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गोधरा कांड का फैसला

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गुजरात उच्च न्यायालय ने गोधरा ट्रेन अग्निकांड के 11 अभियुक्तों की मृत्युदंड की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास की गोधरा कांड ऐसी अनोखी घटना है जिसकी जांच कई बार कराई गई और अलग-अलग नजरिये से कराई गई मगर हकीकत यही थी कि 27 फरवरी 2002 की रात्रि को अयोध्या से लौट रही साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के डिब्बा नम्बर एस-6 में आग लग गई थी जिसमें 59 व्यक्तियों की जलकर मृत्यु हो गई थी। इस मुद्दे पर विवाद रहा कि आग अन्दर से किसी ने लगाई थी या बाहर से लगाई गई थी मगर 59 लोगों की मृत्यु अटल सत्य थी। इस पर जमकर राजनीति भी हुई और सच को अपने नजरिये से पेश करने की नाकाम कोशिशें भी हुईं।

मनमोहन सरकार के दौरान रेलमन्त्री रहे श्री लालू प्रसाद यादव ने इस घटना की चांच के लिए मुखर्जी जांच समिति गठित की थी जिसने निष्कर्ष निकाला था कि आग लगने की वजह डिब्बे के अन्दर से भी हो सकती थी मगर गुजरात पुलिस का कहना था कि आग बाहर से लगाई गई और बाकायदा इसके लिए षड्यन्त्र रचा गया जिसके मुखिया गोधरा नगर पालिका के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना हुसैन उमरजी थे मगर उमरजी को 2011 में विशेष अदालत ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए अन्य 63 लोगों के साथ दोषमुक्त करार दिया था जिन्हें राज्य पुलिस ने अन्य लोगों के साथ अभियुक्त रूप में पेश किया था। इस अदालत ने 2011 में कुल 31 लोगों को सजा सुनाई थी जिनमें से 11 को फांसी और 20 को उम्रकैद दी गई थी। अब उच्च न्यायालय ने सभी को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए ताईद की है कि सभी मृत लोगों के निकटतम परिजनों को दस-दस लाख रुपए का मुआवजा दिया जाये। इसके साथ ही न्यायालय ने राज्य सरकार और रेलवे विभाग को भी कानून-व्यवस्था से सही तरीके से न निपटने के लिए लताड़ लगाई है।

गोधरा कांड कई मायनों में आम भारतीयों के दिलों को दहलाता रहेगा क्योंकि इसने मानवीयता के सभी दायरों को तोड़कर हैवानियत का नया रिकार्ड उस हिन्दोस्तान में बनाया था जिसे मानव मूल्यों का अलम्बरदार माना जाता है। जिस ट्रेन के डिब्बे में आग लगाई गई थी उसमें अयोध्या से राम मन्दिर निर्माण आन्दोलन में सक्रिय कारसेवक लौट रहे थे। उन्हें आग की भेंट जिस निर्दयता के साथ किया गया उससे इंसानियत का सीना तार-तार हो गया था मगर इसके बाद पूरे गुजरात में लगातार दो महीने तक जो तांडव हुआ था उससे मानव जाति के सभ्य होने पर ही सन्देह पैदा होने लगा था। पूरा मसला साम्प्रदायिक दायरे में कैद करके देखा गया और गुजरात साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस गया। इसमें कम से 1200 व्यक्तियों की मृत्यु हुई। ये हिन्दू या मुसलमान नहीं थे बल्कि भारत के बाइज्जत नागरिक थे और इनकी हत्या अन्य बाइज्जत नागरिकों ने ही की थी लेकिन उस समय केन्द्र में श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और उनके गृहमन्त्री श्री लालकृष्ण अडवानी थे। लोकसभा के रिकार्ड जांच लिये जायें और उसके बाद मेरे लिखे की तसदीक की जाये। 27 फरवरी की रात को यह घटना घट जाने के बाद अगले दिन 28 फरवरी को दिल्ली में लोकसभा में बजट पेश किया जाना था। सदन जुड़ चुका था। बजट पेश करने के लिए तत्कालीन वित्तमन्त्री श्री यशवन्त सिन्हा उठने ही वाले थे कि उससे पहले गृहमन्त्री अडवानी खड़े हुए और उन्होंने कहा कि ‘अभी-अभी समाचार मिला है कि विगत रात्रि गोधरा में साबरमती ट्रेन के एक डिब्बे में आग लग जाने से 60 के लगभग व्यक्तियों की मृत्यु हो गई है। ये सब अयोध्या से कार सेवा करके लौट रहे थे। कोई नहीं जानता कि इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी।”

देश के गृहमन्त्री का संसद में खड़े होकर दिया गया बयान दिमाग पर पत्थर के वजन की मानिन्द (लोडेड) था मगर भारतीय राजनीति का यह ऐसा संस्करण था जिसमें सत्ता का दायित्व नदारद नजर आ रहा था। जिस गृहमन्त्री पर देश की आन्तरिक सुरक्षा का दायित्व होता है वह कुछ लोगों के षडयन्त्र को नए सामाजिक समीकरणों से गढ़ रहा था लेकिन उच्च न्यायालय ने आज जो फैसला दिया है वह यही सिद्ध करता है कि ट्रेन के डिब्बे में आग लगाई गई थी और इसके लिए रेलवे विभाग भी कम जिम्मेदार नहीं था। बेशक कानून-व्यवस्था राज्य सरकार का विषय होता है मगर रेलवे सम्पत्ति की सुरक्षा करना रेल विभाग के सुरक्षा बल का ही दायित्व होता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि उन लोगों का क्या दोष था जो इस ट्रेन में सफर कर रहे थे। वे हिन्दू और मुसलमान तो बाद में थे, पहले रेलवे के यात्री थे।

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