भारत का संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि किन्हीं दो समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा करने की कोई भी तरकीब राष्ट्र को तोड़ने के समान समझी जायेगी और यह राष्ट्र विरोधी कार्रवाई होगी। भारत का चुनाव आयोग केवल उन्हीं राजनीतिक दलों का पंजीकरण करेगा जिन्हें इसके संविधान पर पूरा विश्वास हो। राष्ट्र विरोधी आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए जब नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार के दौरान ‘टाडा’ कानून बनाया गया तो उसके दुरुपयोग की घटनाएं पूरे देश में इस कदर हुईं कि किशोरवय बच्चों तक को इसमें पकड़ कर जेल में डाला गया।
बाद में इसे खत्म कर दिया गया परन्तु जब 1998 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्र में भाजपा नीत सरकारों का दौर शुरू हुआ और 2004 तक चला तो इसके उस जमाने के हिन्दू हृदय सम्राट और लौह पुरुष कहे जाने वाले गृहमन्त्री लालकृष्ण अडवानी ने आतंकवादी गतिविधियों के बढ़ने पर ‘पोटा’ कानून बनाया और उसमें से समाज में समुदायगत रंजिश बढ़ाने की कार्रवाई का उपबन्ध हटा दिया। समझने वाली बात यह है कि समाज के दो वर्गों को आपस में भिड़ाने या लड़ाने की कार्रवाई को टाडा में आतंकवादी गतिविधि के समान ही रखा गया था। फिर क्यों पोटा से इसे हटाया गया? इसका उत्तर हमें देश की राजनीति में ‘नफरत’ को जायज जामा पहना कर तल्ख होती सियासती जुबान से निकले ‘विमर्श’ में मिलेगा।
इसे बहुत खूबसूरती के साथ ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ का नाम देकर भारत की राजनीति को कबायली दौर में प्रवेश कराने की जो जुगत भिड़ाई गई उसने लोकतन्त्र में मतभिन्नता, असहमति और विचार विविधता को ही देश विरोधी कहना शुरू कर दिया। परिणामतः लोकतन्त्र में निडर होकर अपनी भावनाएं व्यक्त करने का सिद्धान्त कानून-व्यवस्था के लिए समस्या करार दिया जाने लगा जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण कर्नाटक के बीदर जिले में एक स्कूल के नौ से 12 वर्ष तक की आयु के सात बच्चों पर राजद्रोह जैसे संगीन अपराध में लिप्त होने का इल्जाम है और उनमें से कुछ की एक बेवा मां को इस जुर्म में फांस दिया गया है। गौर से सोचिये 17वीं सदी में मुगलिया सल्तनत के दौरान उस बालक हकीकत राय के साथ क्या हुआ था जिसकी मूर्ति राजधानी के बिरला मन्दिर मार्ग पर स्थित हिन्दू महासभा भवन में वीर हकीकत राय के तौर पर आज भी लगी हुई है।
वीर हकीकत राय जैसी छोटी उम्र के बालक पर तब ‘ईश निन्दा’ का इल्जाम लगाया गया था। आज के पाकिस्तान में स्थित मुल्तान के भागमल खन्ना का यह सुपुत्र अपने मदरसे में खेल-खेल में अपने देवी-देवताओं की प्रशंसा अन्य मुस्लिम बालकों के साथ कर गया था जिसकी वजह से काजियों ने उस पर यह ईश निन्दा का जुर्म मढ़ कर उसे कत्ल करने की सजा दी थी। जब इसकी भनक शहंशाह शाहजहां को लगी थी तो उसने लाहौर के काजियों को एक नाव में भर कर नदी के बीचों-बीच डुबवा दिया था। एक मुगलिया बादशाह का अपनी हिन्दू रियाया के एक बालक को दिया गया यह इंसाफ था। सवाल यह है कि आज हम वक्त के जिस मुहाने पर खड़े हुए हैं उसे 21वीं सदी कहते हैं और इस दौर में हम एक ड्रामे में किरदार निभाने की सजा अबोध बालकों को देकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं।
