देश में हर साल बाढ़ आती है। बाढ़ से जान-माल का नुकसान होता है। देश में कम से कम दस ऐसे क्षेत्र हैं जहां हर वर्ष बाढ़ का आना लगभग तय होता है। बिहार, असम समेत पूर्वोत्तर के कई राज्यों, केरल, पश्चिम बंगाल, आंध्र, ओडिशा, गुजरात, उत्तर प्रदेश में बाढ़ अपना कहर बरपाती है। मानसून की होने वाली बहुत अधिक बरसात से दक्षिण-पश्चिम भारत की ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना आदि नदियों में बाढ़ इनके किनारे बसी बहुत बड़ी आबादी के लिए खतरे और विनाश का पर्याय बन चुकी है।
इन सभी बड़ी नदियों के आसपास या किनारों पर बसे शहर, गांव, कस्बे इसका सबसे ज्यादा शिकार बनते हैं। लाखों हैक्टेयर भूमि पर कृषि हर वर्ष बर्बाद होती है। हजारों मकान ढह जाते हैं। लाखों की आबादी राहत शिविरों में शरण लेती है। सड़कें, रेल पटरियां पानी के तेज बहाव में बह जाती हैं। बिहार, असम और अन्य राज्यों में इस बार भी बाढ़ की स्थिति काफी गंभीर है। 200 से अधिक लोग जल प्रहार में अपनी जान गंवा चुके हैं। जितना विकास सरकारें करवाती हैं वह हर साल पानी में बह जाता है।
बाढ़ का प्रकोप खत्म होने के बाद जो पुननिर्माण कार्य होते हैं वे प्रायः पुराने ही स्थानों पर हो जाते हैं। कोई वैज्ञानिक परख नहीं की जाती। इसलिये यह क्रम हर वर्ष का दुखद शोकान्तिका बन चुका है। यह समझ से बाहर है कि सरकारें हर वर्ष जान-माल की क्षति तो सहन कर लेती हैं लेकिन बाढ़ के प्रकोप से होने वाली क्षति को कम से कम करने के उपायों पर ध्यान नहीं देतीं। तात्कालिक रूप से सहायता पहुंचाना कठिन होता है लेकिन राहत राशियों की घोषणा कर दी जाती है। मुख्यमंत्री हैलिकाप्टरों से बाढ़ की स्थिति का जायजा लेते हैं।
राहत राशियों के वितरण में 6 से 8 महीने लग जाते हैं, तब तक फिर से दूसरे वर्ष की आपदा का समय आ जाता है। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें जानती हैं कि मानसून के सीजन में हर वर्ष ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों में बाढ़ आती है। बराक नदी का भी यही हाल है। तिब्बत से निकली ब्रह्मपुत्र जल संसाधनों के हिसाब से दुनिया की छठे नम्बर की नदी है। ब्रह्मपुत्र तिब्बत, भारत तथा बंगलादेश से होकर बंगाल की खाड़ी में समुद्र में मिलती है। मानसून सीजन में जब तिब्बत, भूटान, अरुणाचल प्रदेश और ऊपरी असम में तेज वर्षा होती है तो नदियां विकराल रूप धारण कर लेती हैं।
पूरी दुनिया में अधिकतर नदियों से बाढ़ से राहत मिल चुकी है लेकिन भारत में आज भी असम, बिहार आदि राज्यों में नदियां कहर बरपा रही हैं। दरअसल हर वर्ष बाढ़ का आना सरकारी तन्त्र के लिये लूट का उत्सव बन चुका है। हर वर्ष राज्य बाढ़ की त्रासदी से निपटने के लिये केन्द्र से अधिक धनराशि की मांग करते हैं। केन्द्र भी उन्हें खुले दिल से धन देता है। राज्य सरकारें बाढ़ से निपटने के लिये स्थाई समाधान के सम्बन्ध में सोचती नहीं। वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार ही नहीं करतीं। बाढ़ राहत के लिये आये धन की बंदरबांट हो जाती है।
बाढ़ का पानी उतरते ही बाढ़ प्रभावित लोग अपना पेट पालने के लिये रोजमर्रा की जिंदगी शुरू कर देते हैं क्योंकि इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं होता। अनेक लोग भीख मांगने को मजबूर हो जाते हैं। सरकारें भी भूल जाती हैं। कई बार केन्द्र ने बाढ़ नियंत्रण के लिये बोर्ड भी बनाये लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। राज्य सरकारों के पास बाढ़ की विभीषिका रोकने के लिये कोई मास्टरप्लान नहीं, कोई कार्ययोजना नहीं। बाढ़ से पहाड़ी राज्यों में भी नुकसान कम नहीं हो रहा। उत्तराखंड, हिमाचल इसके उदाहरण हैं। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये नदियों के किनारे-किनारे सड़कें, सटे हुये बाजार, होटल, दुकानें, मकान बनाये जाते हैं।
किसी भी नगर या उपनगर को बसाने के लिये 50 वर्षों के विस्तार को ध्यान में रखते हुये योजनायें तैयार की जानी चाहियें लेकिन अनियंत्रित और अनियोजित विकास ने बाढ़ के खतरे को काफी विकराल बना दिया है। अनियोजित विकास के चलते अब तो चेन्नई, मुंबई और अन्य महानगर भी बाढ़ की चपेट में आने लगे हैं। बाढ़ नियंत्रण के लिये नदियों को जोड़ने, बड़ी नदियों पर बांधों का निर्माण, बड़े जलाशयों का निर्माण किया जाना चाहिये। ब्रह्मपुत्र और अन्य नदियों पर बांध बनाने की जरूरत है। नदियों पर तटबंध भी बनाये जाने चाहियें।
इससे जल संचय भी होगा और यह पानी देश के सूखाग्रस्त इलाकों तक पहुंचाने की व्यवस्था भी होनी चाहिये। वैज्ञानिक पद्धतियों और चाक-चौबंद व्यवस्था से ही हम बाढ़ विभीषिका से बच सकते हैं लेकिन सवाल यह है कि ऐसा करेगा कौन। ऐसा तब होगा जब सरकारी तन्त्र का लूट उत्सव बंद होगा।