भारत के संविधान में राज्यपालों और किसी प्रदेश की चुनी हुई सरकार के मुख्यमन्त्रियों के अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या है जिसमें राज्यपाल की जिम्मेदारी अपने प्रदेश में संविधान की सुरक्षा, संरक्षण और उसके स्वरूप की अनुपालना है। इसके साथ ही मुख्यमन्त्री जिस सरकार के मुखिया होते हैं, उसकी प्राथमिक जवाबदेही विधानसभा के प्रति होती है। बहुमत के आधार पर विधानसभा में जो भी फैसले लिये जाते हैं, उन पर अपनी सहमति की मुहर लगाने के लिए राज्यपाल बाध्य होते हैं क्योंकि संविधानतः यह उन्हीं की सरकार होती है। संवैधानिक मुखिया होने के नाते जिस दल की भी बहुमत के आधार पर सरकार बनती है वह राज्यपाल की ही होती है। इसी वजह से विधानसभा के सत्र की शुरूआत राज्यपाल के अभिभाषण से होती है और उसे सदन में पारित कराना सरकार की जिम्मेदारी होती है। अतः यह बेवजह नहीं है कि यदि विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर चली बहस के बाद धन्यवाद प्रस्ताव को यदि कोई सरकार पारित कराने में असफल हो जाती है तो मुख्यमन्त्री को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता है। इसकी मूल वजह यही है कि राज्यपाल जो भी अभिभाषण सदन में देते हैं, वह सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों के बारे में ही होता है और इसे सदन में पारित कराना जरूरी हो जाता है क्योंकि राज्यपाल का चुनी हुई सरकार के काम में कोई दखल नहीं होता है। लोगों द्वारा जनादेश प्राप्त सरकार जो भी फैसले करती है वे विधानसभा में बहुमत के आधार पर पारित होते हैं।
राज्यपाल रवि ने जिस तरह विधानसभा में अपना आधा- अधूरा अभिभाषण पढ़ा और वह राष्ट्रगान होने से पहले ही जिस तरह सदन से बाहर चले गये इसका सन्देश अखिल भारतीय स्तर पर भारत की घटीया परिकल्पना के विरुद्ध ही गया है। यदि हम स्वतन्त्र भारत का संसदीय इतिहास देखें तो राज्यपाल द्वारा अधूरा भाषण पढ़ने या उन हिस्सों को न पढ़ने के मामले पहले भी होते रहे हैं और राज्यपाल के भाषण को पूरा पढ़ा हुआ माना गया है। श्री रवि ने इस ओर ध्यान देना उचित नहीं समझा और उन्होंने सदन में अपने हिसाब से ही अभिभाषण को अधूरा पढ़ा हुआ छोड़ दिया अथवा अपनी तरफ से कुछ शब्दों को जोड़-घटाव कर दिया। जिस पर राज्य सरकार को आपत्ति हुई और सत्तारूढ़ द्रमुक के विधायकों ने इसका विरोध भी किया।
सवाल यह नहीं है कि किस राज्य में किस पार्टी की सरकार है बल्कि असली सवाल यह है कि संविधान क्या कहता है? संविधान में राज्यपाल का पद न तो सजावटी है और न ही कार्यकारी है। अधिशासी अधिकारों से लैस राज्य की चुनी हुई सरकार होती है जो कि संविधान सम्मत तरीके से इसके दायरे में अपना शासन चलाने के लिए बाध्य होती है। राज्यपाल भी राष्ट्रपति की तरह संवैधानिक मुखिया होते हैं और विधानसभा का हिस्सा भी होते हैं क्योंकि उनके ही आदेश से विधानसभा का सत्र बुलाया जाता है और उसका सत्रावसान किया जाता है मगर यह काम वह अपनी मर्जी से नहीं कर सकते। इसके लिए उन्हें सरकार की सिफारिश की जरूरत होती है। उन्हें सलाह व मदद देने के लिए चुनी हुई सरकार होती है। इस बारे में भी स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था है कि राज्यपाल किसी विधेयक को सरकार के विचारार्थ लौटा सकते हैं मगर पुनः उसके पारित होने पर उन्हें उस विधेयक पर हस्ताक्षर करने ही पड़ेंगे। श्री रवि के विचारार्थ तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित किये गये 15 विधेयक कई महीनों से लम्बित हैं जिन्हें लेकर वहां की द्रमुक सरकार में रोष है और इस राज्य के सांसद राष्ट्रपति से भी इस बारे में शिकायत कर चुके हैं। यह स्थिति भारत के संसदीय लोकतन्त्र के लिए किसी भी तौर पर अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि राज्यपाल व मुख्यमन्त्री आपस में मिलकर इस प्रकार काम करते हैं जिस तरह पानी में चीनी।
राज्यपाल का पद स्वतन्त्र भारत में रखने की एक ही वजह थी कि राज्यों के संघ भारत में राज्यों व केन्द्र के बीच अटूट सम्बन्ध बना रहे और प्रत्येक राज्य संविधान सम्मत तरीके से ही शासन चलाये। एेसा राज्य सरकारों पर अंकुश लगाने के लिए नहीं किया गया था बल्कि भारत की संघीय व्यवस्था को मजबूत करने के लिए किया गया था। वरना संविधान निर्माताओं के सामने यह प्रश्न भी था कि आजाद भारत में राज्यपाल के पद की क्या जरूरत है? मगर इस तर्क के विरोध में जो तर्क दिया गया उसमें बहुत वजन था क्योंकि भारत की बहुदलीय राजनैतिक व्यवस्था को देखते हुए हमारे पुरखों के मन में यह विचार था कि कालान्तर में राजनैतिक दल अपनी क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कहीं संविधान से बाहर ही न चले जाएं, इसीलिए राज्यपाल के पद का सृजन किया गया और उसे राज्य का संवैधानिक मुखिया भी बनाया गया जिससे वह यह देख सके कि राज्य सरकार का शासन संविधान सम्मत परिपाटी के अनुरूप ही चले।