बिना किसी पद पर रहते आपको सब कुछ मिलता रहे तो क्या कहना। आम आदमी दिनभर मेहनत मजदूरी करता है और फिर अपने और अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी की मांग करता है लेकिन उसे मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। यह सुख तो हमारे राजनीतिज्ञों को मिलता है। भारतीय लोकतंत्र का कमाल देखिए आप भले ही पूर्व मुख्यमंत्री हों, लोकसभा और राज्यसभा के भी पूर्व सांसद हों तो भी बहुत से सुख मिलते रहते हैं। बड़े-बड़े नामी-गिरामी लोगों ने बरसों तक सरकारी बंगले नहीं छोड़े लेकिन कानून का डंडा चला तो उन्हें बंगले खाली करने पड़े। उन्होंने परिवार के साथ सरकारी आवासों का बड़ा लुत्फ उठाया। अनेक राजनीतिज्ञों ने तो सरकारी बंगलों में अपनी पसंद की साज-सज्जा आैर निर्माण भी कराया जैसे सरकारी बंगला बाप, दादा की जागीर हो। जाहिर है सरकारी बंगला छोड़ने पर दुःख तो होता ही है। एक बार सांसद या मंत्री बन जाने पर ही लोग बरसों सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग करते रहे हैं। दिल्ली में निर्वाचित प्रतिनिधियों एवं मनोनीत दोनों तरह के जन-प्रतिनिधियों के लिए सरकारी आवास बने हुए हैं। इनके रखरखाव पर सरकार करोड़ों खर्च करती है।
सरकारी आवास या बंगले सबको बड़े प्यारे और न्यारे लगते हैं। कई बार अदालतों ने पूर्व हो चुके जनप्रतिनिधियों को सरकारी बंगले खाली करने के आदेश भी दिए और अंततः इन्हें आवास खाली करने भी पड़े। अब सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले खाली करने के आदेश दिए। यह आदेश एक नजीर साबित होगा। अंततः शीर्ष न्यायालय के आदेश पर पूर्व मुख्यमंत्रियों काे सरकारी बंगले खाली करने के नोटिस भी जारी कर दिए गए। इससे खलबली तो मचनी ही थी। मुलायम सिंह यादव पिछले दिनों मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिले थे, हो सकता है नेताजी चाहते थे कि इसका कोई तोड़ निकाला जाए, फिलहाल कोई तोड़ निकलता दिखाई नहीं दे रहा। उन्होंने तो मुख्यमंत्री को फार्मूला भी सुझाया था जो मीडिया को लीक हो गया था।
अखिलेश यादव ने सरकारी बंगले में रहने के लिए दो वर्ष का समय मांगा है जबकि सुश्री मायावती ने अपने सरकारी बंगले के बाहर बोर्ड लगा दिया जिस पर लिखा है ‘कांशीराम यादगार विश्राम स्थल।’’ बसपा सुप्रीमो मायावती ने भले ही अपने लिए आशियाना ढूंढ लिया है, वह शीघ्र ही पास के निजी मकान में शिफ्ट होंगी लेकिन सरकारी बंगले पर कब्जा जमाए रखने के लिए उन्होंने कांशीराम के नाम का बोर्ड लगाकर अपना बंगला बचाने की कवायद शुरू की है। यद्यपि कांशीराम के नाम का बोर्ड नया है लेकिन इस नाम पर अगर कोई पुरानी लीज इस पते पर हुई होगी तो मामला पेचीदा हो सकता है। अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में राज्य के सभी मुख्यमंत्रियों को ताउम्र सरकारी बंगलों में रहने का कानून बनाया था। इसमें सभी राजनीतिक दलों के पूर्व मुख्यमंत्री शामिल थे। अखिलेश सरकार के फैसले का विरोध भी कौन करता क्योंकि इसमें सभी के हित शामिल थे। मुफ्त में सरकारी बंगला किसे अच्छा नहीं लगता। इस कानून को एक एनजीओ ने चुनौती दी तो यह मामला पूरी तरह पलट गया।
सुप्रीम कोर्ट ने कानून को पूरी तरह खारिज करते हुए साफ कहा कि जिस तरह सरकारी कर्मचारी अपनी सेवा खत्म करने के बाद सरकारी संपत्तियों का त्याग कर देते हैं, सरकारी घर और सुविधाएं छोड़ देते हैं उसी तरह पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी स्वेच्छा से सरकारी बंगले और सुविधाएं छोड़ देनी चाहिएं। सरकार का हिस्सा बनने के बाद राजनेताओं में सुख-सुविधा की आदत पड़ जाती है, जिससे वह बाहर नहीं निकल पाते। सत्ता में रहें या नहीं, बड़ा बंगला, नौकर-चाकर तो होने ही चाहिएं। समाज के लिए निर्वाचित जनप्रतिनिधि, मंत्री आैर मुख्यमंत्री रोल माडल होतेे हैं लेकिन जनप्रतिनिधि ही ऐसा आचरण दिखा रहे हैं तो फिर आम जनता को सादगी का पाठ कौन पढ़ाएगा।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश भले ही उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों के संदर्भ में दिया गया है, परन्तु जिन सिद्धांतों आैर मान्यताओं को इस फैसले का अाधार बनाया गया है, वह व्यापक है और अन्य राज्यों आैर केन्द्र पर लागू होते हैं। दूसरे राज्यों में भी वहां के पूर्व मुख्यमंत्री कब्जा किए हुए हैं। तलवार तो उन पर भी लटकी हुई है, देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला इन पर भी लागू होगा या राज्य सरकारें इसके प्रति आंखें मूंदे बैठी रहेंगी। संवैधानिक पद जाने के बाद मुख्यमंत्री हों या मंत्री, सभी आम नागरिक हो जाते हैं। यही बात सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें याद दिलाई है। जनप्रतिनिधियों को एक नहीं चार-चार बंगले चाहिएं लेकिन गरीब इंसान को एक अदद घर भी जीवन भर नसीब नहीं होता। राजनीतिज्ञों को स्वेच्छा से सरकारी बंगले त्याग देने चाहिएं और अच्छे आचरण का परिचय देना चाहिए।