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‘रब्बात’ से ‘अबूधाबी’ तक

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दुनिया के मुस्लिम देशों के सम्मेलन में भारत को पर्यवेक्षक की हैसियत से दावतनामा मिलना बताता है कि हिन्दोस्तान में रहने वाले 30 करोड़ से ज्यादा मुसलमानों को उस बिरादरी से बाहर नहीं रखा जा सकता जिसका मकसद बदलती दुनिया के मिजाज के साथ पूरी कौम की बेहतरी के लिए जरूरी माहौल तैयार करना है। बेशक भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है मगर इसमें रहने वाले हर मजहब के लोगों को अपनी-अपनी रवायत के अनुसार जिन्दगी जीने की पूरी छूट है और खुद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ऊंचे से ऊंचे मुकाम तक पहुंचाने का हक है। अतः यह बेवजह नहीं था कि 1914 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुए मुस्लिम समुदाय के ‘खिलाफत आंदोलन’ का समर्थन किया था। इस आन्दोलन की हिमायत का मतलब सिर्फ इतना था कि हिन्दोस्तान के मुसलमान भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कौम के उन मसलों से पूरी तरह जुड़े हुये हैं जो उन्हें इस्लाम के इंसानी जज्बे की तरफ मोड़ते हैं।

यह जज्बा अलग-अलग मुल्कों में रहने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जुल्म-ओ-गारत के खिलाफ आवाज उठाना था मगर 1969 में जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने मोरक्को के रब्बात शहर में आयोजित मुस्लिम देशों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए अपने वरिष्ठ सहयोगी स्व. फखरुद्दीन अली अहमद को भेजा तो उन्हें यह कहकर लौटा दिया गया कि भारत इसमें शिरकत नहीं कर सकता क्योंकि वह एक मुस्लिम देश नहीं है। दरअसल यह भारत का नहीं बल्कि इसमें रहने वाले मुस्लिम नागरिकों का अपमान था क्योंकि इंदिरा जी भारत की विविधता की ताकत का इजहार ही कराना चाहती थीं और बताना चाहती थीं कि पूरी दुनिया में दूसरे नम्बर की मुस्लिम जनसंख्या वाले मुल्क हिन्दोस्तान में उनका सम्मान किसी दूसरे मजहब के मानने वाले से कम नहीं है मगर तब देश की कुछ विपक्षी पार्टियों खासकर जनसंघ ने इसे मुस्लिम तुष्टीकरण का नाम देकर इस कदर उछाला था कि इस घटना की तुलना महात्मा गांधी द्वारा 1942 में छेड़े गये क्विट इंडिया (भारत छोड़ो) से करते हुए इसे ‘किक इंडिया’ का नाम दे दिया।

इतना ही नहीं इस घटना को बाद में 1971 के लोकसभा चुनावों में भी एक मुद्दा बनाने की कोशिश की गई जबकि हकीकत यह थी कि अमेरिका पर्दे के पीछे से रईस मुस्लिम देशों की दौलत को निगाह में रखते हुए पाकिस्तान की मार्फत खेल खेल रहा था कि भारत किसी भी तौर पर इस सम्मेलन में शामिल न हो सके क्योंकि इससे पहले 1967 में ही भारत ने अरब-इस्राइल संघर्ष में खुलकर एलानिया तरीके से फलस्तीन की पुरजोर हिमायत की थी। हालांकि इंदिरा सरकार के लगभग सभी मुस्लिम देशों से सम्बन्ध बहुत अच्छे थे मगर भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति को अमेरिका हर मोर्चे पर शिकस्त देना चाहता था। पाकिस्तान केवल भारत विरोध की वजह से ही अमेरिका के खेमे में चला गया था जबकि उस समय इसकी विदेश नीति के निर्माता जुल्फिकार अली भुट्टो जहनी तौर पर एक उदार मार्क्सवादी थे।

अतः पाकिस्तान ने तभी से इस सम्मेलन को कश्मीर के बहाने भारत के खिलाफ महाज छेड़ने का जरिया बनाने की कोशिश की और इसे धार्मिक समस्या का चोला पहनाने की चाल भी चली जिसमें वह कभी कामयाब नहीं हो पाया क्योंकि भारत हमेशा फलस्तीनियों के हक की आवाज हर मोर्चे पर उठाता रहा लेकिन पचास साल पहले इस घटना के बाद अब जो फिजां बदली है उसका कारण भी पाकिस्तान से 1971 में अलग हुआ बांग्लादेश है। पिछले साल यह मुल्क इस्लामी सम्मेलन का मेजबान था और इसने बहुत पुख्ता तरीके से कहा था कि भारत की मुस्लिम आबादी को देखते हुए इसे भी रूस व इंडोनेशिया की तरह एक पर्यवेक्षक देश का दर्जा दिया जाना चाहिए।

बांग्लादेश हालांकि अपनी परम्पराओं में किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से कम नहीं है और इसकी संस्कृति बंगाली तेज-ओ-ताब का अक्स है मगर इसका राजधर्म यहां की सियासी उठापटक की वजह से काफी बाद में बना दिया गया। इसके साथ ही अमेरिका ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर समूचे अरब जगत में जिस तरह दौलत की रसूखदारी का रकबा खड़ा करके सियासत की रसाई कायम की हुई है उसे देखते हुए ही संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब आदि देशों का नजरिया बदल रहा है, इसलिए हमें बांस पर चढ़कर झंडा लहराने की कोई जरूरत नहीं है बल्कि यह देखने की जरूरत है कि इस सम्मेलन में राज प्रमुखों की जो बैठक होगी उसका संयुक्त घोषणापत्र क्या होगा और उसमें कहीं पहले की तरह फिर से कश्मीर का जिक्र तो नहीं होगा।

संयुक्त अरब अमीरात मोटे तौर पर शाह के हुक्म को कानून समझ कर चलने वाला मुल्क है। इसकी विदेश नीति शाही निगाह की मुन्तजिर रहती है। इसलिए देखना होगा कि यह सम्मेलन पुख्ता तौर पर भारत को पर्यवेक्षक का दर्जा हमेशा के लिए अता करता है या नहीं। बेहतर होता कि हम इसके लिए किसी मुस्लिम मन्त्री का ही इंतखाब करते हालांकि दावतनामा विदेश मन्त्रियों के सम्मेलन का मिला है। इसलिए अबूधाबी में होने वाले इजलास की तरफ बेतकल्लुफी से देखने की कोई वजह तो नहीं है।

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