रघुवंश बाबू को आज अश्रुपूर्ण अंतिम विदाई दी गई। हर आंख नम हो गई। वैशाली से सीतामढ़ी सहित पूरा देश उनकी सादगी और ईमानदारी का कायल रहा। दुनिया के पहले गणतंत्र की बात आती है तो वैशाली का नाम सामने आता है।
जिस वैशाली की धरती पर गौतम बुद्ध का तीन बार आगमन हुआ था, उसी वैशाली से रघुवंश बाबू पांच बार सांसद रहे। राजनीति को कालिख की कोठरी कहा जाता है जिसमें किसी का धोती-कुर्ता कितना ही सफेद क्याें न हो, कालिख लगती ही लगती है लेकिन रघुवंश बाबू कालिख की कोठरी में से भी मुस्कराते हुए बेदाग निकल गए।
बुद्ध की तरह वे भी युद्ध के खिलाफ थे मगर विचारों का पैनापन कभी कम नहीं होने दिया। गणित के प्रोफेसर की नौकरी से जीवन की शुरूआत करनेे वाले रघुवंश प्रसाद सिंह ने केंद्रीय मंत्री तक की यात्रा की। वह राज्यसभा को छोड़कर शेष सभी तीन सदनों के सदस्य रहे।
विधान परिषद के सभापति, विधानसभा के उपाध्यक्ष और संसद सदस्य रहे। रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपना राजनीतिक सफर जेपी आंदोलन से शुरू किया था। वह जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी नेताओं की विचारधारा से प्रभावित थे और अंत तक वह समाजवादी विचारधारा पर अडिग रहे।
राजद प्रमुख लालू प्रसाद से रघुवंश प्रसाद का संबंध जेपी आंदोलन से रहा है और दोनों एक-दूसरे से बेहद करीब रहे। 1977 में वह पहले विधायक बने और बाद में बिहार से कर्पूरी ठाकुर सरकार में मंत्री भी बने। जब 1990 में लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने तो रघुवंश प्रसाद सिंह को विधान पार्षद बनाया जबकि वह विधानसभा चुनाव हार गए थे।
जब एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो लालू प्रसाद यादव ने उन्हें बिहार के कोटे से मंत्री बनवाया। रघुवंश प्रसाद को राष्ट्रीय राजनीति में पहचान अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में राजद नेता के रूप में मिली। 1996 में रघुवंश प्रसाद काे वैशाली से लोकसभा का टिकट दिया और वह चुनाव जीत गए।
उसके बाद से लगातार पांच बार उन्होंने वैशाली लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व किया। 1996 से 97 तक केंद्रीय पशुपालन राज्य मंत्री और 1997 से 98 तक केंद्रीय खाद्य राज्य मंत्री रहे। 2004 में जब वह चौथी बार सांसद बने तो यूपीए-वन यानि मनमोहन सिंह सरकार में उन्हें ग्रामीण विकास मंत्री बनाया गया।
जो लोग उनके काफी करीब रहे, वह बताते हैं कि सफेद धोती और कुर्ता, पांव में हवाई चप्पल, कंधे पर गमछा। सर्दी में गर्दन से लिपटी गांव की चादर, बिखरे बाल, चेहरे पर मुस्कान। ठेठ भाषा और दिल में उतर जाने वाला गंवई अंदाज। रघुवंश बाबू सादगी बिछाते थे और ईमानदारी ओढ़ते थे। जो भी बोलते थे बेबाक बोलते थे।
कई बार उन्हें अपने पार्टी अध्यक्ष के गुस्से का शिकार भी होना पड़ा। रघुवंश प्रसाद का कोई स्थाई ठिकाना नहीं रहा। अपना घर नहीं था तो फिर पता कहां का देते। वह स्वभाव से यायावर भी नहीं थे। घर तो वैशाली के शाहपुर गांव में था मगर राजनीति वहां से नहीं की। अधिक किराये वाले मकानों में रहना उन्हें पसंद नहीं था, जब भी चुनाव आते तो कम किराये वाला मकान ढूंढने लगते।
उन्हें गरीबों, किसानों की समस्याओं की गहरी समझ थी, जिस शख्स ने कालेज में शिक्षक रहते कई दिनों तक मूजा फांककर पेट भरा हो, उसे गरीब की पीड़ा का अहसास तो होगा ही मगर कभी उनके चेहरे पर परेशानी नहीं देखी गई। बाद में कालेज को सरकारी मान्यता मिली तो कुछ पैसे मिलने लगे।
उन्होंने कभी दिल्ली या पटना में आशियाना नहीं बनाया। वह गांव में रहते थे। उनकी सोच हमेशा वैज्ञानिक आधार पर रही। रघुवंश प्रसाद सिंह यूपीए-वन में ग्रामीण विकास मंत्री थे और मनरेगा कानून के असली शिल्पकार उन्हीं को ही माना जाता है। भारत में बेरोजगारों को साल में 100 दिन रोजगार मुहैया कराने वाले इस कानून को ऐतिहासिक माना गया था। यूपीए-2 को जब फिर से 2009 में जीत मिली तो उसमें मनरेगा की अहम भूमिका थी।
रघुवंश बाबू का ग्रामीण जीवन से ताल्लुक बहुत गहरा था। ग्रामीण विकास मंत्री के तौर पर उनका पूरा जोर हाशिये पर खड़े व्यक्तियों तक सुविधाएं पहुंचाने का था। उन्हें पता था कि गांव में संसाधनों की कमी है। जब खेती का मौसम नहीं होता तो लोगों के हाथ में कुछ काम देना जरूरी है।
मंत्रालय के कामकाज पर उनकी मजबूत पकड़ थी। सदन में उनको जवाब देते समय कभी ऐसा नहीं लगा कि किसी जवाब में वह अटक गए हों या किसी जवाब में उन्हें सहायता की जरूरत पड़ी हो। ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए उन्होंने जो प्रतिष्ठा अर्जित की वो बहुत ऊंची थी।
वे हमेशा अपनी बात रखते थे, कई बार प्रेस कांफ्रेंस में, पार्टी के मंच पर,जब महागठबंधन में भी थे तब भी वह जो गलत लगता था वो कह देते थे। उन्होंने कभी लालू यादव का साथ नहीं छोड़ा लेकिन मौत से ठीक पहले उन्होंने राजद से इस्तीफा दे दिया था।
लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद रघुवंश प्रसाद सिंह के लिए परििस्थतियां पहले जैसी नहीं रही। इंटरनेट और सोशल मीडिया के दौर में ऐसे नेता जिसे मोबाइल भी रखना पसंद नहीं था, उसके नई पीढ़ी के साथ मतभेद तो होंगे ही। उन्हें तेजस्वी यादव की कार्यशैली पसंद नहीं थी।
वह कुछ नेताओं से दूर रहना चाहते थे, जिन्हें पार्टी जगह दे रही थी वो शायद इससे बिल्कुल सहमत नहीं थे। आज की राजनीति में वे शायद फिट नहीं थे। जिस सामाजिक न्याय की लड़ाई को लेकर वह चले थे उससे अंत तक नहीं भटके। रघुवंश बाबू बिहार के ऐसे रत्न थे जिन्हें अनेक नेताओं ने अपना आदर्श माना। लोगों से उनका गहरा जुड़ाव था। ऐसे नेता अब बचे ही कहां हैं।
-आदित्य नारायण चोपड़ा