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बिखरे विपक्ष की एकजुटता?

वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में भारत में विपक्षी एकता ‘गूलर के फूल’ की मानिन्द क्यों होती जा रही है? इसका जवाब भी विपक्षी दल ही दे सकते हैं क्योंकि अपने लक्ष्य को लेकर जिस प्रकार की गफलत है उससे इनकी एकता की संभावनाएं क्षीण होती हैं। मसलन तृणमूल कांग्रेस की नेता सुश्री ममता  बनर्जी से लेकर तेलंगाना की भारत राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष  के. चन्द्रशेखर राव और दिल्ली की आम आदमी पार्टी के नेता श्री अरविन्द केजरीवाल और ओडिशा के बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक और आन्ध्र प्रदेश वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगन मोहन रेड्डी तक की चाल विपक्षी एकता के मुद्दे पर अलग-अलग नजर आती है जबकि ये सभी नेता जानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर वे किसी भी सूरत में सत्तारूढ़ भाजपा का विकल्प नहीं बन सकते। बेशक अपने राज्यों में वे भाजपा का  मुकाबला कर सकते हैं परन्तु राष्ट्रीय राजनैतिक सन्दर्भों में उनकी इस एकल लड़ाई का कोई विशेष महत्व नहीं है। दरअसल में  ‘नेतृत्व व अगुवाई’ में अन्तर होता है और ‘एकता व एकजुटता’ में भी अन्तर होता है। अतः यदि सभी विपक्षी दल एक साझा मंच पर आना चाहते हैं तो उन्हें एकजुटता की बात करनी होगी न कि एकता की। एकजुटता में यह विकल्प रहता है कि इसमें शामिल सभी राजनैतिक दल अपना पृथक अस्तित्व बनाये रखते हुए एक साथ आएं और मिलकर आपसी समझ पैदा करके चुनाव लड़ें। 

जाहिर है यह समझ लोकसभा सीटों के सम्मानजनक बंटवारे को लेकर ही हो सकती है मगर यदि इन सभी क्षेत्रीय दलों की आकांक्षा यह होगी कि वे चुनाव आयोग के समक्ष राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त बनें तो यह एकजुटता किसी भी तरह संभव नहीं हो सकती। हाल ही में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति ने अपना नाम बदल कर भारत तेलंगाना समिति किया मगर क्या इससे कोई भी दल राष्ट्रीय रुतबा प्राप्त कर सकता है? मगर दूसरी तरफ किसी पार्टी का नाम राष्ट्रीय बोध कराने वाला होने से भी उसका स्वरूप राष्ट्रीय नहीं हो सकता। इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश की श्री अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी व सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी है। बेशक इन पार्टियों ने उत्तर प्रदेश से बाहर अन्य राज्यों में भी कई बार चुनाव लड़ा और अपने कुछ विधायकों को ये पार्टियां सफल बनाने में भी कामयाब रहीं जिसकी वजह से बहुजन समाज पार्टी को राष्ट्रीय मान्यता भी एक वक्त में मिली मगर कालान्तर में इनका आकार सिकुड़ता चला गया। मूल रूप से ये दोनों ही पार्टियां जातिमूलक मानी जाती हैं। हालांकि इनका वैचारिक दर्शन पिछड़े व दलित समाज को राष्ट्रीय स्तर पर अधिकार सम्पन्न बनाने का है परन्तु इनके जातिबोध का असर हमें केवल उत्तर प्रदेश व उसके साथ लगे  कुछ विशिष्ट इलाकों में ही देखने को मिलता है जिससे भारत की विशाल विविधता के बीच इन पार्टियों का सिमटना लाजिमी था क्योंकि भारत के हर प्रदेश में जातिबोध का चरित्र भी अलग- अलग है। 

दक्षिण भारत के राज्यों में अहीर या यादवों को ‘नन्दगोपाल’ कहा जाता है और उत्तर भारत तक के हरियाणा राज्य में इन्हें ‘राव’ जैसे उपाधिमूलक उपनामों से पुकारा जाता है जबकि बिहार में ग्वाला कह दिया जाता है। अतः जातिमूलक बोध भी भारत के अलग-अलग राज्यों में एक समान चेतना जागृत करने में असमर्थ रहते हैं। साथ ही इसकी दूसरी वजह यह भी है कि प्रत्येक राज्य की सामाजिक व सांस्कृतिक बनावट व चेतना के भी अलग-अलग स्वरूप होते हैं। अतः इसमें संशय नहीं होना चाहिए कि इस प्रकार के क्षेत्रीय दलों की कोई अहम राष्ट्रीय भूमिका हो सकती है। इसके लिए व्यापक अर्थों में व्यावसायिक मूलक पहचान को जोड़ने की जरूरत है जैसा कि स्व. चौधरी चरण सिंह ने अपनी भारतीय लोकदल पार्टी 1974 में बनाकर किया था। उन्होंने राजनीति में ग्रामीण समाज की पहचान को प्रतिष्ठापित करते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सभी अंगों को परिपूरित करने वाले सभी सामाजिक वर्गों की एकता स्थापित करने का काम किया था। चौधरी चरण सिंह जैसा विशाल व्यक्तित्व और चेतना बोध व लोक स्वीकार्यता न तो आज किसी ग्रामीण पृष्ठभूमि के नेता के पास है और न उन जैसा गांधीवादी वैचारिक दर्शन व सोच है। अतः अधिसंख्य विपक्षी दलों की यह मजबूरी हो सकती है कि वे किसी ऐसे दल की छत्रछाया में एकजुट हों जो गांधीवादी सोच के छाते में वर्तमान राजनीति में ठोस विमर्श या बयानियां सतह पर ला सके। जाहिर है कि ऐसी पार्टी  विपक्ष में केवल कांग्रेस ही बची है जो विभिन्न विचारधारा वाले दलों को एकजुट कर सकती है। आज त्रिपुरा और प. बंगाल में कांग्रेस व वामपंथी दलों की एकजुटता की जो राजनैतिक आलोचना हो रही है वह कांग्रेस पार्टी के इतिहास से मेल नहीं खाती है। स्वतन्त्रता से पूर्व कांग्रेस पार्टी के अखिल भारतीय सम्मेलनों में वहां एकत्र हुए कार्यकर्ताओं या डेलीगेटों को नेतागण ‘कामरेड’  कह कर ही सम्बोधित किया करते थे।  जबकि स्वतन्त्रता मिलने पर प्रधानमन्त्री की हैसियत से पं. जवाहर लाल नेहरू ने ही कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगाया था जिसकी वजह उनका हिसंक माध्यमों को भी सत्ता परिवर्तन के लिए जायज माना जाना था। जब कम्युनिस्टों ने भारतीय संविधान के तहत संसदीय चुनाव प्रणाली को सत्ता परिवर्तन का एकमात्र अहिंसक जरिया मान लिया तो प्रतिबन्ध हटा दिया गया। अतः वर्तमान में विपक्षी एकता में यदि कोई बाधा है तो वह विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षा और खुदगर्जी है।