बाबरी मस्जिद विध्वंस मुकदमे में सीबीआई द्वारा अभियुक्त बनाये गये सभी 32 आरोपी विशेष अदालत द्वारा बरी कर दिये जाने के बाद अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद से सम्बन्धित सभी प्रकार के मुकदमों का निपटारा हो गया है। अतः अब पूरे देश को आगे की तरफ देखना चाहिए और समाज में पूर्ण शान्ति व भाईचारा बनाये रखने के प्रयासों पर बल देना चाहिए। स्वतन्त्र भारत का अयोध्या प्रकरण इसलिए अनोखा कहलाया जायेगा कि इससे जुड़े सभी मुकदमों में हर स्तर पर सरकार में शामिल लोग ही कहीं न कहीं आरोपी रहे। 6 दिसम्बर, 1992 को जब अयोध्या में विवादास्पद बाबरी मस्जिद ढहाई गई तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री पद पर श्री कल्याण सिंह विराजमान थे और जब बाद में सीबीआई की विशेष अदालत का गठन करके इससे जुड़े मुकदमे को शुरू किया गया तो केन्द्र में गृहमन्त्री व उप प्रधानमन्त्री के पद पर श्री लालकृष्ण अडवानी विराजमान थे। उनके साथ ही केन्द्र की सरकार में कैबिनेट मन्त्री के पद पर डा. मुरली मनोहर जोशी व सुश्री उमा भारती भी मौजूद थीं।
यह भी पहला अवसर भारत में आया जबकि अयोध्या मामले में सीबीआई द्वारा चार्जशीट किये गये तीन व्यक्ति केन्द्र की सरकार में शामिल थे और सरकार ही उन पर मुकदमा चला रही थी। इस हकीकत को लेकर 1992 के बाद से अब तक केन्द्र व उत्तर प्रदेश की सरकारों में फेरबदल होते रहने के साथ ही ऐसे राजनीतिक सवाल भी खड़े हुए जिनका सम्बन्ध संवैधानिक मर्यादाओं और नैतिकता से था परन्तु श्री राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन को मिले व्यापक जनसमर्थन को देखते हुए इनकी तह में जाने से हर सरकार हिचकिचाती रही। बाबरी मस्जिद विध्वंस मुकदमे में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या इसे ढहाने के लिए किसी प्रकार की आपराधिक साजिश रची गई? सीबीआई ने इस बारे में अपनी चार्ज शीट में भारतीय दंड संहिता की धारा 120(बी) लगा कर जिस प्रकार 32 व्यक्तियों को अभियुक्त बनाया उसे विशेष अदालत ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि उनके विरुद्ध पर्याप्त ठोस सबूत नहीं पाये गये जिससे यह साबित हो सके कि बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए पहले से ही कोई षड्यन्त्र रचा गया था। इन सभी पर दो समुदायों के बीच में रंजिश पैदा करने के आरोप भी थे।
अदालत ने पाया कि बाबरी मस्जिद को ढहाने का कार्य कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा किया गया जिन पर किसी का नियन्त्रण नहीं था। चूंकि अभियुक्त बनाये गये सभी नेता किसी एक विशेष राजनीतिक दल (भाजपा) या उससे अभिप्रेरित विचारधारा के समर्थक थे और एक ही समुदाय से सम्बन्ध रखते थे अतः पूरा मामला साम्प्रदायिक रंग में भी रंग कर देखा गया। मगर भारत संविधान या कानून से चलने वाला देश है जिसमें सरकार की जिम्मेदारी संविधान के प्रति ही होती है। अतः भाजपा की सरकारें काबिज होने के बावजूद यह मुकदमा चलता रहा और घटना के 28 वर्ष बीत जाने के बावजूद कानून अपना काम करता रहा। चूंकि 6 दिसम्बर, 1992 को ऐसा अपराध हुआ था जिसकी इजाजत भारत का कानून नहीं देता था अतः कानूनी प्रक्रिया बदस्तूर चलती रही। इस मुकदमे में अभियुक्त बनाये गये हर छोटे-बड़े नेता के बरी हो जाने के बाद उनकी प्रसन्नता स्वाभाविक है और उसका ज्यादा महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ढहाई गई बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मन्दिर निर्माण का आदेश दिये जाने के बावजूद सीबीआई की विशेष अदालत में इसे ढहाने का मुकदमा बाकायदा चलता रहा जिससे अपराध का संज्ञान किसी भी तरह छूट न पाये। यही भारत की वह विशेषता है जिसके तहत इसके बारे में कहा जाता है कि यह कानून से चलने वाला देश है। जाहिर इस फैसले के राजनीतिक प्रभाव होंगे क्योंकि राम जन्मभूमि आन्दोलन मूल रूप से भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण अडवानी ने ही राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया था। अतः कुछ राजनीतिक दल यह मांग कर सकते हैं कि सीबीआई को विशेष अदालत के फैसले के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील करनी चाहिए परन्तु अब इसकी कोई सार्थकता नहीं है क्योंकि 6 दिसम्बर, 1992 को हुए इस कांड के साथ ही तत्कालीन केन्द्र की नरसिम्हा राव सरकार ने यह आदेश जारी कर दिया था कि भारत में सभी धार्मिक स्थलों की स्थिति वही रहेगी जो 15 अगस्त 1947 को अर्ध रात्रि के समय थी। मथुरा की अदालत ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि के संबंध में याचिका आज खारिज कर दी है।
इस बारे में देश की निचली अदालतों को भी पूरी तरह सावधान होकर काम करना होगा क्योंकि अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का मामला मूल रूप से भूमि के मालिकाना हक के मुकदमें से जुड़ा था। जिस पर दो सम्प्रदायों के लोग अपना-अपना हक जता रहे थे। अतः भारत को अब भविष्य को उज्ज्वल बनाने की चिन्ता करनी चाहिए और हिन्दू व मुसलमान दोनों को मिलकर देश के नव निर्माण में जुट जाना चाहिए और यह याद रखना चाहिए कि ‘बीती ताहि बिसार के आगे की सुधि लेय’ अब पूरे देश को सृजन की राजनीति के बारे में सोचना चाहिए।