1984 के बाद से अब तक यमुना में बहुत पानी बह चुका है मगर सियासत के बोलों का वह नागफनी अन्दाज नहीं बदला है जिसने 35 साल पहले भी इस नदी के बहते जल को जहरीला बना डाला था और आज भी इसी तर्ज पर इसे विषैला बनाने के प्रयास हुए हैं। अतः दिल्ली उच्च न्यायालय ने राजधानी में पिछले तीन दिनों में हुई हिंसा को लेकर जो तीखी टिप्पणी की है उसे हर राजनैतिक दल को अत्यन्त गंभीरता से लेते हुए अपने-अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए लेकिन न्यायालय ने सबसे ज्यादा फटकार दिल्ली पुलिस को लगाई है और उसे उसका कर्त्तव्य याद दिलाते हुए कहा है कि वह उन नेताओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करे जिन्होंने दिल्ली में साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने में उत्प्रेरक का काम किया है।
उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशाें का यह कहना कि वह दिल्ली में 1984 की पुनरावृत्ति नहीं होने देंगे, साफ बताता है कि पुलिस अपने संवैधानिक दायित्व में कोताही बरतने की वजह से कटघरे में खड़ी हो चुकी है। सबसे पहले यह समझना चाहिए कि लोकतन्त्र में पुलिस जनता की पुलिस ही होती है क्योंकि वह जनता द्वारा चुने गये नुमाइन्दों की निगरानी में काम करती है और ये नुमाइन्दें संविधान की शपथ लेकर ही प्रशासन चलाते हैं। संविधान प्रत्येक नागरिक की जान की हिफाजत करने का दायित्व सरकार या सत्ता के जिम्मे डालता है और पुलिस इसी संविधान के अनुसार अपनी जिम्मेदारी निभाती है और कानून का राज कायम करने में सरकार की मदद करती है
अतः किसी भी नागरिक की सुरक्षा की गारंटी उसके सिर पर आ झाती है। कानून के राज का मतलब ही जनता के राज से होता है क्योंकि जनता ने ही संविधान को स्वीकार करके इसके राज को लोकतन्त्र का अभीष्ट बनाया होता है। अतःपुलिस की भूमिका के बारे में जरा भी गफलत में पड़ने की जरूरत नहीं है। उसका काम बिना किसी भेदभाव या पक्षपात के कानून तोड़ने वाले के खिलाफ कानून के अनुसार ही कार्रवाई करने का होता है। इसी वजह से उच्च न्यायालय ने पूछा है कि पुलिस बताये कि वह कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर और अभय कुमार के खिलाफ कब कार्रवाई करेगी। बेशक ये चारों नेता भाजपा के हैं और जनता द्वारा चुन कर ही विभिन्न सदनों में भेजे गये हैं जहां पहुंच कर उन्होंने सबसे पहले संविधान की शपथ लेकर ही अपने कामकाज की शुरूआत होगी अतः संविधान का शासन कायम रखना उनका पहला दायित्व बनता है।
सवाल यह है कि सीएए के मुद्दे पर साम्प्रदायिक कलेवर में आम नागरिकों की गिरोहबन्दी को कौन लोग उकसा रहे हैं। दुख की बात ये है कि इन चारों नेताओं ने इसी विषय के सम्बन्ध में भारतीय नागरिकों के एक धार्मिक वर्ग के प्रति नफरत का वातावरण बनाने की कोशिश हिंसा की वजह नफरत ही होती है जो लोगों को बहका कर दिमाग की जगह हाथों से काम लेने की तरफ उकसाती है। ऐसी स्थिति को बनने से पहले ही खत्म करने की जिम्मेदारी पुलिस की होती है। पुलिस इसके लिए कानूनी तौर पर इस तरह सुसज्जित होती है कि वह बड़े से बड़े व्यक्ति के खिलाफ भी अपने अख्तियारों के बूते पर कार्रवाई करके उसे अदालत के सामने पेश कर सकती है। जब दिल्ली में हुए चुनावों से लेकर बाद तक इन नेताओं की वे वीडियो जमकर समाज में घूमती रहीं जिनमें एक समाज के खिलाफ नफरत भरी हुई थी तो पुलिस कार्रवाई करने में क्यों हिचक गई ?
लोकतन्त्र में किसी भी राजनैतिक दल की सरकार हो सकती है मगर शासन संविधान का ही होता है। यह बहुत बड़ी गुत्थी या पहेली नहीं है जिसे आम आदमी समझ ही न सके यही वजह है कि संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय अवैध या असंवैधानिक घाेषित कर देता है और सरकार द्वारा किये गये फैसलों को भी अवैध कारर दे देता है। हमारा लोकतन्त्र इसी वजह से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहलाता है कि इसमें कानून की गिरफ्त से छुटकारा किसी को भी नहीं है, चाहे उसका पद कितना भी ऊंचा या बड़ा क्यों न हो। यह सन्तोष का विषय हो सकता है कि राजधानी की सड़कों पर स्वयं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार उतर कर पुलिस बन्दोबस्त का जायजा ले रहे हैं।
मगर यह असामान्य ही कहा जायेगा कि दिल्ली में पर्याप्त संख्या में पुलिस बल है लेकिन दो दिन तक जिस तरह कुछ गुंडों के गिरोहों ने हाथों में लाठी-डंडे, तमंचे और राड लेकर लोगों की हत्याएं की और करोड़ों की निजी सम्पत्ति को फूंक डाला तथा कुछ लोगों ने पुलिस को भी नहीं बख्शा उससे स्थिति की गंभीरता का एहसास उच्च न्यायालय को हुआ और उसने 1984 की घटना को याद किया। हम भारतवासी कसम उठाये कि हम सबसे पहले भारतीय हैं हिन्दू-मुसलमान बाद में जो सम्पत्ति नष्ट हुई है और लोगों की जान गई है वह भारत का ही नुकसान हुआ है।