क्या हमारा राष्ट्रवाद इतना कमजोर है कि वह कुछ बालकों के एक ड्रामे में भाग लेने से खतरे में पड़ जायेगा। जब 19वीं सदी में महान कम्युनिस्ट विचारक कार्ल मार्क्स ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि राष्ट्रवाद के पनपने के लिए किसी दुश्मन को खड़ा करना जरूरी होता है तो 20वीं सदी के आते ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस सिद्धांत को पूरी तरह झुठला दिया और सिद्ध किया कि राष्ट्रवाद का नाम सहृदयता भाईचारा व प्रेम होता है। इसमें नफरत के लिए कोई जगह नहीं होती। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत पैदा करने की हर तजवीज का पुरजोर विरोध किया और कांग्रेस के कुछ कट्टरपंथी समझे जाने वाले नेताओं की राय के खिलाफ मुसलमानों के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे ‘खिलाफत’ आन्दोलन का समर्थन किया।
गांधी बाबा का मानना था कि खिलाफत आन्दोलन मूल रूप से अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ है। अतः भारत के मुसलमान नागरिकों के साथ स्वतन्त्रता आन्दोलन को आत्मसात किया जाना चाहिए। अंग्रेजों ने ही भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफरत का बीज बोने की शुरूआत की और अपनी शासन नीति का इसे महत्वपूर्ण अंग बनाया जिसकी वजह से 1947 में भारत से कट कर पाकिस्तान बना। संसद में आज जिस तरह लोकसभा में महात्मा गांधी के स्वतन्त्रता आन्दोलन को नाटक बताने वाले भाजपा सांसद अनंत कुमार हेगड़े को लेकर हंगामा हुआ वह पूरी तरह भारत की संसदीय प्रक्रिया का अहम अंग बन चुका है क्योंकि गांधी का राष्ट्रवाद किसी धर्म या मजहब अथवा समुदाय तक सीमित नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवतावाद के स्वामी विवेकानन्द के सिद्धान्त पर आधारित है। यही वजह है कि गांधीवाद में यकीन रखने वाले लोग नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे हैं।
ये हिन्दू या मुसलमान हो सकते हैं मगर सबसे पहले भारतीय हैं और इनका ईमान संविधान ही होना चाहिए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी नीतियों का विरोध या समर्थन करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार होता है जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से निकलता है और इसकी सीमाएं बांधने का कार्य पहले प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्वयं किया था। जिसमें उन्होंने हमेशा के लिए तय कर दिया था कि हिंसक विचारों का प्रतिपादन हर कीमत पर निषेध रहेगा मगर क्या कयामत है कि सिर्फ दिल्ली जैसे एक बड़े शहर के चुनावों में फतेह हासिल करने के लिए सरकार का एक मंत्री ही सार्वजनिक सभा में बार-बार नारे लगवाता है कि ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को।’
सबसे पहले यह तो तय होना चाहिए कि गद्दार कौन है। गद्दारी देश से कई स्तरों पर होती है। वह सामाजिक, सामरिक और आर्थिक होती है। यदि गद्दारी ही पैमाना है तो भारत के बैंकों से धन गबन करने वाले सफेदपोश लोगों को क्या कहेंगे? लोकतन्त्र जुबान से चलता है जिसकी पैमाइश आम मतदाता अपना दिमाग लगा कर करता है। अतः हम इस तरह न चलें कि हमारे कदम उल्टे होते जायें और हम बजाय 22वीं सदी की तरफ जाने के बजाय 17वीं सदी की तरफ चल पड़ें। हमारी राजनीति लोगों को ऊंचा और स्वावलम्बी बनाने की होनी चाहिए। उनकी जिन्दगी को खुशहाल बनाने की होनी चाहिए न कि नफरत भर कर उन्हें कम अक्ल बनाने की।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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