आज देश में हर तरफ उन्मादी भीड़ दिखाई देती है। भीड़ खुद सड़क पर ‘इंसाफ’ करने लगी है। ऐसे हमलों से पीडि़त समुदाय और उत्तेजित हो रहा है। रिवर्स विक्टिमहुड यानी जो हिंसा कर रहे हैं, वह खुद को विक्टिम यानी पीडि़त बताते हैं। कई तरह के कुतर्कों का सहारा लेते हैं और खुद को जस्टीफाई करने की कोशिश करते हैं। किसी भी व्यक्ति से मारपीट या हत्या करना उन्हें जायज लगता है। देशभर में मॉब लिंचिंग की घटनाएं सभ्य कहे जाने वाले समाज की अच्छी तस्वीर नहीं बनाती। भीड़ द्वारा झटपट न्याय करना कानून व्यवस्था से लोगों का भरोसा टूटना भी जाहिर करता है। इस अराजकता का शिकार खुद पुलिस और हर वर्ग के लोग हुए हैं।
राजस्थान के नागौर में एक दुपहिया वाहन के शोरूम में कुछ लोगों ने दो दलित युवकों पर चोरी का आरोप लगाया और उनकी बर्बरता से पिटाई कर दी। इस घटना का शर्मनाक पहलु यह है कि एक युवक के गुप्तांग में पेचकस और पैट्रोल डाला गया। उससे भी शर्मनाक पहलु यह है कि लोग तमाशाई बन का देखते रहे और वीडियो बनाते रहे। अगर वीडियो वायरल न होता तो यह मामला दब जाता और पीडि़त भी अपनी जुबां बंद कर लेते। अगर दलित युवकों ने चोरी की थी तो उन्हें पुलिस के हवाले किया जाना चाहिए था। दरअसल राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सामंतवाद का प्रभाव कायम है। आज भी ऊंची जातियों के लोग अपना वर्चस्व बनाए रखने के इच्छुक हैं। दलित युवकों से मारपीट की वजह यह भी है कि वह समाज के कमजोर वर्ग से आते हैं और उन पर अत्याचार किया जा सकता है क्योंकि समाज में दबंगों ने अपना दबदबा कायम रखना है। सवाल यह है कि ऐसी घटनाएं दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ ही क्यों होती हैं?
सुप्रीम कोर्ट की संविधान खंडपीठ ने 17 जुलाई, 2018 को अपने फैसले में कहा था कि इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि राज्यों में जिन प्राधिकरणों की कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है उनका यह सुनिश्चित करना प्रमुख कर्त्तव्य है। कोई प्रमुख गुट किसी प्रकार के विचार के साथ कानून अपने हाथ में लेता है ताे उसका नतीजा अराजकता, गड़बड़ी, अव्यवस्था के रूप में निकलता है और आखिरकार समाज हिंसक बन जाता है। फैसले में यह शब्द भी था कि मॉब लिंचिंग कानून के शासन और स्वयं सविंधान के उच्च मूल्यों का तिरस्कार व अपमान है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि घृणा, अपराध, असहिष्णुता और वैचारिक प्रबलता को पूर्वाग्रह के उत्पाद के रूप में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए, वर्ना इसका परिणाम आतंक के रूप में सामने आएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए विभिन्न दिशा-निर्देश निर्धारित किए थे। जीवन का अधिकार मौलिक अधिकार है, जिसकी सुरक्षा करना कार्यपालिका और न्यायपालिका सहित राज्य की जिम्मेदारी है लेकिन प्रायः यह देखने को मिलता है कि अधिकतर मामलों में दोषियों को सजा नहीं मिलती, अगर मिलती है तो बहुत कम। नतीजन एकदम साफ मामलों में आरोपी कुछ समय बाद छूट जाते हैं जैसा कि पहलु खान लिंचिंग मामले में हुआ था। सभी आरोपी बरी कर दिए गए थे। झारखंड हाईकोर्ट द्वारा रामगढ़ लिंचिंग केस, इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा बुलंदशहर लिंचिंग केस, सत्र न्यायालय द्वारा हापुड़ केस में जो जमानत के आदेश पारित किए गए वह गम्भीर अपराधों के प्रति न्यायिक व्यवस्था पर गम्भीर सवाल खड़े करते रहे हैं।
ऐसे फैसलों से कानून का खौफ पैदा नहीं होता बल्कि डर खत्म हो जाता है। अगर भीड़ किसी पर इतनी बर्बरता करती है तो उसको साहस भी ऐसे फैसलों से मिलता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दलित समुदाय काफी लम्बे समय से अत्याचार, शोषण, प्रताड़ना और हिंसा का आसान शिकार बना है। ग्रामीण क्षेत्रों में जातीय समूहों का उभरना कोई नया नहीं है। इसके पीछे भी सियासत है और वोट बैंक की राजनीति है। जातीय समूहों को राजनीतिक दल संरक्षण देते हैं। बड़ी विडम्बना तो यह है कि दलित समुदाय के वोट लेकर कुछ राजनीतिक दल शक्तिशाली और सुविधा सम्पन्न हो रहे हैं लेकिन दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा आज भी अपमानित हो रहा है।
दलित तबकों की सुरक्षा के लिए कानून है तो फिर ऐसी घटनाएं क्यों नहीं रुक रही। किसी भी हमले को इसलिए उचित नहीं ठहराया जा सकता कि पीड़ित एक खास समुदाय से है। अकेले कानूनों से काम नहीं चलेगा। सामाजिक समूहों को समाज को संवेदनशील बनाने और कानून व्यवस्था के प्रति जिम्मेदारी की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए काम करना होगा। ऐसा लगता है कि भीड़ की अराजकता को सामाजिक मान्यता मिल गई है। हिंसा जैसे कार्यों को नायकत्व की श्रेणी में रखा जाता है। आखिर इस सोच में परिवर्तन कब होगा? अगर इस मानसिकता को बदला नहीं गया तो समाज के लिए बहुत गम्भीर समस्या खड़ी हो जाएगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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