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जीएसटीः संशोधन का स्वागत

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पूरे देश में कोहराम मचने के बाद जिस प्रकार सरकार ने जीएसटी (वस्तु व सेवा कर) की दरें घटाने का एेलान किया है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नरेन्द्र मोदी सरकार लकीर की फकीर नहीं है। जीएसटी दरों में बड़ा बदलाव करते हुए उसने भारत की उस आर्थिक विविधता को पहचाना है जिसके बूते पर इस देश के लोगों ने विकास की सीढि़यां चढ़ी हैं और भारत की चहुंमुखी प्रगति में अपना अमूल्य योगदान किया है। किसी भी अार्थिक ढांचे में व्यापार या वाणिज्य पद्धति को बेइमानी के सांचे में ढाल कर नहीं देखा जा सकता है। समाज के विकास में व्यापार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि इसके माध्यम से साधारण नागरिक में आर्थिक क्षमता का सृजन होता है जिसका उपयोग अन्ततः समाज के सशक्तीकरण में ही होता है और इसके माध्यम से ही किसी भी शासन व्यवस्था का वित्तीय पोषण होता है। यह बेवजह नहीं था कि 2350 वर्ष पहले ही भारत के महान राजनीतिक चिन्तक आचार्य चाणक्य ने अपने नीति सूत्रों में लिखा था कि ‘राजा को अपनी प्रजा को व्यापार करने का उन्मुक्त वातावरण प्रदान करते हुए शुल्क इस प्रकार वसूल करना चाहिए जिस प्रकार मधुमक्खियां विभिन्न पुष्पों से पराग एकत्रित करके शहद का निर्माण करती हैं।’ इसका अर्थ यही है कि अपने राज्य में राजा काे व्यापार को फलने–फूलने का वातावरण पैदा करके तार्किक ​बुिद्ध का इस्तेमाल करते हुए कर या शुल्क ढांचा इस प्रकार तैयार करना चाहिए जिससे प्रत्येक क्षेत्र या वर्ग के व्यापारी को शुल्क देने में पीड़ा का अनुभव न हो जिससे उसके व्यापार विस्तार की इच्छा हमेशा जागृत रहे और वह ईमानदारी के साथ व्यापार कर चुकाते हुए सरकारी राजस्व की चोरी करने से बचे। यह प्रक्रिया जितनी सरल होगी उतनी ही राजस्व वृद्धि में सहायता मिलेगी, मगर बहुत ढोल– नगाड़ों के साथ जीएसटी को जब संसद का विशेष सत्र बुलाकर लागू किया गया तो ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश की गई कि मानो आजादी के बाद कोई नई आर्थिक क्रान्ति हो रही है।

