चीन के गलवान घाटी पर दावे के शोर में हम भूल रहे हैं कि पड़ोसी नेपाल ने भी कालापानी-लिपुलेख इलाके की 400 कि.मी. भारतीय भूमि पर अपना दावा ठोक दिया है। नेपाल की संसद ने इस जमीन को अपने देश के नक्शे में शामिल कर अपने संविधान को संशोधित कर डाला है। बेशक चीन और नेपाल के मसले अलग-अलग हैं मगर इससे यह जरूर पता चलता है कि हम विदेश सम्बन्धी मामलों में कहां खड़े हुए हैं? भारत चूंकि शोर-शराबे का लोकतन्त्र है (बकौल स्व. अरुण जेतली के) अतः दोनों ही मुद्दों पर जमकर शोर-शराबा होना सुनिश्चित है और वास्तव में हो भी रहा है मगर भारत का लोकतन्त्र भावनामूलक भी है जिसका लाभ सभी राजनीतिक पार्टियां समय-समय पर उठाती रही हैं परन्तु चीन और नेपाल के मामले में भारतवासियों की भावनाएं एक-दूसरे के प्रति धुर विरोधी हैं।
चीन के प्रति ‘तिरस्कार भाव’ प्रमुख है जबकि नेपाल के प्रति ‘मित्र भाव’ मुखर है। चीन से शिकायत की वजह 1962 के आक्रमण काल से चली आ रही है जबकि नेपाल से मित्र भाव ऐतिहासिक काल से सांस्कृतिक समता और एक जैसे जीवन मूल्यों के कारण है, परन्तु हाल की घटनाओं ने चीन के प्रति नफरत का भाव भारतवासियों के मन में इस तरह पैदा किया है कि ईंट का जवाब पत्थर से देने का भाव प्रबल हो उठा है जिसकी प्रतिध्वनि हमें राजनीतिक मोर्चे पर सुनने को मिल रही है। बहुत स्वाभाविक है कि विपक्षी पार्टियां गलवान घाटी में विगत 15 जून की रात को 20 निहत्थे भारतीय सैनिकों की शहादत पर सवाल उठायेंगी और पूछेंगी कि हमारी ही धरती पर चीनी सैनिकों ने बर्बरतापूर्ण कार्रवाई करके ऐसी हिमाकत कैसे की? इस पर शोर-शराबा होना लोकतन्त्र की स्थापित शासकीय जवाबदेही के दायरे में ही आता है। इसमें राष्ट्र भक्ति और देश प्रेम का भाव सर्वोपरि है क्योंकि भारतीय सीमाओं के भीतर आकर जब किसी दूसरे देश की सेनाएं सैनिकों का बलिदान करके चली जाती हैं तो वह देश शत्रु देश की श्रेणी में आ जाता है, उसे करारा सबक सिखाना सत्ता पर काबिज किसी भी पार्टी की सरकार का प्रथम दायित्व बन जाता है। विपक्ष की भूमिका सरकार को चौबीस घंटे हर मोर्चे पर सावधान रखने की होती है। भारतीय राजनीति इसकी गवाह है कि स्वतन्त्रता के बाद जनसंघ (भाजपा) विभिन्न मुद्दों पर भारी शोर-शराबा करके किस प्रकार राष्ट्रीय पार्टी बन कर सत्ता तक पहुंची।
लोकतन्त्र में मीडिया के माध्यम से अपनी आवाज को तेज से तेजतर करने की तकनीक में भाजपा का कोई जवाब इस तरह नहीं रहा है कि जनसंघ के जमाने तक इसे मीडिया की पार्टी तक कहा जाता था, परन्तु अब समय बदल चुका है और पूरी दुनिया में अब यह सबसे ज्यादा सदस्यों वाली राजनीतिक पार्टी बन चुकी है परन्तु इस मूल में राष्ट्रवाद रहा है जो देशभक्ति का पर्याय भी समझ लिया जाता है जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है क्योंकि देश भक्ति का पहला पाठ देश के लोगों का सशक्तिकरण होता है (मैं यहां कार्ल मार्क्स की इस स्थापना का जिक्र नहीं कर रहा हूं कि राष्ट्रवाद के लिए एक दुश्मन देश या जातीयता की जरूरत होती है और न ही सावरकर की असिन्धु-सिन्धु पर्यन्तः तक हिन्दू राष्ट्र क्षेत्र की परिकल्पना को ले रहा हूं, बल्कि यह निवेदन कर रहा हूं कि किसी भी देश की भौगोलिक सीमाएं राष्ट्रीयता के बोध को जागृत रखती हैं ) चीन के मामले में आम भारतवासी के राष्ट्रवाद पर कड़ा प्रहार हो चुका है क्योंकि पूरी गलवान घाटी पर ही चीन ने अपना दावा ठोक दिया है। चीन गलवान घाटी को अपना बता कर भारत की हिम्मत और गैरत को ललकार रहा है यही वह राष्ट्रवाद है जो भारतीयों को आज भावुक बना रहा है।
जाहिर है भारत के लोकतन्त्र में राष्ट्रवाद कई तरीके से सामने आता रहा है जिससे नागरिक भावुक होते रहे हैं और अपनी राजनीतिक वरीयता बदलते रहे हैं। यह राष्ट्रवाद हमने 2019 के चुनावों में पाकिस्तान के मुद्दे पर देखा और इससे पहले इसे दूसरे सांस्कृतिक रूप में रामजन्म भूमि के मसले पर देखा था। आज यही भाव चीन के मुद्दे पर उपज रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार राजनीतिक दल बदल गया है। अतः शोर-शराबे का लहजा भी बदला हुआ है मगर इस शोर-शराबे की भी लोकतन्त्र में सार्थक भूमिका होती है और इस तरह होती है कि 1962 में रक्षामन्त्री स्व. वी.के. कृष्णामेनन को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था, जाहिर है उस समय शोर-शराबे का माइक जनसंघ (भाजपा) के हाथ में था और इसके नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने युद्ध के चलते ही संसद का सत्र बुलाने की मांग कर डाली थी जिसे पं. नेहरू ने स्वीकार भी कर लिया था।