केन्द्र सरकार ने देश की पांच सार्वजनिक कम्पनियों में अपने मालिकाना हक बेचने का जो फैसला किया है उसकी आलोचना विपक्षी दल संसद के भीतर और बाहर दोनों ही जगह कर रहे हैं। बेशक सरकार द्वारा अपनी सम्पत्ति बेचने का विपरीत मनोवैज्ञानिक प्रभाव आम जनता के दिमाग पर पड़ता है इसी वजह से यह राजनीतिक विषय भी हो जाता है मगर विशुद्ध आर्थिक दृष्टि से देखने पर हमें इसके दुतरफा असर दिखाई देंगे।
पहला तो यह कि 1991 में अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह जिस आर्थिक उदारीकरण की नीति को लाये थे उसने भारत की अर्थव्यवस्था के वे मूल मानक जड़ से बदल डाले थे जो स्वतन्त्रता के बाद इस देश के आर्थिक विकास के मूल मन्त्र बने हुए थे और जिनके भरोसे पर ही भारत ने अपना चौतरफा विकास किया था। दरअसल डा. मनमोहन सिंह वह नीति लेकर आये थे जिसके तहत भारत में आयी सामाजिक व आर्थिक जड़ता गतिमान हो सकती थी और भारत विश्व की अर्थव्यवस्था में सक्रिय भागीदार बन कर अपने औद्योगिक व वित्तीय विकास को नई उड़ान दे सकता था।
अतः भारत के बाजारों के दरवाजे खोले गये और विदेशी कम्पनियों को यहां कारोबार करने की सिलसिलेवार छूट दी गई जिससे प्रत्येक आर्थिक क्षेत्र में प्रतियोगिता का वातावरण बनता चला गया और धीरे-धीरे भारत कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उत्पादन केन्द्र बनने की तरफ बढ़ने लगा। इस प्रणाली की शर्त बाजार की मांग व शर्तों के अनुरूप अर्थव्यवस्था का समानुपाती विकास था जिसमें सरकार की भूमिका लगातार सीमित होनी स्वाभाविक थी। अतः आजादी के बाद जिन सार्वजनिक कम्पनियों की बदौलत भारत ने तरक्की की थी उनके संचालन व टैक्नोलोजी के क्षेत्र में प्रतियोगी वातावरण बनने लगा जिसकी वजह से सरकार ने ऐसी कम्पनियों में अपने मालिकाना हक निजी कम्पनियों को बेचने शुरू किये।
वाणिज्यिक प्रतियोगिता के इस सिद्धान्त के तहत सरकार भी अपने उपक्रमों में अधिकाधिक मुनाफा चाहती थी समय के अनुरूप बदलाव न होने की वजह से सार्वजनिक उत्पादन कम्पनियां घाटे का घर भी बनती जा रही थीं इसकी एक वजह यह भी थी कि सरकार व्यापारिक चालाकियों की परवाह नहीं करती थीं क्योंकि इन्हें चलाने वाले सरकारी अधिकारी इस जिम्मेदारी से स्वयं को ऊपर मानते थे। अतः डा. मनमोहन सिंह की नीति कारगर साबित हुई और घाटे में चलने वाली सरकारी कम्पनियों को निजी क्षेत्र को बेच कर सरकार ने लगातार घाटे की आशंका से छुटकारा पाना शुरू किया, किन्तु 1998 से 2004 तक भाजपा के नेतृत्व में चली वाजपेयी सरकार ने सार्वजनिक निवेश को सरकार के घाटा पूरा करने का घोषित साधन बनाया और इसके लिए एक पृथक मन्त्रालय तक बना डाला और आजकल ‘इंकलाब’ का झंडा उठा कर घूम रहे जनाब अरुण शौरी को विनिवेश मन्त्री बना दिया।
