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भारत की महान संसद

भारतीय राजनीति की यह विशेषता रही है कि जब भी देश में कोई संकटकालीन परिस्थिति बनती है तो इसके राजनीतिज्ञ समय की मांग के अऩुरूप उठ कर खड़े हो जाते हैं और जनता को दिखा देते हैं

भारतीय राजनीति की यह विशेषता रही है कि जब भी देश में कोई संकटकालीन परिस्थिति बनती है तो इसके राजनीतिज्ञ समय की मांग के अऩुरूप उठ कर खड़े हो जाते हैं और जनता को दिखा देते हैं कि उनके हित केवल आम आदमी के हितों के संरक्षण में ही निहित रहते हैं। स्वतन्त्रता के बाद हमारा संसदीय इतिहास इस तथ्य की गवाही सप्रमाण देता रहा है जब संसद में बैठे राजनीतिज्ञों ने दलगत हितों को त्याग कर राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि माना और उसी के अनुरूप आचरण भी किया। किसान आन्दोलन के मुद्दे पर मची हुई जबर्दस्त पक्ष-विपक्ष की राजनीति के बीच यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि तीन कृषि कानूनों का विरोध करने वाले विपक्षी दल इसी मुद्दे पर अलग से बहस करने की उनकी मांग न माने जाने पर संसद का या तो बहिष्कार करेंगे अथवा इसे चलने नहीं देंगे परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और विपक्षी दलों ने संसद की कार्यवाही में भाग लेते हुए राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई चर्चा में भाग लिया और इसी के दौरान किसानों के मुद्दे पर अपने विचार भी व्यक्त किये। वरना जिस तरह संसद से बाहर सड़कों पर किसानों का आंदोलन जारी है। उसे देखते हुए सुर्खियां बटोरने के लिए विपक्षी दल संसद को माध्यम बना सकते थे। यह बताता है कि हम दुनिया को सबसे बड़े संसदीय लोकतन्त्र ही नहीं हैं बल्कि परिपक्व लोकतन्त्र भी हैं। किसी भी लोकतन्त्र की परिपक्वता इस बात से तय होती है कि उसके विपक्ष का रवैया कैसा रहता है।
 संसद निश्चित रूप से बहस करने और फैसले करने के लिए होती है जिससे आम लोगों की जिन्दगी में बदलाव आ सके और वे बेहतर जीवन जीने की तरफ बढ़ सकें। यह कार्य लोकतन्त्र में चुने हुए सदनों के भीतर निरपेक्ष भाव से सकारात्मक वाद-विवाद के माध्यम से ही किया जाता है। अतः राज्यसभा में आज जिस मित्रवत  माहौल में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा की शुरूआत हुई वह संसद के बाहर के हंगामी माहौल का यथोचित व जायजा ही कहा जायेगा। 
सदन में विपक्ष के नेता श्री गुलाम नबी आजाद ने जिस शालीनता और संयम व बेबाक तरीके से कृषि कानूनों के बारे में प्रधानमन्त्री की मौजूदगी में अपने विचारों को व्यक्त किया वह साठ व सत्तर के दशक की राज्यसभा की याद दिलाते हैं जब इस सदन में स्व. एस.एम. द्विवेदी व भूपेश गुप्त आदि जैसे नेता हुआ करते थे (सभी नामों को लिखना यहां संभव नहीं है)। श्री आजाद ने जिस अंदाज से सभापति के माध्यम से सदन में बैठे प्रधनामंत्री से आग्रह किया कि वे किसी भी कीमत पर देश के किसानों को अपने विरोध में न जाने दें।  केवल लोकतन्त्र में ही संभव हो सकता है जब विरोधी दल का कोई नेता अपनी पार्टी के फायदे-नुकसान का ख्याल छोड़ कर देश के फायदे की सलाह देता है।
 हमारे लोकतन्त्र की यही सबसे बड़ी खूबी है कि सड़कों पर कभी-कभी जिन नेताओं की आपसी विरोधी दलों के नेता व कार्यकर्ता कटु आलोचना करने से बाज नहीं आते और एक- दूसरे की आलोचना में अपशब्दों तक का इस्तेमाल कर जाते हैं, वे ही नेता जब किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर बहस करते हैं तो अपने-पराये का भेदभाव भुला देते हैं। श्री आजाद ने तो यहां तक कह दिया कि तीनों कानूनों को वापस लेने में क्या बुराई हो सकती है क्योंकि भारत का इतिहास हमें बताता है कि किसानों ने मुगल काल से लेकर अंग्रेजों के दौर तक में जब भी विरोध का सुर पकड़ा है तो उन वक्तों के हुक्मरानों को अपना रवैया बदलना पड़ा है। जबकि उनसे पूर्व भाजपा के एक सांसद विजयपाल सिंह ने नये कानूनों को किसानों की हालत में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाला बताते हुए उन ठोस तर्कों का सहारा लिया जो बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की महत्ता को रेखांकित करते हैं।
 दरअसल यह लोकतन्त्र ही है जिसमें हम इस प्रकार की बहस रचनात्मक बहस कर सकते हैं। चर्चा में 26 जनवरी की शर्मनाक घटना का जिक्र न हो, यह कैसे संभव था। अतः बीजू जनता दल के सांसद श्री प्रसन्न आचार्य ने इसे शीशे में उतारने वाली शब्दावली का प्रयोग करते हुए स्पष्ट किया कि लालकिले की गरिमा और गौरव को अपमानित करने वाले इस देश विरोधी कृत्य की निष्पक्ष जांच की जानी जरूरी है और यह जांच सर्वोच्च न्यायालय के किसी सेवारत न्यायाधीश से कराई जानी चाहिए। श्री आचार्य ने इस मुद्दे पर सरकार से लेकर आन्दोलकारी किसानों की भूमिका की जांच पर इसलिए जोर दिया जिससे देश के आम लोगों को सत्य का पता चल सके। इसके साथ ही द्रमुक के नेता त्रिची शिवा ने अपनी समालोचना में कोई एेसा पक्ष नहीं छोड़ा जो लोकतन्त्र में पारदर्शिता बनाये रखने के लिए जरूरी होता है। जबकि भाजपा सांसदों ने कोई ऐसा विषय नहीं छोड़ा जिस पर मौजूदा सरकार व प्रधानमन्त्री को आम जनता की तरफ से वाहवाही न मिली हो। बेशक लोकतन्त्र का यह भी नियम होता है कि जब सड़कों पर हंगामा मचा हो तो संसद खामोश नहीं रह सकती परन्तु करोड़ों लोगों की रहनुमाई करने वाले संसद सदस्य किस तरह संयमित होकर सड़कों का ही प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, यह आज की बहस से राज्यसभा में साबित हो गया। इसलिए किसी भी भारतवासी को निराश होने की जरूरत नहीं है क्योंकि लोकतन्त्र भारत की माटी का तन्त्र बन चुका है। अतः डेमोक्रेसी जिन्दाबाद। हमारी संसद जिन्दाबाद।   

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