जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रविवार रात्रि को जो तांडव हुआ है उससे अचानक 1984 के सिख दंगों की याद ताजा हो गई है जब तमाशाई बनी पुलिस दिल्ली में विनाश को देखती रही थी और उसकी आंखों के सामने दंगाई चंगेजी लीला कर रहे थे। यह कैसे संभव है कि जेएनयू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के भीतर चेहरों पर नकाब लगा कर हाथों में लाठी, सरिये व हथौड़े लेकर कुछ गुंडेनुमा लोग छात्रों को पीटते रहें और विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर पुलिस पहरा देती रहे और उसके चारों तरफ घेरा डाले कुछ बाहरी तत्व भारत माता की जय और वन्दे मातरम् के नारे लगाने के साथ ही हिंसक नारे भी लगाते रहें।
विचारों को गोली मार कर किसी भी सूरत में खत्म नहीं किया जा सकता, विचार केवल तीखे जवाबी विचार से ही क्षीण हो सकते हैं। सवाल यह भी कि जब पुलिस किसी शिक्षण संस्थान में जाती है तो उसे आलोचना का शिकार बनना पड़ता है। जेएनयू अपने स्थापना काल से ही विचारों की लहलहाती फसल के रूप में पूरे भारत में जानी जाती है, जहां से वामपंथी विचारधारा से लेकर दक्षिणपंथी व राष्ट्रवादी विचारधारा के एक से बढ़ कर एक सूरमा निकले हैं। स्व. मनोहर लाल सौंधी 1967 के लोकसभा चुनावों में जब नई दिल्ली से जनसंघ के टिकट पर लोकसभा सांसद बने थे तो इसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत थे, जो विश्वविद्यालय भारत की सैनिक अकादमी से निकलने वाले कमीशंड अफसरों को स्नातक की डिग्री से विभूषित करता हो वह गद्दारों का स्थल कैसे हो सकता है।
वामपंथी विचारधारा का मतलब देश से गद्दारी किस तरह हो सकता है और ठीक इसके विपरीत राष्ट्रवादी विचारधारा का मतलब साम्प्रदायिकता कैसे हो सकता है, मगर दुखद यह है कि जेएनयू परिसर में हिंसा का तांडव करने के बाद गुंडा तत्व परिसर से सुरक्षित बाहर निकल गये। विश्वविद्यालय प्रशासन के नाकारापन का सबूत यह है कि हिंसक तत्वों को अपना खेल खुल कर खेल देने के बाद कुलपति नींद से जागे और उन्होंने पुलिस को परिसर में प्रवेश करने की इजाजत दी। गुंडों के वहशीपन का अन्दाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्होंने छात्र संघ अध्यक्ष सुश्री आएशी घोष का सर ही जख्मी कर डाला जिससे वह लहूलुहान हो गईं।
क्या इस हकीकत का सामना पुलिस कर सकती है कि विश्वविद्यालय के द्वार पर जब जख्मी छात्रों को ले जाने के लिए एम्बुलेंस बुलाई गईं तो उन पर भी द्वार पर खड़े होकर नारे लगा रहे बाहरी तत्वों ने हमला किया और वहां पहुंचे कुछ सचेत नागरिकों के साथ हाथापाई तक की। इनमें श्री योगेन्द्र यादव प्रमुख थे। यादव इसी विश्वविद्यालय के पढे़ हुए हैं। अतः उनका वहां जाना नेतागिरी करना बिल्कुल नहीं था बल्कि परिसर के भीतर हो रहे तांडव के प्रति चिन्तित होना था, लोकतन्त्र में युवा शक्ति का महत्व शरीर में बहते हुए खून की तरह होता है। खून की तासीर व्यक्ति को स्फूर्तमान बनाये रखने की होती है।
अतः युवा शक्ति किसी भी राष्ट्र की स्फूर्ति होती है, यह स्फूर्ति रचनात्मक कार्यों में लग कर राष्ट्र का नव निर्माण करती है, विश्वविद्यालय विचारों की प्रयोगशाला होते हैं। इन्हीं प्रयोगशालाओं से राष्ट्र निर्माण के नूतन नायक बाहर निकलते हैं। विद्या का मतलब केवल किताबी तोता बनना नहीं होता है बल्कि समाज और दुनिया को समझने की तहजीब पैदा करना होता है जिससे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास का मार्ग अग्रसर होता रहे। इस सन्दर्भ में अगर विश्वविद्यालय के छात्र पिछले तीन महीने से छात्रावासों की फीस बढ़ाये जाने का विरोध कर रहे हैं तो वह उन्हीं छात्रों के हितों के लिए लड़ रहे हैं जो देश के सुदूर इलाकों से अपनी प्रतिभा के बूते पर इस संस्थान में प्रवेश पाकर अपनी आर्थिक स्थिति के साथ सांमजस्य बैठाने की कोशिश करते हैं।
