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जनरल रावत का ‘लेफ्ट-राइट’

भारत का लोकतन्त्र इतना लाचार और दीन-हीन नहीं हुआ है कि किसी सेना नायक को देश की जनता को यह समझाना पड़े कि उसे किस प्रकार के नेताओं को चुनना चाहिए।

भारत का लोकतन्त्र इतना लाचार और दीन-हीन नहीं हुआ है कि किसी सेना नायक को देश की जनता को यह समझाना पड़े कि उसे किस प्रकार के नेताओं को चुनना चाहिए। यह लोकतन्त्र वही है जिसने जेल की दीवारों के पीछे बैठे समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीज को 1977 के लोकसभा चुनावों में भारी मतों से विजयी बनाया था। भारत में सेनाएं इस देश के राष्ट्रपति की सुप्रीम कमांडरी में काम करती हैं और राष्ट्रपति का चयन हर पांच वर्ष बाद परोक्ष रूप से इस देश की जनता ही करती है और किसी भी राजनीतिक दल की लोगों द्वारा चुनी गई सरकार राष्ट्रपति की अपनी ही सरकार होती है। 
अतः भारत की तीनों सेनाओं के अध्यक्षों को सम्पूर्ण अनुशासन के साथ इस देश के संविधान के संरक्षक (राष्ट्रपति) की छत्रछाया में राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा का दायित्व निभाना होता है। यह दायित्व उन्हें पूरी तरह अराजनीतिक रहते हुए निभाना पड़ता है क्योंकि राष्ट्रपति स्वयं में अराजनीतिक होते हैं। भारत की आंतरिक व्यवस्था घनघोर  राजनीतिक प्रकृति की इस प्रकार है कि पूरी तरह अहिंसक रास्ते से विभिन्न राजनीतिक दल एक-दूसरे को जनता के सामने पटकी देते हुए सत्ता का वरण करते हैं और संविधान की अनुपालना के रास्ते द्वारा ही शासन चलाते हैं, जिसे ‘संविधान का शासन’ कहा जाता है। 
इसी संवैधानिक व्यवस्था के तहत भारत की संसद ने कानून बना कर भारतीय सेना के लिए नियम बनाये। आजादी से पहले भारत की सेनाएं ब्रिटेन की महारानी या सम्राट के प्रति निष्ठावान रहने की कसम उठाया करती थीं जिसे 1950 में बदल कर भारतीय संविधान के प्रति निष्ठावान रहने का बना दिया गया था और 1954 में सेना कानून में प्रावधान किया गया था कि राजनीतिक नेतृत्व की पूर्व अनुमति के बिना सेना नायक घरेलू राजनीति पर किसी प्रकार की टिप्पणी नहीं करेंगे परन्तु अत्यन्त खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि आगामी 31 दिसम्बर को अपने पद से रिटायर होने वाले थल सेना अध्यक्ष जनरल बिपिन रावत अक्सर अपनी जनाज्ञा (मेनडेट) को लांघते रहे हैं और मीडिया की सुर्खियों में बने रहे हैं। यह पूरी तरह अवांछित है। 
उन्हें यह कार्य अपने सुप्रीम कमांडर राष्ट्रपति की सरकार पर छोड़ देना चाहिए, जो कि भारत की आन्तरिक व घरेलू राजनीति की रखवाल है और इसी प्रक्रिया की उपज है। जनरल रावत का वर्तमान छात्र आंदोलन के बारे में यह कहना कि नेतृत्व सही दिशा देने के लिए होता है और लोगों को गलत दिशा में ले जाने वाला नेतृत्व नहीं होता, सबसे पहले उन्हीं पर लागू होता है क्योंकि वह नेतृत्व की उस सीमा को तोड़ते नजर आते हैं जो कि एक थल सेनाध्यक्ष के लिए संविधान तय करता है। भारतीय सैनिकों का आम भारतीय नागरिक सम्मान इसलिए करते हैं क्योंकि वह पूरी तरह अराजनीतिक होकर राष्ट्रसेवा में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से भी पीछे नहीं हटते। 
