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जनरल नरवणे की खरी खरी

थल सेनाध्यक्ष एम.एस. नरवणे ने भारत-चीन के बीच चल रहे सीमा विवाद को लेकर स्पष्ट कर दिया है कि भारत की स्थिति पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में किसी भी तरह कमजोर नहीं है और भारतीय सेनाएं हर स्थिति से निपटने में सक्षम हैं।

थल सेनाध्यक्ष एम.एस. नरवणे ने भारत-चीन के बीच चल रहे सीमा विवाद को लेकर स्पष्ट कर दिया है कि भारत की स्थिति पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में किसी भी तरह कमजोर नहीं है और भारतीय सेनाएं हर स्थिति से निपटने में सक्षम हैं। जनरल का यह वक्तव्य कई प्रकार की गलतफहमियों को दूर करने वाला है और भारतीयों का आत्मविश्वास बढ़ाने वाला है क्योंकि चीन की विस्तारावादी नीयत को देखते हुए अक्सर यह शंका पैदा होती रहती है कि सीमा पर चीन कुछ गड़बड़ी करने की मंशा रखता है। इसके साथ ही जनरल ने साफ कर दिया है कि फिलहाल सीमा पर जो हालात हैं वे लगातार बने नहीं रह सकते हैं और उनमें भारत के पक्ष में बदलाव आ सकता है। उन्होंने पाकिस्तान से जुड़ी सीमा के मामले में भी खुलासा किया कि इस क्षेत्र में पड़ोसी देश की तरफ से घुसपैठ कराने की कोशिशें की जाती रही हैं जिन्हें पूरी तरह नाकाम करने में भारत के सुरक्षा बल सफल रहे हैं। आतंकवाद को सेना की नीति किसी भी प्रकार बर्दाश्त करने की नहीं है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारत व चीन के बीच साफ तौर पर सीमा रेखा नियत नहीं है जिसकी वजह से सीमा के बारे में अवधारणाओं को लेकर गफलत का माहौल बना रहता है और विवादास्पद क्षेत्रों में चीनी सेना चहलकदमी कर जाती है और ऐसे  स्थानों पर निर्माण कार्यों तक में मशगूल हो जाती है।
अरुणाचल प्रदेश के सन्दर्भ में जनरल ने इसी नुक्ते से अपने विचार रखे। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि भारत चीन की इन कार्रवाइयों से बेखबर है। यही वजह है कि भारत ने सीमा के क्षेत्र में अपनी सैनिक व ढांचागत क्षमता में पिछले डेढ़ साल में खासा विस्तार किया है और इसे मजबूत किया है। मगर सीमा पर ऐसी  घटनाएं इसलिए होती हैं क्योंकि दोनों देशों के बीच अभी तक सीमा रेखा का अन्तिम निर्धारण नहीं हुआ है। वास्तव में इसकी वजह ऐतिहासिक है क्योंकि चीन दोनों देशों के बीच 1914 में खिंची मैकमोहन रेखा को इस आधार पर अस्वीकार करता है कि यह रेखा उस समय तिब्बत को एक स्वतन्त्र देश मान कर खींची गई थी। हकीकत यह है कि भारत की सीमाएं तिब्बत से ही मिलती थीं। मगर 1949 में स्वतन्त्र होते ही चीन ने तिब्बत को हड़पने की कार्रवाई शुरू कर दी थी। यह इतिहास लिखने की जरूरत नहीं है कि 1959 में तिब्बत के सर्वोच्च नेता दलाई लामा के अपना देश छोड़ कर भारत में शरण लेने के बाद 1962 में भारत पर आक्रमण करने की क्या प्रमुख वजह थी मगर इतना जरूर कहा जा सकता है कि इसके पीछे चीन अपनी फौजी ताकत के भरोसे तिब्बत से लगे बहुत बड़े क्षेत्र पर अपना हक जमाना चाहता था । हालांकि अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते उसका यह प्रयास असफल हो गया था परन्तु उसने अख्साई चीन आदि इलाके तब भी हड़प लिये थे। इसके बाद भारतीय उपमहाद्वीप के भारत-पाक क्षेत्र के भौगोलिक नक्शे को पाकिस्तान ने 1963 में चीन को पाक अधिकृत कश्मीर का पांच हजार वर्ग कि.मी. का काराकोरम से लगा इलाका सौगात में देकर बदलने की कोशिश की जिससे चीन की विस्तारवादी भूख को और बढ़ावा मिला और इसने अब जाकर पाकिस्तानी प्रान्त ब्लूचिस्तान के समुद्री इलाके ग्वादर तक सड़क बनाने की योजना को अंजाम दिया।
 ग्वादर में आधुनिक बन्दरगाह बना कर चीन ने सीधे पश्चिम एशियाई देशों के साथ व्यापार बढ़ाने की गरज से भारत-तिब्बत से जुड़े पूर्वी लद्दाख क्षेत्र की सीमा की स्थिति अपने पक्ष में करने के लिए जून 2020 में इस इलाके में धमाचौकड़ी मचाई जिसका माकूल जवाब भारतीय सेनाओं की ओर से दिया गया। अतः जनरल नरवणे का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि जब तक सीमा रेखा का अन्तिम निर्धारण नहीं हो जाता है तब तक चीन ऐसी  गतिविधियों में संलिप्त रह सकता है जिसका जवाब देने के लिए भारतीय सेना हर मोर्चे पर तैयार है। चीन यदि  भारत की क्षमता को कम करके आंकने की गलती करता है तो उसे उसी की भाषा में जवाब देने को भारत की सेना तैयार है। हकीकत भी यही है कि चीन दोनों देशों के बीच सीमा विवाद समाप्त करने के लिए बने उच्च स्तरीय तन्त्र के उस फार्मूले की तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहा है जिसमें सीमावर्ती क्षेत्र का जो इलाका जिस देश के प्रशासन तन्त्र के तहत होगा वह उसी का इलाका माना जायेगा। हालांकि यह फार्मूले का कोई लिखित सिद्धान्त नहीं है मगर मोटे तौर पर 2005 के करीब बने वार्ता तन्त्र में इस पर सहमति सी देखी गई थी। जबकि अक्साई चीन इलाके पर भारत ने अपना दावा बरकरार रखा था। अतः जनरल नरवणे के बयान के बहुत गंभीर अर्थ हैं जो भारत की भौगोलिक अखंडता से जुड़े हुए हैं। इसका मतलब यही निकलता है कि भारत अपनी एक इंच जमीन भी चीन को नहीं दे सकता।

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