भारत और पाकिस्तान के आपसी सम्बन्धों की समीक्षा हम अक्सर दोनों मुल्कों में चल रही सियासत के मिजाज को देख कर ही करते हैं परन्तु कभी-कभी ऐसी खबरें भी पाकिस्तान से आ जाती हैं जिनसे दोनों मुल्कों की वह सांस्कृतिक (सखावत) व सामाजिक चेतना इस उपमहाद्वीप की साझी विरासत की रोशन मीनारों को और चमकदार बना देती हैं। बहुत दिन नहीं हुए जब पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमन्त्री इमरान खान की गिरफ्तारी को लेकर उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ और पुलिस के बीच झड़पें चल रही थीं तो पाकिस्तानी टीवी चैनलों पर इसके नजारे सीधे दिखाये जा रहे थे और बताया जा रहा था कि तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के कारकुन ‘धर्मपुरा चौक’ पर किस तरह पहुंच रहे हैं और ‘सुन्दरदास रोड’ को उन्होंने इमरान खान के आवास तक पहुंची पुलिस से मुकाबला करने का जरिया बनाया हुआ है। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि पाकिस्तान के बनने के 74 साल बाद भी लाहौर से इस मुल्क के इस्लामी हुक्मरान इंसानियत के वे पुख्ता निशान नहीं मिटा सके हैं जिन्होंने 1947 से पहले लाहौर को पूरे हिन्दोस्तान का सबसे आधुनिक व तरक्कीयाफ्ता शहर बनाया था। हिन्दू व सिख साहेबान के लाहौर को अजीम शहर बनाने में दिये गये योगदान की तफ्सील में जाने का यह वक्त नहीं है मगर इतना बताना लाजिम बनता है कि आज के पाकिस्तान की कहानी ऐसे लोगों के बिना अधूरी ही रहेगी।
अपने मुल्क की इस खासियत को आज के दौर में पहचानने की जो कोशिश इस मुल्क के वजीरे आजाम व सदर रहे मरहूम जुल्फिकार अली भुट्टो की पोती ‘फातिमा भुट्टो’ ने जिस दरियादिली और मजहब के ठेकेदार मुल्ला-मौलवियों को उनकी हैसियत जताते हुए की है उसका एहतराम सिर्फ पाकिस्तान और हिन्दोस्तान की रोशन ख्याल अवाम को दिल की गहराइयों से करना चाहिए क्योंकि जनता के स्तर पर एेसी गतिविधियों से भी दोनों मुल्कों की अवाम के बीच प्यार-मुहब्बत का वह इंसानी जज्बा रिश्तों का तार बन सकता है जिसे पाकिस्तान के हुक्मरानों ने जबर्दस्ती दबा कर रखा हुआ है। पिछली 27 अप्रैल को फातिमा भुट्टो ने ग्राहम जिव्हान के साथ निकाह किया। वह कराची के क्लिफटन रोड पर रहती है। अपने निकाह के अगले दिन बीते रविवार को वह अपने पति के साथ कराची के प्राचीन महादेव मन्दिर में गईं और हिन्दू समाज की उपस्थिति में उन्होंने मन्दिर में श्रद्धा के साथ पूजा-अर्चना की औऱ भगवान शंकर को दूध भी चढ़ाया। इस्लामी कट्टरपंथी मुल्ला इसे बेशक ‘शिर्क’ कह सकते हैं मगर फातिमा ने पाकिस्तान के पंजाब व सिन्ध आदि सूबों की उसी संस्कृति का पालन किया जो इसके तामीर होने से पहले इस पूरे पश्चिमी भारत की संस्कृति थी।
