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राजनीतिक शुचिता के लिए...

राजनीति का अपराधीकरण का मुद्दा हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया था। इस संबंध में देश की शीर्ष अदालत ने दो महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं। बिहार विधानसभा के चुनावों में लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने प्रत्याशियों का आपराधिक विवरण नहीं दिया। पिछले वर्ष फरवरी में अदालत ने कहा था कि राजनीतिक दलों काे समाचारपत्रों और अपनी वेबसाइट पर हर उम्मीदवार का आपराधिक ब्यौरा पेश करना होगा और यह भी बताना होगा कि उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कितने लोगों को उम्मीदवार बनाया है। बिहार विधानसभा चुनावों में अपने उम्मीदवारों का कोई आपराधिक ब्यौरा नहीं देने को सर्वोच्च न्यायालय ने 8 राजनीतिक दलों पर जुर्माना लगाया। अब शीर्ष अदालत ने फैसला दिया है कि अब कोई भी राज्य सरकार ‘अपने’ लोगों के खिलाफ चल रहे केस खुद वापिस नहीं ले सकती। इसके लिए संबंधित राज्य को हाईकोर्ट से अनुमति लेनी होगी। प्रायः देखा गया है कि जब भी कोई भी पार्टी सत्ता में आती है उसकी कोशिश यही होती है कि अपने लोगों को बचाया जाए। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड समेत कई राज्य सरकारों ने अपने आदेश के जरिये आरोपी प्रतिनिधीओ के खिलाफ आपराधिक केस वापिस लिए। कर्नाटक सरकार ने तो 61 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक केस वापिस लिए। राजनीतिक दल जीतने के लालच में गहरी नींद से जागने को तैयार नहीं। लोकतंत्र की शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को कानून का निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इस मामले में अदालत के हाथ बंधे हैं, कानून बनाना सरकार का काम है। सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़ों के अनुसार देशभर की विशेष सीबीआई अदालतों में मौजूदा और पूर्व सांसदों, विधायकों के खिलाफ कुल 151 मामले लम्बित हैं और 58 मामलों में आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है। लगभग एक तिहाई मामलों में केस धीमी गति से आगे बढ़ रहे हैं। 45 मामलों में तो आरोप भी नहीं लगाए गए हैं। सबसे पुराना मामला तो पटना में लम्बित है जहां 12 जून, 2000 को आरोपी के खिलाफ चार्जशीट पेश की गई। 22 वर्ष से मामला लटका हुआ है। ​दही  सत्ता सुख भोग लेते हैं लेकिन लम्बित केसों का फैसला नहीं होता। आज तक हम बाहुबलियों से मुक्त नहीं हुए हैं।

1970 के दशक में राजनीति का अपराधीकरण एक भ्रूण के रूप में शुरू हुआ था और धीरे-धीरे इसने महामारी का रूप धारण कर लिया। नौकरशाही और राजनीतिक नेताओं के बीच अवांछनीय और खतरनाक रिश्तों ने राजनीति के अपराधीकरण का द्वार खोल दिया। भारत राष्ट्र राज्य के महान संस्थापकों ने एक स्वतंत्र नौकरशाही के बारे में सोचा था लेकिन उनका सपना पूरा नहीं हुआ। लोकतांत्रिक देश में हम वोटों के जरिये अपने प्रतिनिधि चुनते हैं जो देश पर शासन करने के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है कि राजनीती के क्षेत्र में प्रवेश करने वाले लोगों की छवि स्पष्ट और उच्च नैतिक मूल्यों वाली हो लेकिन हो इसके विपरीत रहा है। राजनीति में हमने बड़े-बड़े भूमाफिया, बलात्कार के आरोपियों और घोटालेबाजों को देखा है। इनके खिलाफ जांच एजैंसियां निष्पक्ष और ईमानदारी से जांच नहीं कर पाती। यह स्थिति लोगों को चौंकाती नहीं है क्योंकि जब भी ऊंचे लोग फंसते हैं तो कानून व्यवस्था सम्भालने वाली एजैंसियों को ऐसे मामलों को अंजाम तक पहुंचाना आसान नहीं होता। कई बार 20-20 वर्षों तक जांच होती रहती है। अंत में जनप्रतिनिधि साफ बच निकलते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई, 2013 को ऐतिहासिक फैसला देते हुए जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 8 (4) को रद्द करते हुए कानून की धारा 8 (3) के प्रावधानों को लागू किया। इसके तहत किसी भी अपराध के लिए दो वर्ष की कैद से दंडित व्यक्ति के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गई और अपात्रता की अवधि छह वर्ष की गई। इस तरह सजायाफ्ता राजनीतिज्ञों के चुनाव लड़ने पर रोक नहीं अन्यथा कई नेता फिर सांसद या विधायक बन जाते हैं।

राजनीति को साफ-सुथरा बनाने का अभियान तभी सफल होगा जब राजनीतिक दल आपराधिक रूप से दागदार लोगों को चुनाव में प्रत्याशी न बनाएं। राजनीतिक दल दागी नेेताओं को बचाने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं। अगर दंगों, हिंसा और यौन शोषण के आरो​िपयों को बचाया जाता रहा तो फिर  लोकतंत्र का स्वरूप ही बिगड़ जाएगा। बेहतर यही होगा कि दागी नेताओं के मुकद्दमें तय समय में निपटाए जाएं। देश की जनता भी सजग रहे। अपराध में ​लिप्त लाेगों को राजनीति की सीढि़यां चढ़ने ही नहीं देनी चाहिए, इसके​ लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का असर होगा और हम राजनीति के शुद्धिकरण की ओर बढ़ेंगे।