श्रीराम तो हमारे भगवान हैं। जिस श्रीराम ने एक मर्यादा यह कहकर स्थापित की प्राण जाए पर वचन न जाए लेकिन सरकार इस बार श्रीराम मंदिर बनाने को लेकर सचमुच एक नए संकल्प के साथ उतरी है। यद्यपि बरसों से राम मंदिर का मुद्दा हमारे यहां गर्मा रहा है। जिस अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म हुआ वहां मंदिर के निर्माण को लेकर कोई लेकिन परंतु लगना ही नहीं चाहिए। दु:ख इस बात का है कि जिस वक्त बाबरी मस्जिद अयोध्या में नेस्तनाबूद की गई तो 1996 से लेकर आज तक हालात कभी भी अनुकूल नहीं बन पाए। श्रीराम तो हर भारतीय के हैं। ऐसे में संतों ने भी मंदिर निर्माण के लिए पहल कर रखी है।
हम इस मामले में मोदी सरकार के मास्टर प्लान की तारीफ करना चाहेंगे कि जब सरकार ने एक यह योजना बनाई कि अब अयोध्या में जितनी भी श्रीराम मंदिर के आसपास की वह भूमि जिस पर कोई विवाद नहीं है वह वापस ली जानी चाहिए। यह एक बहुत अच्छा पग है। इसे राजनीति से जोड़ा भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि श्रीराम मंदिर निर्माण को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। मोदी सरकार की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने 67 एकड़ भूमि जो मंदिर के आसपास की है, पर यथास्थिति कायम रखनी चाहिए। बड़ी बात यह है कि किसी वक्त 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अगर अयोध्या में जमीन का अधिग्रहण कर लिया था तो यकीनन उसका मकसद मंदिर निर्माण को लेकर था। कहने वाले कह रहे हैं कि मंदिर निर्माण को लेकर कई पक्ष बने हुए हैं लेकिन सच यही है कि निर्मोही अखाड़ा जो एक पक्ष है वह केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण संबंधी आवेदन को लेकर थोड़ा नाराज है और उधर मुस्लिम पक्ष भी अलग राय रखते हैं। परंतु हमारा मानना है कि ये दोनों ही पक्ष हर बार यही कह चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला देगी उन्हें मंजूर है। जब अभी फैसला आया ही नहीं और सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में आवेदन देती है तो किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार की अर्जी इसी बात को लेकर तो लगी है कि मंदिर के आसपास की गैर विवादित भूमि न्यास वोर्ड को मिल जाए तो इसमें किसी को क्या आपत्ति है? जब सुप्रीम कोर्ट सुनवाई शुरू करेगी तो वह इस पर गौर कर लेगी।
सरकार के मंत्री रह-रहकर यह आवाज बुलंद करते रहे हैं कि कानून के रास्ते से मंदिर निर्माण होना चाहिए। मंदिर निर्माण जल्दी होना चाहिए। इसी मामले को लेकर विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस के लोग भी अपनी बात उठाते रहे हैं। इसमें कोई बुरी बात भी नहीं है। संतों का योगदान भी मंदिर निर्माण के प्रति पूरा ईमानदार रहा है। जब एक तरफ धर्म संसद बन जाए और दूसरी तरफ परम धर्म संसद बन जाए तो इन दोनों का एजेंडा एक ही हो, वो राम मंदिर निर्माण का हो तो फिर दिक्कत नहीं आनी चाहिए। मकसद तो एक ही है कि मंदिर निर्माण होना चाहिए। निर्मोही अखाड़ा या राम जन्म भूमि न्यास इन दोनों की पहल भी तो मंदिर निर्माण को लेकर ही है, तो फिर क्यों धर्म संसद और परम धर्म संसद के बीच अलग-अलग शब्द बाण चले। मंदिर निर्माण को लेकर तो एक ही बाण चलना चाहिए और जिसका नाम रामबाण होना चाहिए। वैसे भी सरकार मंदिर निर्माण के लिए तमाम न्यायायिक प्रक्रिया का पालन कर रही है।
जब मामला सुप्रीम कोर्ट में हो तो मर्यादा इसी में छिपी है कि उसका पालन किया जाना चाहिए। खुशी की बात यह हैकि अब जनता शांति के साथ मंदिर निर्माण का इंतजार कर ही है तो वहीं संत समाज अधीर हो रहा है। सब्र का पैमाना भर रहा है और धर्म गुरु और बुद्धिजीवी मर्यादाओं की सीमा का पालन करें तो बहुत अच्छी बात है। न राम विवाद हैं, न मंदिर विवाद है तो फिर उनके नाम की भूमि को लेकर विवाद कैसा? इस मामले को लेकर अगर सवाल उठ रहे हैं और मामला कोर्ट में है तो फिर कानून को अपना काम करने दो। ये कानूनी अड़चनें भी एक दिन पार हो जाएंगी।
बरसों बरस पहले सौगंध राम की खाते हैं कि हम मंदिर वहीं बनाएंगे, जैसे वचन निभाने का समय अब आ गया है। मंदिर बनाने के लिए अगर सभी संत समाज, सभी धर्म संसद और परम संसद के अलावा देश की संसद भी अध्यादेश लाने को तैयार है, जनता पहले से ही तैयार है तो बस सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था भी मंदिर निर्माण को लेकर अब आ ही जानी चाहिए। मोदी सरकार ने पिछले दिनों जिस तरह से कानून के दायरे में खुद को रखकर फूंक-फूंककर कदम बढ़ाते हुए सही दिशा पकड़ी है तो उस पर संतों को भी कोई सियासत नहीं करनी चाहिए। हालांकि 21 फरवरी से परम धर्म संसद ने मंदिर निर्माण शुरू करने का ऐलान किया है, वहीं विश्व हिन्दू परिषद, आरएसएस और धर्म संसद ने भी मंदिर निर्माण को लेकर अपना स्टैंड मजबूती से रखा है। वो भी मंदिर निर्माण ही चाहते हैं तो यह एक अच्छी पहल हो ही गई और इस रास्ते में कोई टकराव नहीं होना चाहिए, ऐसी ही आशा है और राम मंदिर अयोध्या में ही बहुत जल्द बनेगा, इसका इंतजार संत समाज, सरकार और पूरे देश को है।