यह ऐतिहासिक सच है कि 19वीं सदी के आखीर तक पूरे पंजाब, सिन्ध, उत्तर-पश्चिम सीमान्त राज्य (खैबर पख्तूनवा) में किसी व्यक्ति का हिन्दू-मुसलमान होना सिर्फ एक पारिवारिक व प्राकृतिक घटना होती थी। दोनों मजहबों के लोग सभी तीज- त्यौहारों को मिलकर इस तरह मनाते थे कि वे सिर्फ पंजाबी या सिन्धी कहलाया करते थे। इनकी वेषभूषा, खान-पान और भाषा एक समान होती थी और यहां तक कि सामाजिक रवायतें भी एक समान होती थीं। मुस्लिम ब्याह-शादियां भी उसी रस्मो-रिवाज औऱ बाजे-गाजे के साथ हुआ करती थीं जिस तरह हिन्दू शादियां होती हैं। इसके निशान अभी तक पाकिस्तान में मौजूद हैं। पंजाब में आज भी किसी मुस्लिम दुल्हन का साज-शृंगार तभी पूर्ण माना जाता है जब तक कि उसे ‘केसरिया चुन्नी’ न चढ़ा दी जाये। जाट, राजपूत या गुर्जर होने का ‘ताब’ मुस्लिम समाज वही होता है जो भारत के हिन्दू समाज में है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो यह कहावत आज भी है कि ‘जाट का हिन्दू क्या और मेव का मुसलमान क्या’। यदि इतिहास में और पीछे चले जायें तो पूरे संयुक्त पंजाब में गुरु गोरखनाथ का ‘नाथ सम्प्रदाय’ इस हद तक लोकप्रिय था कि जन्म से कोई भी मुसलमान जब चाहे नाथ सम्प्रदाय का जोगी हो जाया करता था और कोई भी हिन्दू किसी भी मुस्लिम पीर या फकीर का मुरीद। इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि पंजाब की अद्भुत प्रेम कहानी का नायक रांझा अपनी प्रेयसी हीर के वियोग में उसे पाने के िलए स्वयं नाथ सम्प्रदाय का जोगी बन गया था। पूरे पाकिस्तानी पंजाब में आज भी नाथ सम्प्रदाय के जोगियों की निर्जन तपस्थलियां बिखरी हुई पड़ी हैं। एक तथ्य और भी महत्वपूर्ण है कि पंजाब व सिन्ध आदि के इलाके में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग गाैमांस भी नहीं खाते थे। बारत में गाैमांस का प्रचलन 1779 के करीब बंगाल का राज लेने के बाद लार्ड क्लाइव के जमाने में अंग्रेज फौजियों के लिए शुरु कराया गया था। तभी बंगाल में पहला बूचड़खाना भी बना था।
बात बहुत लम्बी हो जायेगी यदि आजादी से पहले के पाकिस्तान की सांस्कृतिक व सामाजिक रवायतों का बखान किया जाये मगर इतना बताना ही काफी है कि पंजाब व सिन्ध के इलाकों में आज भी गजब की नक्काशी से भरे जैन मन्दिर मौजूद हैं। नाथ जोगी जब ‘अलख निरंजन” की जाग लगाया करते थे तो हर हिन्दू-मुसलमान उनका इश्तेकबाल किया करता था यही वजह है कि नाथ सम्प्रदाय में मुस्लिम भी हुआ करते थे। जहां तक अन्तर धार्मिक विवाहों का प्रश्न है तो इतिहास ही हमें बताता है कि अकबर के शासन काल में इनकी शुरुआत बिना किसी भेदभाव के हुई और जहांगीर के शासनकाल में यह प्रथा सामान्य प्रचलन में आ गई थी मगर शाहजहां के शासन में इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जबकि शाहजहां की मां एक हिन्दू रानी ही थी। दरअसल पंजाब-सिन्ध आदि क्षेत्रों में उन सभी देव स्थानों या पीर-फकीरों की मजारों पर शीश झुका कर आशीर्वाद लेने की प्रथा थी जिनकी उन क्षेत्रों में मान्यता होती थी। इसमें हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद नहीं था। फातिमा भुट्टो ने अपनी मिट्टी की उस महान संस्कृति का पालन करके नजीर पेश की है। फातिमा खुद में बहुत दानिशवर और तालीम याफ्ता महिला हैं मगर बकौल उनके सियासत ने उनके पिता स्व. मुर्तजा भुट्टो के साथ न्याय किया और न उनके। फातिमा की बुआ के बेटे पाकिस्तान के विदेश मन्त्री बिलावल भुट्टो अगले दिनों गोवा आने वाले हैं। हुजूर कुछ दोनों मुल्कों की साझा रवायतों पर भी रोशनी डाल दें ।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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