सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत से जो फैसला दिया है कि सरकार के किसी मन्त्री के व्यक्तिगत बयान पर सामूहिक मन्त्रिमंडलीय जिम्मेदारी के सिद्धान्त को आंख मीच कर लागू नहीं किया जा सकता है, कई मायनों में ऐसे सवाल खड़े करने वाला है जिनसे लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली के स्वीकार्य नियमों के बारे में नये सवाल खड़े हो सकते हैं परन्तु भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के जिस मौलिक अधिकार को स्वीकार किया गया है उसे देखते हुए यह फैसला सार्वजनिक जीवन के कई ऐसे पक्षों पर नये सिरे से विचार करने के लिए बाध्य करता है, जिन्हें लेकर अक्सर मन्त्रियों द्वारा व्यक्त विचारों को सरकार के विचार के रूप में देखा जाता है और इनकी आलोचना भी होती है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक पेंच खड़ा किया है कि सरकार के फैसलों के बारे में मन्त्री जो वैयक्तिक बयान देते हैं उसे सामूहिक जिम्मेदारी की श्रेणी में डाला जा सकता है परन्तु जो बयान वे व्यक्तिगत तौर पर देते हैं उसे सरकारी नीति का अंग नहीं माना जा सकता। क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार है। इस पर अंकुश केवल संविधान के 19(2) अनुच्छेद में निहित प्रावधानों के तहत ही लग सकता है जो भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता आदि को लेकर हैं। मगर संविधान की पीठ की न्यायमूर्ति श्रीमती बी.वी. नागरत्ना ने इस फैसले से अलग अपना फैसला देते हुए कहा है कि सरकार में रहते हुए किसी मन्त्री का नागरिकों के बीच घृणा फैलाने वाला बयान अलग श्रेणी में रखने की जरूरत है और इसके लिए संसद को पृथक कानून बनाना चाहिए। हालांकि उन्होंने भी माना है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अतिरिक्त अंकुश नहीं लगाया जा सकता है।
मूल सवाल यह है कि सरकार में जिम्मेदार मन्त्री पद पर रहते हुए किसी व्यक्ति का संवैधानिक व नैतिक दायित्व क्या रहता है? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीधा सम्बन्ध क्या इस दायित्व से होता है अथवा नहीं? जाहिर तौर पर प्रत्येक मन्त्री मन्त्रिमंडल के फैसले से बन्धा होता है क्योंकि जो भी फैसला किया जाता है उसे सर्वसम्मत समझा जाता है। संसद के भीतर मन्त्री जो भी वक्तव्य देता है उसे सरकार की नीति व उसका फैसला समझा जाता है, मगर संसद से बाहर जब वह विभिन्न विषयों पर अपनी राय व्यक्त करता है तो संविधान पीठ के बहुमत की राय में सरकार की नीति नहीं कहा जा सकता क्योंकि मन्त्री अपनी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार का उपयोग करता है। यह सवाल दीगर है कि इस अधिकार की सीमाएं क्या हो सकती हैं? क्या इस अधिकार का प्रयोग नागरिकों के बीच घृणा फैलाने तक हो सकता है? यह सवाल न्यायमूर्ति नागरत्ना ने खड़ा किया है।
हमें याद रखना होगा कि भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू देश के प्रथम लोकसभा चुनावों से पहले जब संविधान में पहला संशोधन लाये थे तो वह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अनुच्छेद के मुतल्लिक ही था। उनके इस प्रस्ताव का तब कानून मन्त्री पद पर आसीन बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी समर्थन किया था और कहा था कि विचार व्यक्त करने की आजादी के ‘रौ’ में वह यह भूल ही गये थे कि लोकतान्त्रिक भारत में हिंसक या वैमनस्य पैदा करने के विचारों के प्रतिपादन की आजादी देश की एकता व अखंडता के सूत्र पर आघात कर सकती है। अतः पं. नेहरू ने पहला संशोधन करके लाजिमी कर दिया था कि केवल अहिंसक विचारों के प्रतिपादन की छूट ही स्वतन्त्र भारत में होगी और इस संशोधन के बाद ही भारत के कम्युनिस्टों ने देश की संसदीय प्रणाली और संविधान के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी। जबकि इस पहले संशोधन को हिन्दू महासभा ने पीयूसीएल संस्था के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी जिसे अस्वीकार कर दिया गया था। अतः वर्तमान में पूरे मामले पर गंभीर विचार करते हुए हमें ऐतिहासिक तथ्यों की तरफ भी ध्यान देना होगा। इसके साथ यह भी विचारणीय विषय है कि एक मन्त्री की संसद के बाहर होने पर हैसियत नहीं बदलती है और वह सरकार का अंग ही रहता है। लेकिन यह भी सत्य है कि एक मन्त्री भी स्वतन्त्र भारत का सबसे पहले नागरिक ही होता है और उसके पास वे सभी अधिकार भी होते हैं जो संविधान एक सामान्य नागरिक को देता है। इसे देखते हुए संविधान पीठ का बहुमत का फैसला नागरिकों के मूल अधिकारों का पोषक लगता है मगर सरकार की जिम्मेदारी विवेचना में मन्त्री व सामान्य नागरिक के तकनीकी भेद को समाप्त करता भी लगता है।
संसदीय व्यवस्था के स्वीकार्य सिद्धान्त के अनुसार मन्त्रिमंडल का प्रत्येक सदस्य सरकार की सामूहिकता के नियम से बन्धा होता है । यह सामूहिक जिम्मेदारी जब व्यक्तिगत स्तर पर उतरती है तो संसद से बाहर मन्त्री एक नागरिक के रूप में अपने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार का प्रयोग करने के लिए स्वतन्त्र होता है परन्तु उस पर भी अनुच्छेद 19(2) के विचारों की अभिव्यक्ति पर अंकुश के वे प्रावधान लागू होते हैं जो सामान्य नागरिकों या सार्वजनिक जीवन में संलग्न अन्य व्यक्तियों पर लागू होते हैं तो घृणा मूलक विचारों के प्रसार पर अंकुश स्वतः लग जाता है। इस सन्दर्भ में भारत की दंड संहिता की विभिन्न धाराएं लागू होती हैं जिससे मन्त्री अपने सरकारी औहदे के विशेषाधिकार खो देता है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ चुका है कि घृणा फैलाने वाले वक्तव्यों का संज्ञान प्रशासन को स्वयमेव लेकर उन पर यथोचित कार्रवाई करनी चाहिए। इसके बाद देश का कानून अपना कार्य करता है जो एक मन्त्री से लेकर सन्तरी के लिए बराबर होता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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