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वायुसेना की परकैच उड़ान!

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भारत की रक्षा तैयारियों को लेकर जिस तरह की राजनीति होती रही है उसका सबसे ज्यादा कुप्रभाव हमारी सेनाओं के अस्त्र सुसज्जीकरण पर ही पड़ा है और परिणामस्वरूप हमारी सैनिक शक्ति को ही इसका दुष्परिणाम झेलना पड़ रहा है। हम अपनी सशस्त्र सेना के तीनों अंगों की जरूरतों को पूरा करने में अगर असमर्थ रहते हैं तो उसकी पूरी जिम्मेदारी हमारी ही है और इस मुद्दे पर किसी भी प्रकार की राजनीति की कतई भी गुंजाइश नहीं है। आश्चर्य है कि 2002 से ही पुराने रूसी मिग-21 विमानों के क्रमवार सेवा से बाहर होते जाने की वजह से वायुसेना की युद्धक विमान क्षमता घट कर 30 स्कैवाडन (540 विमान) रह गई है जबकि इसके पास हमेशा 42 स्कैवाडन या 676 विमान होने चाहिए।

इस प्रकार वायुसेना के पास अगले वर्षों में पुराने विमानों के सेवा से बाहर होते जाने की वजह से इनकी संख्या और घटती जाएगी और नए खरीदे जाने वाले विवादास्पद फ्रांसीसी लड़ाकू विमानों के दो स्कैवाडन (36 विमान) 2023 तक ही पूरे हो पाएंगे। सवाल यह है कि 2002 से अब तक कई सरकारों के बदल जाने के बावजूद हम अपनी वायुसेना की मूलभूत आवश्यकताओं को ही पूरा करने में क्यों असमर्थ रहे हैं? हकीकत है कि भारत में युद्धक विमान बनाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. की कार्यक्षमता और दक्षता को उदार आर्थिक नीतियों या बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के जोश में जिस तरह उपेक्षित किया गया उससे इस कम्पनी के कौशल पर इस कदर विपरीत प्रभाव पड़ा कि यह अपने द्वारा निर्मित लड़ाकू तेजस विमानों के उत्पादन में दस साल पिछड़ गई।

इसकी जिम्मेदारी कम्पनी के प्रबन्धन पर डालना उचित नहीं होगा क्यों​कि इसकी वित्तीय व तकनीकी स्थिति का अाधिकारिक लेखा–जोखा संसद के संज्ञान में लाया जाता रहा। इस कम्पनी से सरकार ने छह स्कैवाडन लेने का अनुबन्ध किया हुआ है। इसमें दस साल की देरी होने का मतलब अगर कोई सरकार नहीं समझ सकी तो उसके अर्थ ढूंढे जाने की जरूरत है। अब हालत यह है कि भारतीय वायुसेना की स्वीकृत स्कैवाडन क्षमता 42 से घट कर आगामी छह साल में 26 ही रह जाएगी। वह भी तब जबकि हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स इसे प्रतिवर्ष तेजस विमानों का एक स्कैवाडन देगी। इस बारे में भी पूर्ण विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता है क्यों​कि वर्तमान में यह केवल नौ विमान या आधा स्कैवाडन ही बामुश्किल बनाने की क्षमता रखती है। इसका मतलब यह है कि भारत को अपनी वायुसेना को पूर्णतः तैयार रखने के लिए किसी प्रकार की देरी से बचना चाहिए और लड़ाकू विमानों की कमी नहीं होनी देनी चाहिए।

परन्तु हमने 2007 में शुरू हुए राफेल विमान बनाने वाली फ्रांसीसी कम्पनी दासोल्ट के साथ 126 विमानों की खरीदारी का अनुबन्ध 2018 में रद्द करते हुए केवल 36 विमान ही खरीदने का सौदा कर लिया। जबकि दूसरी तरफ पाकिस्तान के पास 2021 तक लड़ाकू विमानों की क्षमता 25 स्कैवाडन हो जाएगी और हमारे पास कुछ साल बाद यह 26 ही रहेेगी। साथ ही चीन के पास हमेशा इतनी लड़ाकू विमान क्षमता रहती है कि वह अपने 42 स्कैवाडन सनद्ध कर सके। जाहिर है मनोविक रूप से हमारी वायुसेना दबाव में ही रहेगी। मगर एसी स्थिति का निर्माण हमने स्वयं किया है। देश की रक्षा से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता। सवाल यह बिल्कुल नहीं होता कि किस पार्टी की सरकार या किस नेता ने रक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक कदम उठाए गए। उन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी हर सरकार की होती है क्योंकि भारत की सरकार भारत की सरकार होती है जिसकी पहली जिम्मेदारी सीमाओं की सुरक्षा की ही होती है।

इसके साथ ही रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में आत्म निर्भरता प्राप्त करने के लिए टैक्नोलोजी आयात की शर्त का पालन भी जरूरी होता है। इसे इस तरह भी देखा जाना चाहिए कि उत्पादन में शत-प्रतिशत विदेशी निवेश की छूट देने के बावजूद कोई भी बड़ी आयुध सामग्री उत्पादक कम्पनी भारत में नहीं आई है। इसकी वजह केवल टैक्नोलोजी की सुरक्षा ही रहती है। विदेशी आयुध सामग्री खरीदने पर हम उस ‘आफसैट’ नीति पर विदेशी कम्पनी को अपनी शर्तें मानने पर बाध्य कर सकते हैं जिसके तहत न्यूनतम 30 प्रतिशत विदेशी निवेश भारत में ही करना जरूरी होता है और जिसकी मार्फत टैक्नोलोजी पर भारतीय सहयोगी कम्पनी की पकड़ बन जाती है। भारत शस्त्रों के बाजार में हमेशा खरीदार बन खड़ा नहीं रह सकता। परन्तु इसके साथ ही हमें अपनी परमाणु शक्ति उत्पादन के क्षेत्र पर भी नजर डालनी चाहिए। इस मामले में भी हम लगातार गफलत में पड़े हुए हैं।

हमें भारत के परमाणु पितामह कहे जाने वाले वैज्ञानिक शिरोमणि डा. होमी जहांगीर भाभा की याद नहीं आती जिन्होंने भारत में ही उपलब्ध होने वाले थोरियम की मार्फत परमाणु ऊर्जा विकसित करने की प्रौद्योगिकी अपना कर पूरी दुनिया को चौंका दिया था। हमारे फास्ट ब्रीड परमाणु रियेक्टरों की क्षमता में क्या विकास हुआ है और इनकी क्या गति है, इस तरफ ध्यान देने की किसी को फुर्सत नहीं है। हमें अभी तक न्यूक्लियर सप्लायर्स देशों (एनएसजी) की सदस्यता नहीं मिल पाई है और भारत से परमाणु करार करते हुए अमेरिका ने वादा किया था कि वह अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करके हमें इसकी सदस्यता दिलाएगा। हम अमेरिका के साथ अपने संबंधों को लेकर इस तरह घी–शक्कर हो रहे हैं जैसे कि यह हमारे लिए कोई नैमत हो। मगर इसकी असलियत यही है कि अमेरिका हमारी हर कमजोरी को अपनी ताकत के रूप में देखता है। थोरियम के जरिये परमाणु ऊर्जा प्राप्त करना हमारा ऐसा अभियान था जिसे पं. नेहरू के जमाने से ही परवान चढ़ाया जा रहा था मगर अपनी इस महान सफलता का हम जायजा तक लेने को तैयार नहीं हैं। इसका सम्बन्ध भी तो देश की सुरक्षा से ही बंधा हुआ है ?

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