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खुदरा कारोबार में विदेशी स्टोर

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मनमोहन सरकार ने जब 2011 में खुदरा व्यापार में विविध मार्के (मल्टी ब्रांड) का सामान बेचने के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में 51 प्रतिशत से अधिक निवेश की छूट दी थी तो तब भाजपा की नेता साध्वी उमा भारती ने एेलान किया था कि अगर अमरीकी कम्पनी ‘वालमार्ट’ ने अपना स्टोर खोला तो वह उसे आग लगा देंगी। आज की विदेश मन्त्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने कहा था कि वालमार्ट जैसी कम्पनी ने अमरीका तक में तबाही मचा दी है तो भारत में इसका स्वागत किस तरह किया जा सकता है। तब मनमोहन सरकार एकल ब्रांड में भी विदेशी निवेश की छूट देना चाहती थी और उसने ही यह प्रस्ताव किया था कि विदेशी कम्पनियों को अपने खुदरा स्टोरों के माल की सप्लाई का 30 प्रतिशत हिस्सा भारतीय बाजारों और उत्पादकों से ही लेना पड़ेगा तो उसका विरोध राष्ट्रव्यापी हुआ था और जगह-जगह बन्द तथा हड़ताल की गई थी। तब मनमोहन सरकार में वाणिज्य मन्त्री रहे कांग्रेस नेता श्री आनंद शर्मा संसद से लेकर सड़क तक दुहाई देते फिर रहे थे कि विदेशी कम्पनियों द्वारा अपने माल का एक तिहाई हिस्सा भारतीय बाजारों से ही खरीदने की शर्त का भारत पर सकारात्मक असर पड़ेगा और खेती से लेकर दस्तकारी तक से जुड़े लोगों के जीवन में बदलाव आयेगा और रोजगार में भी वृद्धि होगी मगर तब भारत के लोगों ने इस तर्क को ठुकरा दिया था और इसे भारत की अर्थव्यवस्था पर खराब असर डालने वाला और छोटे-छोटे खुदरा दुकानदारों के पेट पर लात मारने वाला कदम कहा था।

पूरे एक सप्ताह संसद में तब कोई कामकाज नहीं हो पाया था। केवल विपक्षी दलों ने ही नहीं बल्कि मनमोहन सरकार में शामिल कुछ सहयोगी दलों ने भी इस कदम का विरोध किया था। बार-बार सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस पर आम सहमति बनाने की कोशिश की गई थी, मगर सरकार इसमें कामयाब नहीं हो पाई थी अतः एकल ब्रांड में विदेशी निवेश के फैसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। तब तर्क दिया गया था कि खुदरा बाजार में विदेशी स्टोर्स खुल जाने से भारत के चार करोड़ के लगभग छोटे दुकानदार बेरोजगारी की कगार पर आकर खड़े हो जायेंगे, उनके धन्धे चौपट हो जायेंगे और भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी। दीगर सवाल यह है कि क्या 2018 में परिस्थितियों में बदलाव आ गया है? इसके साथ ही दूसरा सवाल यह जुड़ा हुआ है कि खुदरा व्यापार में हमें विदेशी स्टोरों की क्यों जरूरत है? हमारे सामने पेप्सी कोला और कोका कोला का उदाहरण है। इन दो ब्राडों ने भारत के शीतल पेय बाजार को इस तरह कब्जा लिया है कि किसी दूसरे घरेलू ब्रांड के लिए कोई जगह ही नहीं बची है।

विदेशी स्टोरों से सबसे बड़ा खतरा यह है कि ये भारतीय उत्पादकों को मालिक से नौकर बनाकर रख देंगे। ये अनुबन्ध पर उत्पादन का जो तरीका अपनाते हैं उससे उत्पादक की हैसियत अपनी शर्तों पर काम करने की न होकर खरीदार की शर्तों पर काम करने की हो जाती है और बाद में धीरे-धीरे वह दासता की तरफ बढ़ जाते हैं परन्तु इसके विपरीत बहुराष्ट्रीय खुदरा स्टोरों के समर्थक कहते हैं कि इससे रोजगार बढ़ने में मदद मिलती है क्योंकि बहुराष्ट्रीय स्टोर ग्रामीण स्तर से लेकर शहरी स्तर तक सप्लायरों और उत्पादकों की शृंखला खड़ी करते हैं लेकिन मौजूदा सरकार ने जो फैसला किया है वह पांच वर्षों तक विदेशी स्टोरों को अपने निर्यात कारोबार में वृद्धि के लिए ही घरेलू बाजार से तीस प्रतिशत माल खरीदने की शर्त लगाता है जबकि पांच साल बाद उन्हें अपनी पूरी खपत का 30 प्रतिशत माल भारत के बाजारों से ही खरीदना पड़ेगा। इस मामले में पिछली मनमोहन सरकार के मुकाबले मोदी सरकार ने और भी ज्यादा दरियादिली दिखाई है। यह बात ध्यान देने वाली है कि मल्टी ब्रांड में सीधे निवेश की जो मंजूरी मनमोहन सरकार ने दी थी वह केवल भारत के बड़े शहरों के लिए दी थी और इसके साथ यह भी स्पष्ट कर दिया था कि प्रत्येक राज्य सरकार को अधिकार होगा कि वह अपनी सीमा में इन स्टोरों को खुलने की इजाजत दे या न दे और अपने राज्य के नियम इन पर लागू करे मगर तब जीएसटी लागू नहीं था। इस नयी कर प्रणाली के लागू होने से राज्यों के राजस्व उगाही के अधिकार जीएसटी परिषद के पास हैं।

खुदरा या परचून कारोबार जीएसटी के दायरे में ही आता है। अतः विदेशी खुदरा स्टोरों के विस्तार पर किस प्रकार का अंकुश लगा रह सकता है? यह देखने वाली बात होगी लेकिन इससे यह भी साफ हो जाना चाहिए कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही पार्टियां अपने-अपने राजनीतिक हिसाब से वे ही नीतियां लागू करना चाहती हैं जिनमें विदेशी निवेश की अधिकाधिक भागीदारी हो। इन नीतियों का विरोध दोनों ही पार्टियां अपने-अपने राजनीतिक नम्बर बढ़ाने की गरज से करती हैं। इसी प्रकार इंडियन एयर लाइंस मंे विदेशी निवेश को 49 प्रतिशत तक छूट देने की घोषणा की गई है। यह मामला भी बरसों से लटक-लटक कर चल रहा था लेकिन देखने वाली बात केवल इतनी सी है कि विदेशी निवेश के मोह में कहीं हम अपनी हैसियत को ही न भूल बैठें। यह सवाल तो वाजिब तौर पर बनता ही है कि फरवरी 2014 में राजस्थान की भाजपा की नई चुनी हुई वसुन्धरा राजे सरकार ने पुरानी कांग्रेसी अशोक गहलोत सरकार का विदेशी कम्पनियों को मल्टी ब्रांड में खुदरा कारोबार करने की इजाजत देने का फैसला क्यों पलटा था? जबकि अब तो एकल ब्रांड में खुदरा कारोबार करने की इजाजत केन्द्र सरकार ने दे दी है!

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