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भारत की गलवान घाटी

यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि जब भारत यह घोषणा कर रहा हो कि लद्दाख की गलवान घाटी में किसी प्रकार का चीनी अतिक्रमण नहीं हुआ है और किसी भी सैनिक चौकी पर चीन का कब्जा नहीं है

यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि जब भारत यह घोषणा कर रहा हो कि लद्दाख की गलवान घाटी में किसी प्रकार का चीनी अतिक्रमण नहीं हुआ है और किसी भी सैनिक चौकी पर चीन का कब्जा नहीं है तो ठीक उसी समय बीजिंग में चीनी विदेश मन्त्रालय का प्रवक्ता यह दावा कर दे कि पूरी गलवान घाटी चीन के इलाके में ही पड़ती है इससे चीन की वह नीयत खुल कर सामने आ जाती है जिसके तहत वह नियन्त्रण रेखा की पूरी स्थिति को ही बदल देना चाहता है। सवाल तो यह है कि भारत के बीस निहत्थे वीर सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग किया है। यह बलिदान भारत वासियों से कुछ पूछ रहा है? 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तो इसके बाद समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने नेफा आदि क्षेत्रों का दौरा किया था, उनके दौरे के लिए स्वयं प. जवाहर लाल नेहरू ने एक हेलिकाप्टर और एक जीप की व्यवस्था की थी। लोहिया जी प. नेहरू के कट्टर आलोचक थे।  चीनी आक्रमण के बारे में उन्होंने विचार व्यक्त किया कि जब ‘कोई सरकार या सत्ता  विदेशियों पर अपनी बहादुरी दिखाने में असमर्थ होती है तो अपने ही लोगों पर ताकत आजमाने लगती है।’ 
दरअसल उन्होंने चीन से पराजय का अपने हिसाब से विश्लेषण किया था और अपने नेफा दौरे को पूरी तरह सरकारी बताते हुए कोई निष्कर्ष नहीं निकाला था क्योंकि सामान्य जनों से उनकी भेंट ही नहीं हो पाई थी। विदेशी आक्रमण के बारे में डा. लोहिया उसी इलाके के लोगों की राय को बहुत ज्यादा महत्व दे रहे थे जहां चीन ने आक्रमण किया था। आज के सन्दर्भ में हमें इस पर विचार करना चाहिए और लद्दाखी जनता के मन की बात जानने का प्रयत्न करना चाहिए मगर असलियत तो यह है कि लद्दाख की सीमाएं उस तिब्बत से मिलती हैं जिसे 2003 में माननीय अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन का अंग स्वीकार कर लिया था और उसके कब्जे में पड़े ‘अक्साई चीन’ का जिक्र तक नहीं किया था। यह चीन के समक्ष कूटनीतिक रूप से आत्मसमर्पण था और उसके रुआब में अपने हक की बात करने से भी परहेज करने जैसा था। 
चीन ने भारत की सबसे बड़ी  राष्ट्रवादी जमात समझी  जाने वाली पार्टी के सर्वोच्च नेता का दम-खम देख लिया और उसके बाद बड़े आराम से वह अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा ठोंकने लगा क्योंकि भारत ने भी तब उस मैकमोहन रेखा को नकार दिया जो तिब्बत और भारत व चीन की सीमाएं निर्धारित करती थी। यह बीती बात हो चुकी है मगर ताजा हालात की रोशनी में भी चीन के तेवर बदले नहीं हैं जिसकी वजह से उसने पूरी गलवान घाटी को ही अपने हिस्से में बताने की जुर्रत कर डाली है और कह दिया है कि भारत व चीन के सैनिकों के बीच में विगत 15 जून की रात्रि को जो हिंसक वारदात हुई वह भी उसके इलाके में हुई थी। इसका मन्तव्य यह निकलता है कि भारतीय सैनिक उसके इलाके में चले गये थे और उसने बीस निहत्थे भारतीय जांबाज सैनिकों को शहीद कर डाला। इतनी सीनाजोरी के साथ झूठ बोल कर चीन सिर्फ नियन्त्रण रेखा की स्थिति को बदल देना चाहता है। 
इंडो-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) गृह मन्त्रालय के अन्तर्गत उसी प्रकार आती है जिस प्रकार सीमा सुरक्षा बल  चीन से लगती सीमाओं की चौकसी में, 1962 के बाद से ही भारत के वीर सैनिकों ने कभी भी कोताही नहीं दिखाई है और जब भी चीन की हरकत उन्हें संदिग्ध लगी उन्होंने उसे वहीं जाकर रंगे हाथों पकड़ा है और कभी भी अपनी जान की परवाह नहीं की है। यही वजह थी कि गलवान घाटी में हमारे वीर सैनिक बुदजिल चीनियों के बर्बर और कायराना हरकत का मुकाबला करने से भी पीछे नहीं हटे और अपनी शहादत दे दी मगर देखिये चीनियों का दुस्साहस कि उन्होंने भारत के दस वीर जवानों का गलवान घाटी में ही रास्ता भुला दिया और वे तब लौटे जब भारतीय मेजर जनरल ने उनके गुम होने की शिकायत चीनी अफसर  से की।  यह सनद रहनी चाहिए कि भारतीय सैनिक कम से कम चार-पांच को मार कर मरने वाले के लोहों से बने होते हैं मगर चीन ने अभी तक यह बताने का कष्ट नहीं किया है कि उसके कितने सैनिक मरे? मगर चीन ने यह कहने मंे देर नहीं लगाई कि पूरी गलवान घाटी ही उसकी है। अतः 15 जून को हुए हिंसक संघर्ष की पूरी जिम्मेदारी भारत की है मगर बेशर्मी की हद देखिये कि चीन के विदेश मन्त्रालय का प्रवक्ता कहता है कि चार जून को दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों की बातचीत में चीन की पुरजोर मांग करने पर  भारत ने उसके इलाके से अपने सैनिकों को वापस अपने इलाके में बुलाया।  चीन के विदेश मन्त्रालय के प्रवक्ता ने शुक्रवार को कहा कि 15 जून को पुनः भारतीय सैनिक नियन्त्रण रेखा के पार उसके इलाके में घुस आये और उसके सैनिकों पर हमला किया।  
चीन की यह हिमाकत बताती है कि वह भारत के साथ खिंची नियन्त्रण रेखा को बदलना चाहता है और भारतीय इलाके पर अपना हक जता कर सीमा समझौतों का हवाला देकर पूरी गलवान घाटी को ही अक्साई चीन की तरह निगल जाना चाहता है मगर यह 1962 का भारत नहीं है। तब से लेकर अब तक गलवान नदी में बहुत पानी बह चुका है। इसी नदी के जल की कसम उठा कर हर भारतवासी प्रण कर चुका है कि 20 वीर सैनिकों की शहादत का बदला हर हाल में लिया जायेगा। लद्दाख से निकली यह आवाज अब भारत के कोने-कोने में गूंज रही है।

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