प्राकृतिक विपदाएं क्यों आती हैं? इस सवाल का उत्तर स्पष्ट है कि मनुष्य जब अपनी प्रकृति से विमुख हो जाता है तो परमात्मा की प्रकृति भी रुष्ट हो जाती है। केरल में जल प्रलय से रोजाना लोगों की मौत हो रही है। लाखों लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। तबाही के मंजर चारों तरफ देखे जा रहे हैं। आखिर बाढ़ इतनी विनाशकारी कैसे हो गई? पर्यावरणविद् माधव गाडगिल ने केरल में बाढ़ और भूस्खलन को मानव निर्मित आपदा बताया है। यह सही है कि केरल में जितनी वर्षा हुई है उतनी वर्षा 100 साल से नहीं हुई।
प्रकृति ने तो अपना रौद्र रूप दिखाया ही है लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि बाढ़ के विनाशकारी होने में आंशिक रूप से मानव की ही बड़ी भूमिका है। माधव गाडगिल के नेतृत्व वाली समिति ने 2011 में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि केरल में पश्चिमी घाट के तहत आने वाले कई इलाके पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील हैं। समिति ने कहा था कि पश्चिमी घाट 6 राज्यों में फैला हुआ है, उसके 140 हजार किलोमीटर के इलाके को तीन जोन में बांटा जाए और इस क्षेत्र के पर्यावरण को संरक्षित किया जाए। समिति ने स्पष्ट रूप से पश्चिमी घाट के इलाके में पत्थरों की खुदाई, माइनिंग जैसी गतिविधियों को रोकने के लिए कहा था।
समिति ने स्थानीय लोगों की मदद से इलाके की जैव विविधता को संरक्षित करने का सुझाव भी दिया था। इस क्षेत्र में बिना रोकटोक पर्यटन बढ़ता गया और जंगल की जमीन पर अवैध अधिग्रहण होता गया। केरल सरकार ने माधव गाडगिल समिति की रिपोर्ट को सिरे से नकार दिया था और पर्यावरण संरक्षित करने का कोई प्रयास नहीं किया। केरल में आई बाढ़ से ठीक एक महीने पहले एक सरकारी रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि यह राज्य जल संसाधनों के प्रबन्धन मामले में दक्षिण भारतीय राज्यों में सबसे खराब स्तर पर है। इस अध्ययन में हिमालय से सटे राज्यों को छोड़कर 42 अंकों के साथ केरल को 12वां स्थान मिला था। इस सूची में गुजरात, मध्य प्रदेश आैर आंध्र शीर्ष तीन राज्य हैं।
विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि यदि प्रशासन कम से कम 30 बांधों से समयबद्ध तरीके से धीरे-धीरे पानी छोड़ता तो केरल में बाढ़ इतनी विकराल नहीं होती। केरल के प्रमुख बांधों जैसे इडुक्की और इडामाल्यार से पानी छोड़े जाने से पहले से ही बारिश से घिरे राज्य में स्थिति और भी खराब हुई। यदि बांध संचालक पहले से ही पानी छोड़ते रहते, न कि उस वक्त का इंतजार करते कि बांध में पानी पूरी तरह से भर जाए और उसे बाहर निकालने के अलावा और कोई चारा ही न रह जाए। यह भी साफ है कि केरल में बाढ़ आने से पहले काफी समय था जब पानी को छोड़ा जा सकता था। इस वर्ष की शुरूआत में केन्द्रीय गृह मंत्रालय के एक आकलन में केरल को बाढ़ से सबसे असुरक्षित राज्य माना गया था लेकिन राज्य सरकार ने तबाही के खतरे को कम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए।
तेजी से होते शहरीकरण आैर बुनियादी ढांचों के निर्माण की वजह से बाढ़ की विभीषिका से प्राकृतिक तौर पर रक्षा करने वाली दलदली जमीन और झीलें गुम हो चुकी हैं। केरल में आई बाढ़ ने आपदा के नए आयाम को जोड़ा है और यह है बांधों से खतरा। जलवायु वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी है कि 100 वर्षों बाद आई यह आपदा निकट भविष्य में दोबारा आ सकती है। केरल में हर जगह पानी ही पानी है लेकिन पीने को एक बूंद नहीं। पर्यावरणविद् माधव गाडगिल ने चेतावनी दी है कि यदि गोवा ने पर्यावरण के मोर्चे पर एहतियात नहीं बरती तो उसका भी हश्र बाढ़ से तबाह हुए केरल जैसा हो सकता है। राज्य सरकारों द्वारा पर्यावरण सम्बन्धी एहतियात नहीं बरतने की वजह पूर्णतः लाभ केन्द्रित है।
अवैध खनन से 35 हजार करोड़ से भी ज्यादा का धंधा देशभर में होता है। राज्य सरकारें पत्थर खनन से भी मुनाफा कमाती हैं लेकिन इन्सान को भुला देती हैं। प्रकृति की महातुला पर जीवन और मृत्यु के परिप्रेक्ष्य में प्राणी जब भी तोले जाएंगे वहां मनुष्य के लिए केवल एक ही परिणति होगी- महासंहार। मनुुष्य-मनुष्य नहीं रह गया, वह तो असुरों से भी अधिक अधोगति को प्राप्त कर चुका है। जीवन अगर चलेगा तो जीवन मूल्यों के साथ चलेगा, नहीं तो नहीं चलेगा। केरल की बाढ़ एक चेतावनी है कि राज्य सरकारें और मनुष्य चेत जाए। यदि प्रकृति से दिन-रात छेड़छाड़ बन्द नहीं हुई तो भयंकर परिणाम सामने आएंगे। केरल के साथ समूचा भारत खड़ा है। लाखों हाथ उठेंगे तो केरल का जनजीवन सामान्य हो पाएगा। दुःख की घड़ी में हमें कराहती मानवता की रक्षा करनी होगी। पंजाब केसरी देशवासियों से अपील करता है कि अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार केरलवासियों की मदद करें। इस महायज्ञीय कार्य के लिए आगे आएं।