हुजूर ने सरकारी माल ऐसे बेचा जैसे ‘खैरात’ में मिली हुई ‘सौगात’ होती है। जनाब ने छह हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा का सालाना कारोबार करने वाली कम्पनी बाल्को को सिर्फ 550 करोड़ रुपए में एक निजी कम्पनी स्टर्लाइट इंडस्ट्रीज को बेच डाला जबकि छत्तीसगढ़ व प. बंगाल में उत्पादन इकाइयां रखने वाली इस कम्पनी का अपना बिजलीघर ही छह सौ करोड़ रुपए का आंका गया था। जनाबेवाला इसके बाद ‘बीएसएनएल’ को भी बेचने पर आमादा हो चुके थे। वह तो भला हो तब के लोकसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक ‘स्व. प्रियरंजन दास मुंशी’ का कि उन्होंने भरी संसद में ही इस सौदे की छिपी हुई कारस्तानियों को उधेड़ कर रख दिया जिस पर स्वयं स्व. प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी को हस्तक्षेप करना पड़ा।
दरअसल मुद्दा यह था कि पूंजी बाजार में अधिसूचित सार्वजनिक कम्पनियों की बिकवाली की भनक से सटोरिये शेयर बाजार में इनके शेयरों के भाव गिरा देते थे और सरकार की तरफ से बिकवाली के लिए मुकर्रर की गई ‘मर्चेंट बैंकर फर्म’ के साथ संभावित खरीदार की सांठगांठ सरकार को ही चूना बड़े आराम से लगा देती थी। संयोग से पैट्रोलियम क्षेत्र की जिस ‘भारत पैट्रोलियम’ कम्पनी में मोदी मन्त्रिमंडल ने अपने 53 प्रतिशत शेयर बेचने का ऐलान किया है उसे भी हिन्दुस्तान पैट्रोलियम कम्पनी के साथ श्री शौरी 2003 में बेचना चाहते थे मगर तब सर्वोच्च न्यायालय ने इसे यह कह कर रोक दिया था कि इस कम्पनी का 1974 में संसद ने कानून बना कर राष्ट्रीयकरण किया था अतः इसका फैसला संसद में होना जरूरी है, परन्तु इसके बाद मनमोहन सरकार के दस वर्ष तक सत्ता में रहते ही वैधानिक अड़चनें दूर हुईं और वर्तमान आर्थिक वातावरण को देखते हुए सरकार ने इसके विनिवेश का फैसला विशुद्ध रूप से भारत के बदलते आर्थिक परिवेश को देख कर लिया है।
वजह साफ है कि पैट्रोलियम क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय महारथी कम्पनियां भारत में कारोबार कर रही हैं और वे हमारी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों की सीमित कारोबारी गतिविधियों के मुनाफे में दरार डाल सकती हैं। अतः बिना शक मुनाफे में चल रही भारत पैट्रोलियम कम्पनी के कारोबारी रसूख का फिलहाल ज्यादा से ज्यादा लाभ सरकार को मिल सकता है, जबकि सरकार ने ‘ओएनजीसी’ जैसी विशाल कम्पनी में हिन्दुस्तान पैट्रोलियम का विलय करके इसे बाजार में अपनी ताकत के बूते पर खड़े रहने के काबिल बना दिया है। फैसला भविष्य के परिवेश को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए परन्तु शौरी साहब जो वाजपेयी प्रशासन में कर रहे थे वह पूरी तरह ‘घर के बर्तन बेच कर घी खाने’ के समान था क्योंकि तब सम्बन्धित क्षेत्रों में विदेशी प्रतियोगिता का डर नहीं था।
अब तो अर्थव्यवस्था की यह शर्त बन चुका है। यह काम मोदी सरकार चोरी से भी नहीं कर रही है क्योंकि चालू वित्त वर्ष के बजट में ही इसने एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि विनिवेश के जरिये ही जुटाने का आंकड़ा रखा हुआ है। भारत पैट्रोलियम के साथ शिपिंग कार्पोरेशन व कंटेनर कार्पोरेशन का भी विनिवेश होगा। दोनों ही क्षेत्र महाप्रतियोगी बन चुके हैं। इसके साथ ही टिहरी हाइड्रो व नीपको जैसे बिजली उत्पादन कम्पनियों को सरकारी क्षेत्र की ही कम्पनी एनटीपीसी लि. को बेच दिया जायेगा। यह कार्य भी प्रतियोगी माहौल को देखते हुए ही किया जा रहा है। अतः तस्वीर के दोनों पहलुओं को हमें परखना चाहिए और फिर शोर मचाना चाहिए।