सभी व्यापारियों के लिए सरकारी कागजात का मुंह भरने के लिए इलैक्ट्रानिक माध्यम से हर महीने खरीद–फरोख्त का पूरा विवरण देने को लाजिमी बना दिया गया और ऊपर से तुर्रा यह मारा गया कि इससे बहु कर प्रणाली का खात्मा हो गया है और केवल एक कर जीएसटी देने से काम चल जायेगा। जीएसटी की भारी-भरकम दराें ने और जटिल कम्प्यूटरीकृत विधि ने व्यापारिक क्षेत्र को परेशान कर दिया। जाहिर है इसका विरोध होना ही था क्योंकि यह प्रणाली लगातार रोजगार को ही उल्टा खाने लगी थी। देश के विपक्षी दलों ने इसे ‘गब्बर सिंह टैक्स’ तक का नाम दे डाला। सबसे ज्यादा नुकसान आम उपभोक्ता का हुआ। जीएसटी का सारा बोझ उसके ही सिर पर आकर पड़ा, मगर इससे बड़े–बड़े उद्योगों को कोई फर्क नहीं पड़ा। तर्क दिया जाने लगा कि जीएसटी से विदेशी निवेश बढ़ेगा मगर इस हकीकत को कुएं में फेंकने की कोशिश की गई कि जब भारत के आम लोगों में अपने श्रम के आधार पर वाणिज्य करने का जज्बा ही समाप्त हो जायेगा तो विकास किस जमीन पर होगा? तर्क दिया जा सकता है कि सं​िवधान संशोधन करके लाये गये जीएसटी को लागू करने में प्रत्येक राज्य सरकार की सहमति थी अतः इसका विरोध किस प्रकार उचित कहा जा सकता है? दरअसल विरोध जीएसटी पर नहीं रहा बल्कि इसे लागू करने की प्रणाली और कर श्रेणियों का गठन करने पर रहा। कांग्रेस संसद से लेकर सड़क तक शोर मचाती रही कि अधिकतम जीएसटी 18 प्रतिशत रहना चाहिए और लघु क्षेत्र में बनने वाले माल पर कम से कम शुल्क निर्धारित किया जाना चाहिए। सत्ताधारी दल का तर्क रहा कि एेश्वर्य प्रधान सामग्री को क्यों निचले स्तर पर रखा जाए। कार और साइकिल को एक ही कर श्रेणी में किस प्रकार डाला जा सकता है। दोनों के ही तर्क अपनी–अपनी जगह वाजिब कहे जा सकते हैं। इस मामले में मैं 1978 में केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार गठित होने पर स्व. चौधरी चरण सिंह द्वारा बतौर वित्त मंत्री पेश किये गये बजट का उदाहरण देना चाहता हूं। उनके बजट का तब देश के बड़े उद्यमियों ने बहुत जोर–शोर से विरोध किया था और उसे बैलगाड़ी के युग में प्रवेश करने वाला तक बताया था।

वर्तमान वित्त मंत्री श्री अरुण जेतली तब छात्र नेता थे। चौधरी साहब ने अपने बजट में भारत की आर्थिक विविधता का एक नक्शा खींचा था। उन्होंने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा बनाये जाने वाले खाने–पीने के सामान जैसे चाकलेट व टाॅफी से लेकर अन्य दैनिक उपयोग में आने वाली चीजों पर करों की दर ऊंची रखते हुए ठीक यही सामान घरेलू व छोटे उद्यमियों द्वारा बनाये जाने पर करों की दर बहुत कम कर दी थी। मसलन माचिस अगर बड़े उद्योग में बनी है तो उस पर शुल्क ऊंचा और अगर वही माचिस शिवाकाशी (तमिलनाडु) में बनी है तो उस पर कर की दर बहुत नीची। जुलाहे द्वारा बनाये गये या हथकरघा में बने कपड़े पर कोई टैक्स नहीं और मिलों पर बने कपड़े पर शुल्क। भारत की आर्थिक विविधता को समझने के लिए इससे बड़ा उदाहरण कोई दूसरा संभवतः नहीं हो सकता। हालांकि जीएसटी व्यवस्था में छोटे व मध्यम कारोबार की सीमा तय की गई है मगर इनके कच्चा माल खरीदने वाले को तो जीएसटी चुकाना ही होगा। इसके बाद उस पर सरकारी खातों का मुंह भरने की मजबूरी आ जायेगी। इसी प्रकार एक राज्य से दूसरे राज्य में माल बेचे जाने पर ‘ई वे बिल’ बनाने की जिम्मेदारी भी उत्पादनकर्ता पर डाल दी गई थी। हकीकत यह है कि श्री जेतली ने जीएसटी पर सहमति कायम करने के लिए कड़ी मेहनत की और अब वह पूरी प्रणाली को सरल बनाने में जुट गए हैं। प्रसन्नता की बात है कि वित्त मंत्री ने पूरी प्रणाली को सरल बनाने तथा कर श्रेणियों में बदलाव करने का फैसला किया है और इनमें कमी की है, मगर यह अन्तिम बदलाव नहीं कहा जा सकता क्योंकि जीएसटी में अभी भी काफी संशोधन की जरूरत पड़ेगी जिससे घरेलू उद्योगोें को बल मिल सके।

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