उनके उत्सर्ग को राजनीतिक रंग देने की किसी भी कोशिश से सेना का सम्मान घटने की ही आशंका खड़ी होती है। भारत की सेना तो वह सेना है जो रणक्षेत्र में जीते गये क्षेत्र को राजनीतिक नेतृत्व द्वारा वार्ता की मेज पर हार जाने के बावजूद और ज्यादा मजबूती से राष्ट्र की सीमाओं की रक्षार्थ सन्नद्ध हो जाती है। भारत-पाक के 1965 के युद्ध के बाद यही तो हुआ था जब ताशकन्द समझौते में सन्तोष करना पड़ा था। इसके विपरीत 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करके उसके एक लाख सैनिकों का आत्मसमर्पण कराने वाले जनरल सैम मानेकशा ने इसका श्रेय स्वयं कभी नहीं लिया और तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की दूरदर्शिता को ही इसका यश दिया। 
भारत की सबसे बड़ी ताकत इसका लोकतन्त्र इसलिए है क्योंकि इसकी सेनाएं पूरी तरह अराजनीतिक हैं जो लोकतन्त्र की रक्षा के लिए संविधान के रास्ते कसम खाती हैं। यह इतना पेचीदा सवाल नहीं है कि इसे भारत की आम जनता समझ ही न पाये। छात्र आंदोलनों के जरिये ही इस देश के एक से बढ़ कर एक नेता राष्ट्रीय राजनीति में चमकते रहे हैं। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से लेकर अरुण जेतली, हेमवती नन्दन बहुगुणा, रवि शंकर प्रसाद और सत्यपाल मलिक तक एेसे नामों की लम्बी फेहरिस्त है। यह भारत की ही युवा पीढ़ी है जो आज पूरी दुनिया में अपने ज्ञान के बूते पर टैक्नोलोजी के जरिये इसे मुट्ठी में लेने तक आ पहुंची है, इसलिए जनरल साहब को भारत के गांवों में आज भी प्रचलित इस कहावत पर मनन करना चाहिए कि ‘‘जा का काम उसी को साजे-और करे तो डंका बाजे।’ 
इन्हीं भारत के लोगों ने तो समय-समय पर अपने नेतृत्व चयन का लोहा पूरी दुनिया से मनवाया है और इसी राजनीतिक उठा-पटक के चलते मनवाया है। इसकी वजह यही रही है कि छात्रों से लेकर प्रौढ़ पीढ़ी तक के मतदाताओं में वैचारिक विविधता व मत भिन्नता के लिए यथोचित आदर है और वे तर्कबुद्धि को ऊंचा स्थान देते हैं। छात्रों में आखिरकार बीए या एमए की डिग्रियां इसी गुण का विकास तो करती हैं और तर्क कहता है कि जब देश के भीतर राजनीतिक कोलाहल सीमा से अधिक होने लगे तो सेनाओं को सीमाओं की रक्षा के लिए और अधिक चुस्त व सचेत हो जाना चाहिए जिससे देश का कोई भी दुश्मन निश्चिंत न हो सके। 
भारत की व्यवस्था इतनी खूबसूरत बना कर हमारे पुरखे छोड़ कर गये हैं कि इसके लोकतन्त्र का हर अंग हर हालत में केवल अपने दायित्व और कर्त्तव्य का ही निर्वाह करता रहे तो पूरे देश में सर्वथा व्यवस्था स्वतः ही बनी रहेगी परन्तु व्यवस्था में अव्यवस्था देखने की नजरों को सही करना होगा। लोक अभिव्यक्ति लोकतन्त्र का अभिन्न अंग होती है। वैचारिक मतभेदों का शान्तिपूर्ण प्रदर्शन इसके लिए संवैधानिक रास्ता है, जो राष्ट्रहित में मतैक्य कायम रखने का दरवाजा भी खोलता है और यह कार्य पूरी तरह राजनीतिक नेतृत्व का होता है, क्षमा करिये इसमें सैनिक राय की जरूरत नहीं होती।

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