लोकतान्त्रिक व्यवस्था में स्वास्थ्य व शिक्षा ऐसे क्षेत्र होते हैं जिनकी पूरी जिम्मेदारी चुनी हुई सरकारों की ही होती है। भारत के संविधान में जिस ‘लोक कल्याणकारी राज’ की स्थापना की कल्पना की गई है उसके मूल में यही सिद्धान्त है कि लोगों द्वारा चुनी गई सरकार का यह प्राथमिक दायित्व होगा कि प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएं उसकी पहुंच के भीतर सुलभ कराई जायें। प्रत्येक गरीब से गरीब नागरिक की शिक्षा व स्वास्थ्य की गारंटी देना राज का ही काम है क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों में किया गया सरकारी निवेश ऐसा दीर्घकालीन स्थायी निवेश होता है जिससे देश के चहुंमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। केवल शिक्षित व स्वस्थ नागरिक ही देश की सेवा के किसी भी काम में अपनी भूमिका को प्रभावी ढंग से निभा सकता है। इसी वजह से भारत की संसद ने ‘शिक्षा के अधिकार’ का कानून 2012 में जाकर बनाया था जिसके तहत भारत में जन्म लेने वाले प्रत्येक बालक को 14 वर्ष की आयु तक मुफ्त शिक्षा पाने का अधिकार मिला। इसे राइट टू एजुकेशन कहा गया। इसी प्रकार भारत में साठ के दशक से ही मांग होती रही है कि नागरिकों को राइट टू हेल्थ भी दिया जाये जिससे भारत के प्रत्येक गरीब नागरिक के स्वास्थ्य की समुचित देखभाल हो सके।
यह देश गांधी का देश है और महात्मा गांधी ने आजादी से पहले ही अपने अखबार हरिजन में लेख लिख कर एकाधिक बार एेलान किया था कि लोकतन्त्र में जो सरकार अपने लोगों की दैनिक आवश्यकताओं से लेकर स्वास्थ्य व शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर पाती वह सरकार नहीं होती बल्कि अराजक तत्वों का जमघट होती है। आज दुनिया भर में गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त पर चर्चा होती है तो हम भूल जाते हैं कि गांधी का सबसे बड़ा सिद्धान्त ‘मानव सम्मानवाद’ था। गांधी मानव के सम्मान को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे और अपने आजादी के आंदोलन में भी उन्होंने इस विचार को सबसे ऊंचे पायदान पर रखा जिसका अक्स हमें भारत के संविधान में साफ दिखाई पड़ता है। नागरिक के सम्मान व उसकी निजी स्वतन्त्रता की कीमत पर भारत के पूरे संविधान में लोकतन्त्र की स्थापना को कहीं भी प्रतिष्ठापित नहीं किया गया है। स्वास्थ्य के अधिकार का मामला भी यहीं जाकर जुड़ता है और राजस्थान की अशोक गहलौत सरकार ने इस सन्दर्भ में पूरे देश में पहल करके जो ऐतिहासिक काम किया है वह अन्य राज्य सरकारों के लिए आने वाले समय में एक नजीर की तरह काम करता रहेगा और उन्हें लोक कल्याण की तरफ प्रेरित करता रहेगा।
बेशक 1991 से भारत की आर्थिक नीति में बदलाव आने के बाद से लोकल्याणकारी राज के विचार को झटका लगा है परन्तु इस व्यवस्था के बीच भी एेसे उपाय खोजे जा सकते हैं जिनसे गरीब जनता के सुखी जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त हो सके। यह तो हकीकत है कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू होने के बाद स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे आधारभूत क्षेत्र भी बाजार की ताकतों या कार्पोरेट क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिये गये और ये क्षेत्र देखते ही देखते अधिकाधिक मुनाफा कमाने के व्यापार में तब्दील हो गये। इस व्यवस्था में गरीब आदमी के बीमार पड़ने को भी लाभ कमाने का जरिया बना दिया गया। जबकि भारतीय संस्कृति में शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र एेसे होते थे जिनमें सेवा करना ही परम पुण्य कमाने का जरिया होता था। मगर ये सेवा क्षेत्र तिजारत में बदलते गये और गरीब आदमी की हिम्मत किसी डाक्टर के पास जाकर इलाज कराने की समाप्त होती गई। श्री गहलौत ने अपने राज्य के प्रत्येक नागरिक की चिकित्सा कराने की जिम्मेदारी सरकार के कन्धों पर डाल कर सिद्ध किया है कि राजस्व के स्रोतों पर पहला अधिकार गरीब आदमी का ही होता है और लोकतन्त्र में यह तभी संभव हो सकता है जबकि सरकार अपनी जिम्मदारी किसी दूसरे के कन्धों पर न डाले। इस नीति से सरकारी क्षेत्र में न केवल कारगर स्वास्थ्य व चिकित्सा तन्त्र का विकास होगा बल्कि हजारों लोगों को सरकारी नौकरियां भी मिलेंगी। इन सबसे ऊपर लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार गरीब से गरीब आदमी के प्रति सीधे जवाबदेह बनेगी।
भारत के लोकतन्त्र को सहभागी लोकतन्त्र इसीलिए कहा जाता है जिससे आर्थिक व सामाजिक रूप से सबसे अन्तिम पायदान पर खड़े नागरिक को भी आभास हो सके कि उसके एक वोट से चुनी हुई सरकार में उसकी भी भागीदारी है और सरकार उसके प्रति भी जवाबदेह है। राजस्थान विधानसभा में जो स्वास्थ्य के अधिकार का विधेयक पारित किया गया है उसमें प्रावधान है कि पूरे प्रदेश के किसी भी सरकारी अस्पताल में किसी भी नागरिक का शुरू से लेकर आखिर तक मुफ्त इलाज होगा । इसके साथ ही कुछ निजी बड़े अस्पतालों को भी चिन्हित किया गया है जहां नागरिक अपनी चिकित्सा के लिए जा सकेंगे। इसमें इलाज का जितना भी खर्चा आयेगा उसकी भरपाई सरकार करेगी। मगर सबसे बड़ा सवाल स्वास्थ्य को अधिकार के रूप में स्वीकार करने का है। लोकतन्त्र का यह परम सिद्धान्त होता है कि इसमें नागरिकों को जो भी सुविधाएं मिलती हैं वे देर से तो मिल सकती हैं परन्तु जो भी मिलती हैं वे उनके संवैधानिक या कानूनी अधिकारों के रूप में मिलती हैं। जबकि अन्य व्यवस्थाओं में ये सुविधाएं शासकों की कृपा से मिलती हैं। गांधी ने अपने लोकतन्त्र के सिद्धान्त में इस मुद्दे पर भी विशेष प्रकाश डाला था और कहा था कि लोकतन्त्र में नागरिक जितने मजबूत और सशक्त होंगे उतना ही लोकतन्त्र भी मजबूत होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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