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‘कृषि समिति में पांच किसान’

अब इसमें कोई सन्देह नहीं रहा है कि केन्द्र सरकार आन्दोलनरत किसानों की सभी जायज मांगों पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने के लिए तैयार है, अतः लोकतन्त्र की नैतिक मर्यादा की मांग है

अब इसमें कोई सन्देह नहीं रहा है कि केन्द्र सरकार आन्दोलनरत किसानों की सभी जायज मांगों पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने के लिए तैयार है, अतः लोकतन्त्र की नैतिक मर्यादा की मांग है कि पिछले एक वर्ष से अधिक समय से जारी किसानों का आंदोलन समाप्त हो जाना चाहिए और उन्हें अपने घरों व खेतों पर लौट जाना चाहिए। यदि इस यथार्थ के बावजूद किसान नेता श्री राकेश टिकैत आन्दोलन पर तब तक बैठे रहने की जिद करते हैं कि जब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून नहीं बनेगा किसान अपने घर नहीं जायेंगे तो इसे विशुद्ध राजनीति माना जायेगा और समझा जायेगा कि श्री टिकैत किसानों के हित से ऊपर निजी हित देख रहे हैं और उत्तर प्रदेश व पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर अपनी नेतागिरी चमकाना चाहते हैं। उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस स्थान से आते हैं जो देश के सबसे बड़े किसान नेता रहे चौधरी चरण सिंह की कर्म स्थली रहा है और चौधरी साहब ने जीवनभर कभी भी किसानों को सरकार पर आश्रित रखने के लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की लड़ाई लड़ी। उनका नजरिया साफ था कि यदि इस देश का किसान सबल, सक्षम व आत्मनिर्भर होगा तो यह देश भी आत्मनिर्भर होगा अतः सरकार की नीतियां इसी दृष्टि से बननी चाहिए जिससे भारत के गांव समृद्ध होकर देश के सकल औद्योगिक विकास में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी कर सकें।
 बेशक यह हकीकत है कि चौधरी साहब गांधीवाद की परिकल्पना के अनुरूप बड़े उद्योग धन्धों के स्थान पर कुटीर व मध्यम उद्योगों के हिमायती थे मगर उनका दौर संरक्षित अर्थव्यवस्था का दौर था जिसमें रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए जमीनी स्तर पर कुटीर व मंझोले उद्योगों की भूमिका कम लागत से उत्पादन बढ़ाने में  महत्वपूर्ण भूमिका थी परन्तु यह बाजारमूलक अर्थव्यवस्था का दौर है जिसमें अन्य क्षेत्रों की भांति कृषि क्षेत्र में भी निजी निवेश की सख्त जरूरत है जिससे इस क्षेत्र में पर्याप्त पूंजी निर्माण हो सके। अतः जिन तीन कृषि कानूनों को सरकार ने वापस लिया है वे वास्तव में अगली पीढ़ी के सुधारात्मक कदम थे लेकिन अब यह किस्सा खत्म हो चुका है और हमें पुरानी व्यवस्था के साथ ही आगे बढ़ना है। जहां तक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने का सवाल है तो वह संभव नहीं है क्योंकि कोई भी सरकार एेसा कानून नहीं बना सकती है जिसमें समर्थन मूल्य की सीमा तय कर दी जाये। संसद इस प्रकार का कानून किस प्रकार बना सकती है क्योंकि समर्थन मूल्य हर वर्ष किसान की लागत कीमत देखते हुए तय किया जाता है जिससे खेती लाभप्रद बनी रहे। अतः जो किसान नेता या संगठन एेसी मांग कर रहे हैं वह किसानों के हित में नहीं कही जा सकती। 
दुनिया के किसी भी देश में एेसा कानून नहीं है। इसका उपाय केवल एेसी सरकारी समिति का गठन ही है जो प्रतिवर्ष किसानों की उपज का समर्थन मूल्य बाजार की स्थितियों को देखते हुए तय करे। अतः प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जब विगत 19 नवम्बर को कृषि कानून वापस लेने का एेलान किया था तो साथ में यह भी कहा था कि खेती को कम से कम लागत पर उपादेय बनाने हेतु तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जायेगा जिसमें किसानों के प्रतिनिधियों समेत कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञ भी शामिल होंगे। यह समिति सीधे प्रधानमन्त्री कार्यालय के अन्तर्गत सक्रिय प्रखंड की देखरेख में बनेगी जिससे इसकी सिफारिशों का स्तर कानूनी हक से कमतर नहीं आंका जा सकेगा। इसी समिति में भाग लेने के लिए सरकार ने किसान संगठनों से अपने पांच सदस्य नामांकित करने की अनुनय की है। इस समिति में किसानों के प्रतिनिधि खेतों और फसलों की व्यावहारिक जरूरतों व कठिनाइयों का भली प्रकार विवरण रख सकेंगे और किसी सर्वसम्मत न्यूनतम समर्थन मूल्य फार्मूले पर पहुंच सकेंगे।  अतः स्पष्ट है कि सरकार की नीयत पर अब सन्देह नहीं किया जा सकता। अतः यह देखना किसान संगठनों का काम है कि वे किन पांच नेताओं का इस समिति के लिए चुनाव करते हैं। जहां तक किसानों की इस मांग  का सवाल है कि आन्दोलन के दौरान उन पर लगाये गये विभिन्न मुकद्दमे वापस लिये जायें तो इसे भी नाजायज नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जहां तक पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व हरियाणा का सवाल है तो इन क्षेत्रों में यह आन्दोलन काफी लोकप्रिय हो गया था जिसमें आमजनों की भागीदारी भी थी। इसके चलते आंदोलन की चपेट में बहुत से सामान्य समर्थक नागरिक किसान भी आ सकते हैं परन्तु यह विषय राज्यों का है और यदि हवा में तैरती खबरों पर यकीन करें तो केन्द्र ने इस सम्बन्ध में सभी सम्बन्धित राज्य सरकारों को निर्देश दे दिये हैं। अतः किसानों का अब दिल्ली में जमे रहने का कोई औचित्य नहीं बनता है और राकेश टिकैत जैसे नेता के जिद पर अड़े रहने की कोई वजह नहीं बचती है। सरकार ने बिजली संशोधन विधेयक को भी  टाल दिया है। सामान्य ज्ञान कहता है कि बिजली संशोधन विधेयक का मामला भी अब नवगठित समिति के पास जायेगा क्योंकि इसका सम्बन्ध न्यूनतम लागत पर लाभप्रद खेती करने से है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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