इस विश्वविद्यालय की स्थापना का उद्देश्य ही भारत की छोटी जगहों में बिखरी प्रतिभा को संवारना और उसे कथित संभ्रान्त वर्ग की युवा पीढ़ी के समकक्ष खड़ा करने का रहा है। ऊंची शिक्षा को ऊंची से ऊंची फीस पर बेचने वाले निजी शिक्षा संस्थानों की बाढ़ के बीच जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय गरीब प्रतिभावान छात्रों की आस का केन्द्र बने हुए हैं। अतः इसके स्वरूप को विद्रूप करने की हर कोशिश को गरीब विरोधी माना जायेगा। केन्द्र सरकार यदि इस विश्वविद्यालय को मदद देती है तो वह उन गरीब छात्रों का हक ही देती है जिनके मां-बाप किसी गांव में किसान हैं या सीमा पर जवान हैं। दुर्भाग्य यह है कि भारत में कभी भी शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण विषय चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता जबकि राष्ट्र का कायाकल्प करने में शिक्षा ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
यह नागरिकों को अपने अधिकारों और दायित्व दोनों के प्रति ही सचेत करती है और पाखंड व अन्ध विश्वासों से समूचे समाज को मुक्ति दिलाने की राह तैयार करती है। जेएनयू ने यह भूमिका किस तरह निभाई है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमन व विदेश मन्त्री एस. जयशंकर के अलावा देशभर में तैनात बहुत सारे आईएएस व आईपीएस अधिकारी हैं। यदि इस विश्वविद्यालय में केवल वामपंथी विचारधारा को ही पनपाया जाता तो ये सब लोग कहां से आते। एक जमाने में जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर कार्यवाह रहे स्व. रज्जू भैया और भाजपा के अध्यक्ष रहे डा. मुरली मनोहर जोशी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विज्ञान संकाय के प्रोफेसर हुआ करते थे तो वहां समाजवादी विचारों का बोलबोला था और समाजवादी युवजन सभा छात्र संघ का चुनाव जीता करती थी।
उस समय यह विश्वविद्यालय आईएएस व आईपीएस अधिकारियों को तैयार करने का केन्द्र माना जाता था। यह वह समय था जब प्रत्येक राष्ट्रीय समस्या पर प्रदर्शन का श्रीगणेश भी इसी विश्वविद्यालय से हुआ करता था। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इंदिरा काल में स्व. जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन गुजरात के छात्र आन्दोलन का ही वृहद स्वरूप था और यह छात्र आंदोलन नागरिकों की दैनिक समस्याओं को लेकर ही शुरू हुआ था। अतः विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्र यदि संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ रोष प्रकट कर रहे हैं तो वे केवल तस्वीर के दूसरे पहलू को दिखा रहे हैं कोई राष्ट्र विरोध नहीं कर रहे हैं। भाजपा स्वयं ऐसे आन्दोलनों में शामिल रही है।
विचार वैविध्य ही लोकतन्त्र को जीवंत बनाये रखता है जिसमें हिंसा का प्रयोग पूर्णतः वर्जित होता है परन्तु विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में पहली जिम्मेदारी कुलपति की ही होती है। कुलपति सभी छात्रों का पिता समान होता है और वह अपनी हर सन्तान की प्रतिभा को फलता-फूलता देखना चाहता है पूरे मामले की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच कराई जाये। यह कैसे हो सकता है कि जिस पुलिस की आंखों के सामने विनाशलीला हुई हो उसे ही जांच करने का काम भी सौंप दिया जाये। लोकतन्त्र न्याय पर चलता है मगर अगली-पिछली सभी हुकूमतों ने इसे कैसा बना दिया है:
चोर चोरी करते रहो।
चौकीदार हांक लगाते रहो
मलिक मकान जागते रहो
पहरेदार पहरा देते रहो
जांच कमीशन आ रहा है!