लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

लोकसभा चुनाव पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

गुजरात में गोरखपुर कांड

NULL

गुजरात में विधानसभा चुनावों की गहमागहमी के बीच अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में 24 घंटों के बीच आईसीयू में 9 नवजात शिशुओं की मौत पर हड़कम्प मच गया है। विपक्षी दलों ने इसे चुनावी मुद्दा बना लिया है। वैसे भी अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में नवजातों की मौत की आैसत संख्या प्रतिदिन 5 से 6 है। आरोप यह है कि बच्चों की मौत डाक्टरों की अनुपस्थिति के कारण हुई जबकि अस्पताल का कहना है कि डाक्टरों की अनुपस्थिति का आरोप गलत है, बच्चे बेहद कमजोर थे और कई बीमारियों से ग्रस्त थे। अस्पताल का यह भी कहना है कि ​मरीज बच्चों को अस्पताल में भर्ती तब कराया गया था जब उनकी हालत ज्यादा खराब थी, जब निजी अस्पतालों को लगता है कि अब वे मरीजों का इलाज नहीं कर पाएंगे तो उन्हें वे यहां भेज देते हैं।

कारण कुछ भी रहे हों, नवजात शिशुओं की मौत काफी दुखद है। वहीं गर्भवती महिलाओं के कुपोषित होने के कारण गुजरात में अब भी जन्म के दौरान शिशुओं का अ​त्यधिक कम वजन होना चुनौती बना हुआ है। इसी मुद्दे पर विपक्ष ने हल्ला बोल दिया है कि ‘‘गुजरात सरकार या तो इसे डाक्टरों की लापरवाही माने या बताए कि क्या बच्चों की माताएं कुपोषित थीं।’’ फिलहाल सरकार खामोश है, उसने जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन परिजनों में काफी आक्रोश है। इससे पहले उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में मैडिकल कालेज में दो दिन में 30 बच्चों की मौत हुई थी और इस अस्पताल में बच्चों की मौत अब तक हो रही है। गोरखपुर मैडिकल कालेज में बच्चों की मौत पर काफी हंगामा हुआ था। बच्चों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हुई लेकिन प्रशासन बच्चों की मौत के अनेक कारण बताता रहा और लीपापोती करता रहा। अहमदाबाद में गोरखपुर जैसा कांड क्यों हुआ? सवाल व्यवस्था में सुधार का है।

स्वास्थ्य तंत्र में सुधार के बारे में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को नए सिरे से सोचने की जरूरत है। क्योंकि एक ओर तो अपने देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की दशा बहुत दयनीय है और दूसरी ओर राज्य सरकारें ढांचे में सुधार के लिए काेई ठोस कदम उठाती नहीं दिख रहीं। यद्यपि कई शहरों में एम्स जैसे अस्पताल बन रहे हैं लेकिन इस बात से सभी परिचित हैं कि दिल्ली के एम्स में गंभीर बीमारी से ग्रस्त मरीजों के आप्रेशन के लिए दो-तीन साल की तिथि देनी पड़ रही है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि पिछले दो दशक के भीतर स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति सरकारी तंत्र ने देखना उचित नहीं समझा। भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च लगभग 1.3 फीसद है, जो ब्रिक्स देशों में सबसे कम है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि हमारी सरकारें लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं और स्वास्थ्य के मुद्दे को संज्ञान में ले रही हैं। देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की एक तस्वीर यह भी है कि देश की 48 फीसद आबादी वाले 9 पिछड़े राज्यों में देश की सम्पूर्ण शिशु मृत्यु दर 70 फीसद है, तो वहीं लगभग 62 प्रतिशत मातृ मृत्यु दर है। देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का काफी अभाव है। विश्व स्वास्थ्य सूचकांक के कुल 188 देशों में भारत 143वें पायदान पर है जो साबित करता है कि स्वास्थ्य सुविधाओं में हम अफ्रीकी देशों से भी बदतर हालत में हैं।

ऐसे में नई स्वास्थ्य नीति मील का पत्थर साबित हो सकती है लेकिन यह नीति बीमार तंत्र और बुनियादी ढांचे के अभाव की वजह से ख्याली पुलाव भी साबित हो सकती है जिससे निपटने की तैयारी सरकार की होनी चाहिए। जब तक हमारे देश में मैट्रो शहरों से लेकर दूर-दूराज के इलाकों तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच सुनियोजित तरीके से नहीं हो पाती, तो हम कैसे अपने-आप को एक विकसित और समृद्ध राष्ट्र कहलाने की तरफ अग्रसर हो सकते हैं। आज देश की आबादी दिन दुगुनी-रात चौगुनी बढ़ रही है, उस लिहाज से स्वास्थ्य सुविधाओं का संजाल देश में नहीं बिछाया जा सका है, फिर यह देश के दूर-दराज इलाकों में रहने वाले उन मजदूर-किसानों के साथ सरासर नाइंसाफी है, जिसको 26 से 32 रुपए कमाने पर गरीब की श्रेणी से बाहर कर दिया जाता है। आज की कमरतोड़ महंगाई के दौर में 26 से 32 रुपए में कैसे परिवार का पालन-पोषण हो सकता है, इस पर सरकारों को खुद विचार करना होगा? स्वास्थ्य सेवाएं दिनोंदिन महंगी होती जा रही हैं और सरकारें मात्र सबको स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने का दावा करती रहेंगी? पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार को डेंगू से होने वाली मौत आैर मच्छर जनित रोगों पर गलत रिपोर्ट देने की वजह से हाईकोर्ट द्वारा फटकार लग चुकी है।

फिर भी सरकारें सचेत नहीं हो रही हैं। सरकार भी स्वीकार करती है कि देशभर में 14 लाख डाक्टरों की कमी है। कमी होने के बावजूद देश हर वर्ष 5500 डाक्टर ही तैयार कर पा रहा है। सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले पर विफल राज्यों की सूची में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, आेडिशा, राजस्थान आैर असम जैसे राज्य शामिल हैं। कई राज्यों ने स्वास्थ्य मद का मुश्किल से 3.8 फीसदी खर्च किया है। आज देश के कुछ राज्यों में तो मरीजों को लाने-ले जाने तक के लिए एम्बुलैंस सेवा उपलब्ध नहीं हो रही। ​ढिंढाेरा तो निःशुल्क स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराने का पीटा जाता है लेकिन अस्पताल में लगी मरीजों की भीड़ को पार करना बहुत बड़ी मुश्किल है। सरकारी स्वास्थ्य ढांचे में सुधार एक बड़ी चुनौती है जिसका सामना केन्द्र और राज्य सरकारों को करना ही होगा। इसके लिए स्वास्थ्य नीति के मौजूदा तौर-तरीकों को छोड़कर नए सिरे से कदम उठाने होंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

8 + two =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।