले हम भारतीय हैं

भारत के सन्दर्भ में सर्वोच्च प्राथमिकता इस तथ्य को देनी होगी कि इसकी सांस्कृतिक विरासत ‘असहमति’ के बीच ‘सहमति’ बना कर चलने वाले सकल समाज की रही है।

भारत के सन्दर्भ में सर्वोच्च प्राथमिकता इस तथ्य को देनी होगी कि इसकी सांस्कृतिक विरासत ‘असहमति’ के बीच ‘सहमति’ बना कर चलने वाले सकल समाज की रही है। ईसा से छह सौ साल पहले ही गौतम बुद्ध व भगवान महावीर के दर्शन ने हमें ‘आत्म दीपोभव’ का जो ज्ञान दिया उसी में भिन्न- भिन्न मत-मतान्तरों के बीच सर्वप्रथम मानवता वाद को प्रतिष्ठापित करते हुए असहमति को स्थापित विचार के रूप में स्वीकार किया और ‘कथनचित’ की महत्ता स्थापित की। मगर भारत का सत्य जानने के लिए इतना पीछे जाने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि भारत में जो भी दूसरे मजहब विदेशी धरती से आये उन पर भी भारत के इस दर्शन की छाप पड़ी। 16वीं शताब्दी में जब ईरान के शहंशाह ने भारत पर शासन करने वाले बादशाह अकबर से यह पूछा कि वह बतायें कि वह कौन से मुसलमान हैं अर्थात शिया हैं अथवा सुन्नी हैं तो अकबर ने उत्तर लिखा कि वह ‘हिन्दोस्तानी मुसलमान’ हैं। अतः ताजा इतिहास को ही लें तो केवल सात सौ साल पहले ही भारत में भारतीयता का भाव इतना प्रखर था कि बादशाह को भी कहना पड़ा कि भारत की मिट्टी की तासीर में ही भारतीयता है। 
यह तासीर हिन्दू-मुसलमान के भेद से ऊपर कल भी थी और आज भी है और इस हकीकत के बावजूद है कि 1947 में ही मुहम्मद अली जिन्ना ने मजहब की बुनियाद पर भारत के दो टुकड़े करा दिये। मगर पाकिस्तान का वजीरे आजम शहबाज शरीफ अपने देश की ही एक जनसभा में अपने राजनैतिक विरोधी इमरान खान के झूठ का पर्दाफाश करने की कोशिश में यह कहता है कि अपनी हुक्मरानी में सैकड़ों पाप करने वाला इमरान खान आज खुद को ‘सती सावित्री’ जैसा दिखाता घूम रहा है तो हमें उस भारत की तासीर का गुमान बड़ी आसानी से हो सकता है जो 1947 से पहले तक एक ही था। भारत की सांस्कृतिक मान्यताएं कभी भी किसी मजहब की दीवारों में कैद नहीं रही हैं। इससे यही साबित होता है कि हमारा मजहब जुदा हो सकता है मगर हमारी सामाजिक चेतना एक ही है। अतः भारत में रहने वाले हर मजहब का नागरिक सबसे पहले भारतीय है और उसके बाद हिन्दू या मुसलमान। भारत की पिछले पांच हजार साल की संस्कृति में कभी भी यहां के लोग मूर्ख या जाहिल नहीं रहे। अग्रेजों को छोड़ कर इस देश के शासक जो लोग भी रहे उन्होंने भारत की मिट्टी की तासीर को पहचाना और यहां की रवायतों को जिन्दा रखते हुए हुक्मरानी की। 
यहां तक कि मुस्लिम सुल्तानों व मुगल शासकों ने भी भारत की राजधर्म की परिभाषा को अंगीकार किया और उसी के अनुरूप शासन चलाने की कोशिश भी की। यदि औरंगजेब को छोड़ दिया जाये तो किसी भी मुगल बादशाह ने इन रवायतों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं की। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आठ सौ वर्षों तक मुस्लिम शासन रहने के बावजूद 1947 तक पूरे अंखड भारत में मुस्लिमों की जनसंख्या मात्र 25 प्रतिशत थी। इसका जवाब भी हमें भारत का मध्यकालीन इतिहास ही देता है और बताता है कि किसी भी मुस्लिम शासक ने धर्म परिवर्तन को अपनी नीति का अंग नहीं बनाया। मगर ऐसा भी नहीं है कि उस काल में धर्म परिवर्तन नहीं हुआ, बेशक धर्म परिवर्तन किया गया मगर इसके कारण स्थानीय स्तर के हुक्मरानों की तर्ज में ढूंढे जा सकते हैं मगर इसके बावजूद भारत की इन्द्रधनुषी समावेशी संस्कृति में यह ताकत रही कि इसने विभिन्न मजहबों की रूढि़यों व परंपराओं को अपनी तासीर के मुताबिक ढाला और भारतीयता का जामा पहनाया जिसकी सबसे बड़ी नजीर हमें संयुक्त पंजाब की संस्कृति में ही मिलती है।  सिख पंथ का उदय इसका सबसे बड़ा प्रमाण है जिसने सिर्फ मानवता वाद का उपदेश ही दिया। यह भारत की ही तासीर थी कि यहां मुस्लिम पीर-फकीरों ने भी हिन्दू दर्शन की कई मान्यताओं को समाहित किया और भारत की मिट्टी का एहतराम करते हुए दक्षिण भारत के लोगों के लिए दक्खिनी हिन्दी तक को विकसित किया। ऐसा करने वाले पहले सूफी सन्त औरंगाबाद के होली पीर ही थे जो बाद में गुजरात चले गये थे। जिस प्रकार पंजाब में सूफी सन्त व औलियाओं की लम्बी परंपरा है उसी प्रकार महाराष्ट्र राज्य में भी है। पाकिस्तान के पंजाब में आज भी ब्याह-शादियों में केसरिया चुन्नी ही दुल्हिन का शृंगार होती है और इस अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत भी इसी भाव के होते हैं। अतः हमें सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि आजाद हिन्दोस्तान में हिन्दू-मुस्लिम फसादों की कितनी जगह है जबकि समूचे भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था इन दोनों सम्प्रदायों के कन्धों पर ही टिकी हुई है। कट्टरपंथी सोच के लोग दोनों तरफ हैं तो क्या हम इन्हें अपना आका बनने दे सकते हैं जबकि आका तो हर भारतीय है। 
हमें याद रखना चाहिए कि अखंड भारत में अलग स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य बनाये जाने के पहले पैरोकार अल्लामा इकबाल के साथ उनके इस विचार के परखचे उड़ाने वाला भी कोई हिन्दू नहीं बल्कि मुसलमान ही था और उसका नाम मौलाना हसन मदनी था जो देवबंद के जमीयत उल-उलमाएं- हिन्द के सरपरस्त थे। उन्होंने कहा था कि भारत की लोगों की मजहब के आधार पर अलग-अलग राष्ट्रीयता नहीं हो सकती क्योंकि उनकी राष्ट्रीयता संयुक्त या मुतैहदा है। अपने ताजा इतिहास पर हमें गर्व करना भी आना चाहिए। 

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