30 जनवरी गुजर गया महात्मा गांधी का शहादत दिवस, उनकी मृत्यु के सात दशक बाद आज हम किस मुकाम पर पहुंचे हैं? संसद का बजट सत्र आज 31 जनवरी से ही शुरू हो रहा है और इससे पहले संसद में बैठे उन लोगों की जबान की तस्दीक हो रही है जिन्हें भारत के लोगों ने अपना नुमाइंदा बना कर इसमें अपना दुख-दर्द बयां करने के लिए भेजा है।
अजीब इत्तेफाक है कि हमने चार दिन पहले ही गणतन्त्र दिवस मनाया है यानि वह दिन जिस दिन यह देश अंग्रेजों के बनाये हुए कानूनों से स्वतन्त्र होकर अपने कानून लागू करने वाला मुल्क बना था और इसके लोगों ने कसम उठाई थी कि वे इसे अपने लोकतान्त्रिक निजाम पर लागू करेंगे।
इसे लिखने वाला ऐसा आदमी था जिसने भारत में अपनी शिक्षा स्कूल के कमरे के बाहर बैठ कर इसलिए प्राप्त की थी क्योंकि वह हिन्दू जाति में शुद्र वर्ग का था जिसे अस्पृश्य कहा जाता था मगर देखिये हिन्दोस्तान की 20वीं सदी की जंगे आजादी का कमाल कि इससे तप कर बाहर निकले भारत का भविष्य लिखने का काम उन्हीं बाबा साहेब अम्बेडकर को दिया गया जिन्होंने एक जमाने में 1932 में महात्मा गांधी के साथ इस मुद्दे पर समझौता किया था कि शुद्र समूचे हिन्दू समाज के अंग ही माने जायेंगे।
भारत की असली आजादी की लड़ाई तभी से शुरू हुई क्योंकि बाबा साहेब ने अंग्रेजों के भारत में ही साफ कर दिया था कि आजाद हिन्दोस्तान में जाति-बिरादरी या मजहब के आधार पर न कोई छोटा होगा और न बड़ा। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जिस ब्रिटेन के जबड़े के तले पूरा भारत गुलामी से कराह रहा था उस मुल्क में भी आधा-अधूरा लोकतन्त्र संसद के वजूद में रहने के बावजूद 1917 तक चल रहा था क्योंकि वहां वोट देने का अधिकार केवल चुनिन्दा पढे़-लिखे या संभ्रान्त लोगों को ही था।
1917 में ब्रिटेन की संसद ने कानून बनाया कि प्रत्येक वयस्क को मतदान का अधिकार दिया जाये। इसके बाद 1919 में ब्रिटेन की संसद ने भारत के लिए ‘भारत सरकार अधिनियम’ बनाया जिसके अन्तर्गत भारत को विभिन्न जातीय समूहों व समुदायों का ऐसा जमघट माना गया जिनकी अलग संस्कृति व रीति रिवाज थे। इसे एक संघीय स्वरूप का देश नहीं माना गया। यह प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति का दौर था।
अतः आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी ने अंग्रेजों की इस चाल को समझा और महात्मा गांधी के नेतृत्व में सम्पूर्ण भारत की एकता के लिए काम करना शुरू किया और इसकी सामाजिक, सांस्कृतिक व भाषायी विविधता को एक संघीय राष्ट्र के दायरे में दिखाने का कार्य किया जिससे अंग्रेज किसी तौर पर भारत को विविध रूपों में न दिखा सकें, हालांकि 1919 में उन्होंने श्रीलंका को भारत से अलग देश का दर्जा दे दिया था, परन्तु 1935 के आते-आते जैसे-जैसे मुस्लिम लीग संगठन सिर उठाने लगा तो इस तरफ आजादी के दीवानों ने अपना ध्यान केन्द्रित किया और ब्रिटिश इंडिया में हुए पहले प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव में चुनिन्दा मताधिकार के आधार पर ही चुनाव होने पर यह स्वीकार कर लिया गया कि भारत एक संघीय ढांचे का देश है जिसकी भौगोलिक सीमाएं चीन, अफगानिस्तान, मालदीव जैसे पड़ोसी देशों से मिलती हैं लेकिन इसी वर्ष अंग्रेजों ने बर्मा (म्यामांर) को भारत से अलग करके एक अलग देश का दर्जा दे दिया।
1935 के बाद बचे भारत में बांग्लादेश व पाकिस्तान शामिल थे। इसके साथ ही ब्रिटिश संसद ने 1935 में ही एक नया ‘भारत सरकार अधिनियम’ बनाया जिसने 1919 के अधिनियम की जगह ली। यह तय हो चुका था कि भारत एक संघीय ढांचे का मुल्क है और पं. मोती लाल नेहरू ने भारत के संविधान का मोटा दस्तावेज तैयार किया था जिसे अंग्रेजों ने स्वीकार किया था। इसके बावजूद बेइमान अंग्रेजों ने 1947 में भारत को दो टुकड़ों में बांट डाला और मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना की यह तजवीज स्वीकार कर ली कि भारत के मुसलमानों की जाति जुदा है, जबकि हकीकत यह है कि अंग्रेजों ने अपनी दो सौ साल की हुकूमत में सबसे ज्यादा जुल्म मुस्लिम नवाबों और रियासतदारों व मनसबदारों पर ही ढहाये क्योंकि मुगल सल्तनत के बिखर जाने के बावजूद मुस्लिम शासकों का ही जहां-तहां शासन ज्यादा दमदार था। इन्हें पराजित करने के बाद ही अंग्रेजों ने मराठा, जाट व सिख शासकों को अपनी गुलामी में लेने का अभियान चलाया जो 1799 में मैसूर के शेर टीपू सुल्तान की वीरगति के बाद शुरू हुआ।
यह पूरा इतिहास लिखने का सबब यही है कि हम 21वीं सदी के लोग यह जानें कि हमारी एकता कभी भी आपस में बिखर कर मजबूत नहीं हो सकती। इतिहास सबक सीखने के लिए होता है, हमें बाबा साहेब ने जो संविधान दिया वह भारत को मजबूत रखने में इसलिए कामयाब है क्योंकि इसमें भारत के लोगों की मजबूती की तजवीज पेश की गई है और हर हालत में आम लोगों को निडर व निर्भय होकर अपने हक का इस्तेमाल करने की संवैधानिक छूट दी गई है।
पांच साला सरकारों का जो इन्तजाम संविधान ने हमको दिया है उसमें संसद के भीतर हुक्मरानी के पाले में बैठी पार्टी और मुखालफत में बैठी पार्टी के अधिकारों में कोई फर्क नहीं है। जिसके लिए सांसदों को विशेषाधिकार दिये गये हैं। ये विशेषाधिकार सजावट की वस्तु नहीं हैं बल्कि बेखौफ होकर लोगों का दुख-दर्द बयां करने का हक है और इसकी जड़ में सरकार का मुहाफिज आम लोगों का ही होना है। यही गणतन्त्र है जो गांधी और अम्बेडकर ने हमें दिया है।
महात्मा गांधी की शहादत बेशक एक िसरफिरे इंसान ने मजहबी जज्बे के तास्सुब में की थी मगर वह गांधी के सिद्धान्तों की हत्या तो नहीं कर सका क्योंकि 30 जनवरी 1948 के बाद एशिया-अफ्रीका के जितने भी मुल्क आजाद हुए, सभी ने गांधी की अहिंसा का अस्त्र इस्तेमाल करके ही अपने लोगों को तरक्की याफ्ता बनाया।
-आदित्य नारायण चोपड़ा