जीडीपी किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का आकलन करने के लिए एक आवश्यक पैमाना है। भारत में जीडीपी की गणना हर तीसरे माह यानी तिमाही आधार पर की जानी है। भारत में कृषि, उद्योग और सेवाएं तीन प्रमुख घटक हैं जिनमें उत्पादन बढऩे या घटने के औसत के आधार पर जीडीपी दर तय होती है। जीडीपी का आंकड़ा बढ़ा है तो मान लिया जाता है कि देश में आर्थिक विकास हुआ है। अगर यह पिछली तिमाही से कम है तो मान लिया जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी है। खैर जीडीपी में पिछली पांच लगातार तिमाहियों से चली आ रही गिरावट का दौर थमा है। अच्छी खबर यह है कि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन ने जो आंकड़े जारी किए हैं उनके अनुसार सकल घरेलू उत्पाद में 6.3 फीसदी की बढ़ौतरी दर्ज की गई है जो पिछले वर्ष इसी अवधि में साढ़े 7 फीसदी थी।
पिछली तिमाही में जीडीपी का आकलन 5.7 फीसदी पर थी। नोटबंदी और जीएसटी के बाद जीडीपी के आंकड़ों में कमी देखी गई थी लेकिन जीडीपी में अब जो बढ़ौतरी हुई, इसके पीछे निर्माण क्षेत्र की गतिविधियों में तेजी भी एक अहम कारक है। दूसरे क्षेत्रों में होटल, व्यापार, ट्रांसपोर्ट और संचार में 9.9 प्रतिशत की दर से बढ़ौतरी दर्ज की गई। इन आंकड़ों से मोदी सरकार के जीएसटी लागू करने के अपने फैसले को सही ठहरा दिया है। वित्त मंत्री अरुण जेतली ने भी कहा है कि अब नोटबंदी और जीएसटी का बुरा असर खत्म हो गया है। दो बड़े आर्थिक सुधार नोटबंदी और जीएसटी सरकार के साथ हैं। हाल ही में अमेरिका स्थित क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भारत की सॉवरेन रेटिंग को करीब 13 वर्षों के अंतराल के बाद बीएए3 से सुधार कर स्थिर आउटलुक के साथ बीएए2 कर दिया था। मूडीज ने भारतीय अर्थव्यवस्था और संस्थागत सुधार के चलते रेटिंग में सुधार किया था। यह एक अच्छी बात है कि देश की अर्थव्यवस्था ने रफ्तार पकड़ी लेकिन आंकड़ों में भी पेच होता है। भारत में जब भी त्यौहारों का सीजन होता है तो मैन्यूफैक्चरिंग सैक्टर की गतिविधियां बढ़ती हैं। मैन्यूफैक्चरिंग सैक्टर त्यौहारों से पहले यानी दशहरा-दीपावली से पूर्व ही माल का उत्पादन कर उसे स्टॉक कर लेना चाहता है ताकि उनका व्यापार बढ़े, इसलिए त्यौहारों के सीजन के बाद जो भी आंकड़े आते हैं वह स्वाभाविक रूप से वृद्धि को ही दर्शाते हैं।
त्यौहारी सीजन के दौरान अधिक बिक्री की उम्मीद से कम्पनियों ने उत्पादन बढ़ाया है लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि कृषि क्षेत्र की विकास दर में गिरावट देखी गई और यह महज 1.7 फीसदी रही जबकि पहली तिमाही में यह 2.3 फीसद थी। खरीफ उत्पादन में गिरावट के कारण कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन पर असर पड़ा है। वित्तीय, बीमा और रियल एस्टेट क्षेत्र और अन्य सेवाओं के क्षेत्र में भी सुस्ती देखी गई। सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर 8.7 फीसदी से घटकर 7.1 फीसदी रह गई। अब देखना यह है कि जीडीपी की दर बढऩे से क्या आम आदमी को कोई राहत मिली है? कृषि की कमजोर हालत को देखकर तो ऐसा नहीं लगता। कृषि का सीधा सम्बन्ध लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी से है। वर्तमान हालात को देखकर तो साफ है कि खाने-पीने की वस्तुओं के दाम और बढ़ेंगे जिसका असर महंगाई पर होगा। प्याज, टमाटर और सब्जियों के दाम फिर लोगों को रुला रहे हैं।
देश का राजकोषीय घाटा अक्तूबर के अंत तक 2017-18 के बजट अनुमान के समक्ष 96.1 फीसदी तक जा पहुंचा। राजकोषीय घाटा बढऩे की चिन्ताओं के कारण शेयर बाजार में भारी उठा-पटक देखी गई और सेंसेक्स के एक दिन के सत्र में वर्ष की सबसे बड़ी गिरावट देखी गई। राजकोषीय घाटा बढऩे के कारण राजस्व का कम संग्रहण होना और सरकार के खर्च का बढऩा है। अर्थशास्त्री और अन्य नीति निर्माता अक्सर इस बात पर सहमत नजर आते हैं कि बड़ा और निरंतर घाटा बेहतर आर्थिक प्रदर्शन के आड़े आ जाता है। मुद्रास्फीति का दबाव बनता है, भुगतान संतुलन कमजोर पड़ता। सुधारों के लिए संघर्ष जारी है। अभी भी हमें बहुत लम्बी दूरी तय करनी पड़ेगी। यह सही है कि अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत को उम्मीद भरी नजरों से देख रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्तमंत्री ने भी आश्वासन दिया है कि व्यापारियों को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें भविष्य में दूर किया जाएगा। जरूरत इस बात की है कि देश में कृषि क्षेत्र को मजबूत बनाया जाए। देश की अर्थव्यवस्था का आधार केवल बड़े उद्योग नहीं हो सकते। कृषि भी बड़ा आधार है। देश को जरूरत इस बात की है कि विकास समग्र हो। छोटे-छोटे नए उद्योग खुले, लाखों लोगों को रोजगार मिले। बेरोजगारी दूर करने के लिए निजी उद्योगों को बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार किया जाए। आर्थिक नीतियों पर मंथन एक सतत् प्रक्रिया है और उनमें बदलाव भी किया जाता रहा है। उद्देश्य यही कि देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हो।