लोकतन्त्र का महापर्व और लोग

लोकतन्त्र का महापर्व और लोग
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चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनावों को सात चरणों में कराने का फैसला करके भारत जैसे विशाल व विविधता से भरे देश में यह प्रक्रिया सुगम बनाने हेतु दस लाख से अधिक कर्मचारियों व सुरक्षा कर्मियों की सेवाएं लेने की घोषणा भी की है। निश्चित रूप से पहाड़ी राज्यों से लेकर समुद्रतटीय राज्यों में एक साथ चुनाव कराना आसान काम नहीं है। इसके लिए चुनाव आयोग को महीनों पहले से तैयारी करनी पड़ती है। चुनावों में आयोग की सबसे बड़ी जिम्मेदारी इनमें भाग्य आजमाने वाले सभी राजनैतिक दलों के लिए एक समान परिस्थितियां सुलभ कराने की होती है जिसे लेवल प्लेयिंग फील्ड कहा जाता है। इस सन्दर्भ में राजनैतिक दल विशेषकर विपक्षी पार्टियां आदर्श आचार संहिता के नियमों को लागू करने को लेकर पूर्व में उनके द्वारा की गई शिकायतों की उपेक्षा करने की शिकायत करते रहे हैं। अतः 19 अप्रैल से 1 जून तक होने वाले इन चुनावों को पूरी तरह निष्पक्ष रखने के लिए चुनाव आयोग को सतर्क रहना होगा। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है और उदार बहुदलीय राजनैतिक प्रणाली का जीवन्त लोकतन्त्र है जिसकी वजह से चुनावों में होने वाला प्रचार भी हमें विविधतापूर्ण व रंग-रंगीला दिखाई पड़ता है मगर इसमें कहीं-कहीं कसैलापन और आपसी रंजिश का पुट भी आता है। स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए जरूरी है कि सभी राजनैतिक दल एेसे प्रयासों से बचें और अपनी-अपनी भाषा पर नियन्त्रण रखें। लोकतन्त्र की लड़ाई सिद्धान्तों व विचारधारा को लेकर होती है मगर इसमें भाग लेने वाले व्यक्तियों का भी महत्व कम नहीं होता अतः चुनावों में खड़े हुए प्रत्याशियों की चरित्र हत्या से बचना चाहिए और केवल उसी विवरण पर बात करनी चाहिए जो कि प्रत्येक प्रत्याशी चुनाव आयोग में दाखिल अपने शपथ पत्र में कहता है। चुनाव आयोग जब आदर्श आचार संहिता लागू करता है तो सभी राजनैतिक दलों से अपेक्षा करता है कि वे उसके नियमों का पालन करें इसमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी सत्ताधारी पार्टी की होती है क्योंकि चुनाव नतीजे आने तक उसकी सरकार होती है। हालांकि समूची प्रशासन व्यवस्था चुनाव आयोग की निगरानी में रहती है मगर सरकार को रोजाना के जरूरी कामकाज को भी निपटाना पड़ता है अतः प्रत्यक्ष रूप से शासन की कर्ताधर्ता वही रहती है। जहां तक विपक्षी पार्टियों का सवाल है तो उन्हें भी सत्ताधारी पार्टी पर उसके पिछले कामकाज के हिसाब से ही आक्रमण करना चाहिए और अपनी नीतियों की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए कि वे हर मोर्चे पर सत्तारूढ़ दल की नीतियों का मुकाबला करती लगे। मगर हम अक्सर चुनाव प्रचार में सत्तारूढ़ व विपक्ष दोनों को ही आपे से बाहर होते देखते हैं। हालांकि लोकतन्त्र में इसे भी स्वाभाविक प्रक्रिया माना जाता है क्योंकि जब दोनों ही पक्ष चुनाव के जोश में होते हैं तो अपना होश खो बैठते हैं। उन्हें होश में रहने की याद दिलाना चुनाव आयोग का ही काम होता है जिसकी वजह से वह आदर्श आचार संहिता लगाता है। भारत के लोग ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी लोकतान्त्रिक देशाें के लोग चुनावों को एक पर्व समझते हैं क्योंकि इसमें लोग अपनी मनपसन्द सरकार के हाथ में निश्चित अवधि के लिए सत्ता सौंपते हैं और नये चुनाव आने पर उसके कामकाज की समीक्षा करते हैं। भारत में यह अवधि पांच वर्ष की होती है और इस दौरान सत्ता पर काबिज सरकार वोट देने वाले मतदाताओं की मालिक नहीं बल्कि नौकर होती है। लोकतन्त्र की यह अद्भुत विधा हमें गांधी बाबा और डा. अम्बेडकर देकर गये हैं जिन्होंने भारत के प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के एक वोट का अधिकार देकर यह घोषणा की थी कि स्वतन्त्र भारत में राजनैतिक चयन के मामले में हर नागरिक स्वयंभू होगा और बिना किसी डर या लालच के वह अपना मत किसी भी राजनैतिक दल या प्रत्याशी को स्वतन्त्र होकर दे सकेगा। चुनाव का यह पर्व इसी राजनैतिक स्वतन्त्रता का पर्व है जिसे प्रत्येक नागरिक को पूरे आनंद के साथ मनाना चाहिए और अपने वोट की कीमत को पहचानना चाहिए क्योंकि किसी झोपड़ी में निवास करने वाले या मजदूरी करने वाले नागरिक के वोट की भी उतनी कीमत है जितनी कि किसी धन्ना सेट या हवाई जहाज में उड़ने वाले नागरिक के वोट की। इसीलिए इसे एेसा कीमती वोट कहा जाता है जिसकी कोई कीमत नहीं आकीं जा सकती। इसकी वजह साफ है कि भारत में जो चुनावी हार-जीत की प्रक्रिया है वह व्यक्तिगत जीत के आधार पर है अर्थात यदि किसी चुनाव क्षेत्र में 10 प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे हैं तो उनमें से वही जीतेगा जिसे सबसे ज्यादा वोट मिलेंगे। यदि किसी प्रत्याशी को अपने से पीछे रहने वाले प्रत्याशी के मुकाबले एक वोट भी अधिक मिलता है तो विजयी वही होगा। इसी वजह से वोट को बेशकीमती वोट कहा जाता है। इसलिए जरूरी है कि प्रत्येक नागरिक इस वोट की कीमत को समझे और चुनावों में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी करके अपने उस महान अधिकार का प्रयोग करे जो उसे स्वयंभू नागरिक बनाता है। यह अधिकार वास्तव में हमारी पुरानी पीढि़यों ने लाखों कुर्बानियां देकर हासिल किया है। इन चुनावों में कुल वयस्त मतदाता 96 करोड़ से अधिक होंगे अतः अधिक से अधिक संख्या में मतदान करना हर नागरिक का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।

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